सर्वप्रथम तो ये जान लें आप सब कि ना तो मै जातिवादी हुँ और ना ही मुझे जातिवादी बनने का शौक है और ना ही कायस्थ समाज को जागृत करने मे मेरा कोई स्वार्थ छिपा है। मै कल भी एक कट्टर सनातनी था आज भी एक कट्टर सनातनी हुँ और विश्वास दिलाता हुँ सनातन धर्म के प्रति मेरी ये कट्टरता भविष्य मे भी बनी रहेगी। इन शब्दों के बावजूद भी हमे कोई जातिवादी कहे तो मै बस इतना ही कहुँगा कि कुत्तो के भौकने से हाथी रास्ता नही बदला करते।
मै ‘कायस्थ समाज’ से संबंध रखता हूँ । जो मेरे मित्र इस से सर्वथा अपरिचित हैं, उनकी जानकारी के लिए बता दुँ कि उत्तर भारत के बहुलांश क्षेत्रों मे कायस्थों की जबर उपस्थिति मौजूद है, हालांकि यह समाज देश के अन्य हिस्सों मे भी विद्यमान है । इनकी जनसंख्या काफी सीमित है परंतु इस वर्ग से संबन्धित सम्मानित महापुरुषों , विद्वानो, राजनेताओ , समाज सेवियों की एक लंबी फेहरिस्त मिलेगी जिन्होंने अपनी विद्वता, कर्मठता और प्रतिभा का लोहा पूरे विश्व मे मनवाया है ।
सम्राट अकबर के नवरत्न बीरबल से लेकर आधुनिक समय मे स्वामी विवेकानंद , राजा राम मोहन रॉय , महर्षि अरविंद ,श्रीमंत शंकर देव ,महर्षि महेश योगी, मुंशी प्रेमचंद, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, प्रोफेसर जगदीश चन्द्र बसु ,डाक्टर जे के भटनागर , डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद , हरिवंश राय बच्चन , महादेवी वर्मा , लाल बहादुर शास्त्री , बीजू पटनायक , ज्योति बसु, बाल ठाकरे, अमिताभ बच्चन इत्यादि इस श्रंखला की अहम कड़ियाँ हैं ।
परंतु साथ ही समाज मे कायस्थ समाज की उत्पत्ति के बारे मे अनेक भ्रांतियाँ मौजूद हैं और इनके निर्मूलन के लिए स्वयं कायस्थ समाज की ओर से भी कभी प्रयास नही किए जाते। कायस्थों के वर्ण और गोत्र के संबंध मे अनेक शंकास्पद प्रश्न उठाए जाते रहे हैं , मसलन हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था मे इस जाति का कोई उल्लेख नही है, यह ज्ञात नही की वे ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय या वैश्य अथवा शूद्र ?? और यह भी की वे सभी समगोत्रीय हैं, आदि तमाम प्रकार के अफवाह फैलाये जाते हैं।
अवलोकन करें:--
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कायस्थ गण प्रायः संकोची, विनम्र, शांतस्वभावी होते हैं तथा जातिगत अस्मिता व स्वाभिमान के प्रश्न पर भी मुखर होने के बजाय मौन और उदासीन रहकर निर्लिप्त भाव से अपना कर्म करते रहते हैं । शायद यही वजह है कि श्रष्टि की सबसे आदिम जाति होने के बावजूद भी आज वह अपनी पहचान और गौरव से वंचित है। विडम्बना भी यही है कि स्वयं कायस्थ गण भी अपनी विशिष्ट पहचान और जातिबोध को लेकर उदासीन और निर्लिप्त हैं तथा अपनी संतानों व संबंधियों को अपने जातीय गौरव और वंशाभिमान से स्वयं ही विमुख कर रहे हैं।
