नायिका की तलाश में सेक्स वर्कर के पास गए थे दादासाहेब फाल्के

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आर.बी.एल.निगम, फिल्म समीक्षक 
भारतीय सिनेमा के पितामाह  कहे जाने वाले दादासाहेब फाल्के की आज 74वीं पुण्यतिथि है। दादासाहेब फाल्के का पूरा नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। जब सिनेमा में इस्तेमाल होने वाली तकनीकों और मशीनें नहीं थी उस वक्त फाल्के भारत की पहली मूक फीचर फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' लेकर आए। इस फिल्म में कोई महिला नहीं थी। वहीं, दादासाहेब की आखिरी बार फिल्म बनाने की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। 
गहने गिरवी रख जुटाए पैसे
दादासाहेब फालके के नाती चंद्रशेखर पुसालकर ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में बताया- राजा हरीशचंद्र फिल्म की कुल लागत 15 हजार रुपए थी। उस वक्त ये कीमत बहुत होती थी। ऐसे में फाल्के की पत्नी सरस्वती बाई ने अपने गहने गिरवी रखकर पैसे जुटाने में मदद की। वहीं, फिल्म में महिलाओं का किरदार भी पुरुषों  ने निभाया था लेकिन तारामती का किरदार निभाने के लिए कोई अभिनेत्री नहीं मिल रही थी।
तारामती के लिए गए रेड लाइट एरिया में
दादासाहेब के नाती चंद्रशेखर के मुताबिक- तारामती के रोल के लिए एक्ट्रेस ढूंढने के लिए दादासाहेब मुंबई के रेड लाइट एरिया में भी गए। वहां पर औरतों ने उनसे पूछा कि कितने पैसे मिलेंगे। उनका जवाब सुनकर उन्होंने कहा कि जितने आप दे रहे हो उतने तो हम एक रात में कमाते हैं। दूसरे, यह भी कहते है कि दादासाहेब को यहाँ तक कहा गया "फिल्म में काम करने बाद उस वैश्या के पास कोई ग्राहक नहीं आएगा। उसके भविष्य का क्या होगा? क्यों नहीं अपने ही घर की किसी औरत को फिल्म में ले लेते।  यानि उस समय कोई भी महिला फिल्म में काम करने को तैयार नहीं होती थी। आखिर में दादासाहेब की तलाश एक होटल में खत्म हुई। एक दिन वो होटल में चाय पी रहे थे तो वहां काम करने वाले एक गोरे-पतले लड़के को देखकर उन्होंने सोचा कि इसे लड़की का किरदार दिया जा सकता है। उसका नाम सालुंके था। बाद में उसने तारामती का रोल निभाया।
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नहीं मिली आखिरी फिल्म बनाने की इजाजत
दादासाहेब फालके के नाती चंद्रशेखर पुसालकर ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में बताया- अंतिम बरसों में दादासाहेब अल्ज़ाइमर की बीमारी से जूझ रहे थे। लेकिन उनके बेटे प्रभाकर ने उनसे कहा कि चलिए नई तकनीक से कोई नई फिल्म बनाते हैं। उस समय फिल्म निर्माण के लिए ब्रिटिश सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। जनवरी 1944 में दादासाहेब ने लाइसेंस के लिए चिट्ठी लिखी। 14 फरवरी 1946 को जवाब आया कि आपको फिल्म बनाने की इजाजत नहीं मिल सकती। उस दिन उन्हें ऐसा सदमा लगा कि दो दिन के भीतर ही वो चल बसे। 

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