कायस्थ शब्द का अर्थ है – काया मे स्थित , काया मे अवस्थित यानी जो इस मनुष्य के देह मे स्थित है , उस प्राण ,उस आत्मन का नाम है कायस्थ । पौराणिक मान्यता के अनुसार जब श्रष्टि का निर्माण हुआ और मनुष्य योनि मे जब ब्रह्म प्राण काया मे अवस्थित हुए तो वह ‘ कायस्थ ‘’ कहलाया । कालांतर मे कर्म की प्रधानता को स्वीकारते हुए चातुर्वर्ण की व्यवस्था की गयी । इस प्रकार कायस्थ इन सभी चार वर्णो का मूल वर्ण है , जिसमे से प्रत्येक वर्ण ने आकार लिया ।
कुछ विद्वानो के कथनानुसार मूल कायस्थ वर्ण से विभाजित होकर जब चार वर्णो की स्थापना हुई , उसके उपरांत भी मूल विशिष्ट , कार्यदक्ष कुल समूह जिसने अपनी पहचान को इन चार वर्णो मे विलीन न कर अपना वैशिष्ट्य बोध बनाए रखा , ऐसा कुल समूह ‘ कायस्थ ‘’ कहलाया ।
कायस्थ की गणना उच्च जाति के हिन्दुओं में होती है। बंगाल में वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत उनका स्थान ब्राह्मणों के बाद माना जाता है। बहुत से विद्वानों का मत है कि, बंगाल के कायस्थ मुख्य रूप से क्षत्रिय थे और उन्होंने तलवार के स्थान पर कलम ग्रहण कर ली तथा लिपिक बन गये।
जैसोर का राजा प्रतापदित्य, चन्द्रदीप का राजा कन्दर्पनारायण तथा विक्रमपुर ( ढाका ) का केदार राम, जिसने अकबर का प्रबल विरोध किया था, अनेक वर्षों तक मुग़लों को बंगाल पर अधिकार करने जिसने नहीं दिया,वो सभी कायस्थ थे।
कायस्थों को वेदों और पुराणों के अनुसार एक दोहरी जाति का दर्जा दिया गया है। यह मुख्य रूप से उत्तर भारत में फैले हुए हैं, और ऊपरी गंगा क्षेत्र में ब्राह्मण और बाकी में क्षत्रिय माने जाते हैं। कायस्थ को निम्न भागों में बांटा गया है-
1. चित्रगुप्त कायस्थ - 'चित्रंशी' या 'ब्रह्म कायस्थ' या 'कायस्थ ब्राह्मण'
2. चन्द्रसेनीय कायस्थ प्रभु - 'राजन्य क्षत्रिय कायस्थ'
3. मिश्रित रक्त के कायस्थ - वे क्षत्रिय हैं, अदालत के अनुसार
इनके अतिरिक्त चतुर्थ प्रकार, उन गणों का है, जो रक्त से नहीं, किंतु नाम या कार्य से कायस्थ कहे जाते हैं। कायस्थ ब्राह्मण
उपर्युक्त वर्गों में पहला वर्ग ही 'कायस्थ ब्राह्मण' कहलाता है!
उपर्युक्त वर्गों में पहला वर्ग ही 'कायस्थ ब्राह्मण' कहलाता है!
यही वह ऐतिहासिक वर्ग है, जो चित्रगुप्त का वंशज है। इसी वर्ग कि चर्चा सबसे पुराने पुराण और वेद करते हैं। यह वर्ग 12 उपवर्गो में विभजित किया गया है। यह 12 वर्ग चित्रगुप्त की पत्नियों देवी, शोभावति और देवी नन्दिनी के 12 सुपुत्रों के वंश के आधार पर है।
कायस्थों के इस वर्ग की उपस्थिती वर्ण व्यवस्था में उच्चतम है।
प्रायः कायस्थ शब्द का प्रयोग अन्य कायस्थ वर्गों के लिये होने के कारण भ्रम की स्थिति हो जाती है, ऐसे समय इस बात का ज्ञान कर लेना चाहिये कि, क्या बात 'चित्रंशी' या 'चित्रगुप्तवंशी'
कायस्थ की हो रही है या अन्य किसी वर्ग की।
प्रायः कायस्थ शब्द का प्रयोग अन्य कायस्थ वर्गों के लिये होने के कारण भ्रम की स्थिति हो जाती है, ऐसे समय इस बात का ज्ञान कर लेना चाहिये कि, क्या बात 'चित्रंशी' या 'चित्रगुप्तवंशी'
कायस्थ की हो रही है या अन्य किसी वर्ग की।
कायस्थों का जन्मदाता भगवान 'चित्रगुप्त' महाराज को माना जाता है। माना जाता है कि, ब्रह्मा ने चार वर्ण बनाये थे- ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र । तब यमराज ने उनसे मानवों का विवरण रखने के लिए सहायता मांगी। तब ब्रह्मा 11000 वर्षों के लिये ध्यान-साधना मे लीन हो गये और जब उन्होंने आँखे खोलीं, तो एक पुरुष को अपने सामने स्याही-दवात तथा कमर मे तलवार बाँधे पाया। तब ब्रह्मा जी ने कहा कि, 'हे पुरुष! क्योकि तुम मेरी काया से उत्पन्न हुए हो, इसलिये तुम्हारी संतानो को कायस्थ कहा जाएगा, और जैसा कि तुम मेरे चित्र मे गुप्त थे, इसलिये तुम्हे चित्रगुप्त कहा जाएगा।'
कायस्थ ब्राह्मणों की 12 शाखाएँ बताई गयी हैं,जो निम्नलिखित हैं-
1. माथुर 2. गौड़ 3. भटनागर 4. सक्सेना 5. अम्बष्ठ 6. निगम 7. कर्ण 8. कुलश्रेष्ठ 9. श्रीवास्तव 10. सुरध्वजा 11. वाल्मीक
12. अस्थाना
1. माथुर 2. गौड़ 3. भटनागर 4. सक्सेना 5. अम्बष्ठ 6. निगम 7. कर्ण 8. कुलश्रेष्ठ 9. श्रीवास्तव 10. सुरध्वजा 11. वाल्मीक
12. अस्थाना
इस प्रकार यदि प्रकारांतर से देखें तो आज समस्त विश्व की मानव संताने कायस्थ हैं । जिस प्रकार हिन्दू धर्म विश्व का सनातन धर्म है और संसार का प्रत्येक धर्म इसी की कोख से निकला है , अतः विश्व का हर मानव मूलतः हिन्दू की उत्पत्ति है उसी प्रकार स्वायंभुव मनु की हर संतान कायस्थ है ।
कायस्थों के आदि देव हैं न्याय व व्यवस्था के संरक्षक व धर्मराज के अति विश्वस्त महाराज चित्रगुप्त जो स्वायंभुव मनु के अंतिम प्रजापति दक्ष की पुत्री अदिति व ब्रह्मर्षि कश्यप से उत्पन्न आदित्य कुल के गौरव थे और इसी कारण समूचा कायस्थ समाज स्वयं को ब्रह्मर्षि कश्यप का वंशज मानकर गौरवान्वित होता है और स्वयं को कश्यप गोत्र से पहचानता है।
मेरा कहने का सार बस इतना ही है कि सनातन धर्म के अन्तर्गत जितनी भी जातियां आती हैं वो सब के सब बस कायस्थ ही हैं। इसलिये मुझे गर्व है कि मै एक सनातनी कायस्थ हुँ। लेख आगे भी बाकी रह जा रहा है पर लेख ज्यादा बडा ना हो जाये इसलिये बाकी का कल पर छोडते हैं।
अब कायस्थ समाज को राजनीती में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के लिए आगे आना होगा। बिना सिस्टम का हिस्सा बने हम सिस्टम को अपने अनुकूल नहीं बना सकते हैं। आजादी के बाद से हम कायस्थ केवल वोटर के रूप में भारतीय राजनीती का हिस्सा रहे हैं। हमें अब वोट देने के साथ ही वोट लेना भी सीखना होगा तभी समाज विकसित और संगठित होगा। समस्याएं हमारी तभी हल होंगी जब सत्ता और सशन हमारा अपना होगा। कब तक भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा के भरोसे अपनी राजनैतिक योग्यता को परवान चढ़ने की राह देखते रहेंगे। इन बड़े राजनैतिक दलों में कब तक हम अपना भविष्य तलाशने की कोशिश करते रहेंगे ?
कहा जाता है कि भाग्य तो जन्म के साथ ही लिखा जाता है, मगर एक स्थान ऐसा है जहां कागज, कलम और दवात चढ़ाने से भाग्य बदलकर नए सिरे से भाग्य का उदय हो जाता है। यह स्थान मध्य प्रदेश में महाकाल की नगरी उज्जैन में है, जहां भगवान चित्रगुप्त और धर्मराज एक साथ मिलकर आशीर्वाद देते हैं।
उज्जैन नगरी के यमुना तलाई के किनारे एक मंदिर में चित्रगुप्त एवं धर्मराज एक साथ विराजे हैं। यह स्थान किसी तीर्थ से कम नहीं है। मान्यता है कि इस मंदिर में कलम, दवात व डायरी चढ़ाने मात्र से मनोकामना पूरी हो जाती है। यही कारण है कि इस मंदिर में दर्शन करने आने वाले श्रद्घालुओं के हाथों में फल-फूल न होकर कलम, स्याही और डायरी नजर आती है।
चित्रगुप्त और धर्मराज की उत्पत्ति को लेकर अलग-अलग कथाएं है। भगवान चित्रगुप्त के बारे में कहा जाता है कि इनकी उत्पत्ति स्वयं ब्रह्मा जी के हजारों साल के तप से हुई है। बात उस समय की है जब महाप्रलय के बाद सृष्टि की उत्पत्ति होने पर धर्मराज ने ब्रह्मा से कहा कि इतनी बड़ी सृष्टि का भार मैं संभाल नहीं सकता।
ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए कई हजार वर्षो तक तपस्या की और उसके फलस्वरूप ब्रह्मा जी के सामने एक हाथ में पुस्तक तथा दूसरे हाथ में कलम लिए दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। जिनका नाम ब्रह्मा जी ने चित्रगुप्त रखा।
ब्रह्मा जी ने चित्रगुप्त से कहा कि आपकी उत्पत्ति मनुष्य कल्याण और मनुष्य के कर्मो का लेखा जोखा रखने के लिए हुई है अत: मृत्युलोक के प्राणियों के कर्मो का लेखा जोखा रखने और पाप-पुण्य का निर्णय करने के लिए आपको बहुत शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, इसलिए आप महाकाल की नगरी उज्जैन में जाकर तपस्या करें और मानव कल्याण के लिए शक्तियां अर्जित करे।
कहा जाता है कि ब्रह्मा जी के आदेश पर चित्रगुप्त महाराज ने उज्जैन में हजारों साल तक तपस्या कर मानव कल्याण के लिए सिद्घियां एव शक्तियां प्राप्त की। भगवान चित्रगुप्त की उपासना से सुख-शांति और समृद्घि प्राप्त होती है और मनुष्य का भाग्य उज्जवल हो जाता है। इनकी विशेष पूजा कार्तिक शुक्ल तथा चैत्र कृष्ण पक्ष की द्वितीया को की जाती है।
भगवान चित्रगुप्त के पूजन में कलम और दवात का बहुत महत्व है। उज्जैन को भगवान चित्रगुप्त की तप स्थली के रूप में जाना जाता है। धर्मराज के बारे में पौराणिक कथाओं में वर्णित है कि वह दीपावली के बाद आने वाली भाई दूज पर यहां अपनी बहन यमुना से राखी बंधाने आए थे तभी से वह इस स्थान पर विराजित हैं। कहा जाता है कि धर्मराज द्वारा यहां पर अपनी बहन से दूज के दिन राखी बंधवाने के बाद से भाई दूज मनाया जा रहा है। आज भी यहां पर धर्मराज और चित्रगुप्त मंदिर के सामने यमुना सागर स्थित है। श्रद्घालुओं को इनके दर्शन व पूजन करने से मोक्ष मिलता है।
चित्रगुप्त जी के ठीक सामने चारभुजाधारी धर्मराज जी एक हाथ में अमृत कलश दो हाथों में शस्त्र एवं एक हाथ आशीर्वाद की मुद्रा के साथ विराजित है। धर्मराज की मूर्ति के दोनों ओर मनुष्यों को अपने कर्मों की सजा देते यमराज के दूत हैं। इतना ही नहीं ब्रम्हा, विष्णु महेश की भी प्रतिमाएं हैं।
" चित्रगुप्त नमस्तुभ्याम वेदाक्सरदत्रे
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम में उनका जन्म प्रमाण पत्र है। कायस्थों से द्वेष रखनेवालों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती, नव उत्पत्ति प्रकृति तत्व से होती है।
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह शक्ति निराकार है। हम निराकार शक्तियों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है.सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजने वाली भ्रमर की गुंजार) केरूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं।
यही शक्ति सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है. सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं. हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा,पालक विष्णु और महादेव शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं.आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जान हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं चूँकि वे जानते और मानते रहे हैं कि सभी में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा. कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा. कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व,कोई जयंती,कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं सब चित्रगुप्त जी के एक विशिष्ट रूप के लिये हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते।
यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा प्रचालन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया. यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वैदिक काल से है.
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं I
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बहुत अच्छी और ज्ञानवर्धक जानकारी धन्यवाद 🙏
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