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हाथ से संविधान लिखते प्रेम बिहारी नारायण रायजादा, कायस्थ |
क्या है संविधान का औचित्य ?
जब कभी भी देश में कोई विवाद होता है समस्त राजनीतिक दल संविधान की दुहाई देते नज़र आते हैं , लेकिन वास्तव में संविधान का मजाक बनाने वाले भी यही सभी राजनीतिक दल ही होते हैं। जिसे हम मूर्ख जनता देखते हुए भी अपनी आँखें और मष्तिक बंद कर इनकी चिकनी चुपड़ी बातों में आकर इनके अंधभक्त बन एक दूसरे पर कीझड़ फेंक ववाही लुटते रहते हैं।

भारत में आज इंतने राजनीतिक दल हैं विश्व में कहीं नहीं। एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं जो सीना चौड़ा करके कह सके की वह संविधान की शर्तों एवं नियमों को सशर्त अपना रहा है। यही भारत देश का दुर्भाग्य है। बात तो करते हैं संविधान की, लेकिन उसकी धज्जियाँ उड़ाने से गुरेज भी नहीं करते। गुड़ खाते है लेकिन गुलगुलों से परहेज़ करते हैं। इस आरोप के एक नहीं हज़ारों प्रमाण मिल जायेंगे।
आशा जागृत हुई जब देश को 56 इंच के सीने वाला प्रधानमंत्री मिला। लेकिन लगता है संविधान की शर्तों को नमन करने के लिए 56X4=224 इंच चौड़े वाले प्रधानमंत्री की देश को जरुरत है। (मै प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोधी नहीं बल्कि दिल से प्रशंसा करता हूँ, वह इस लिए कि जिस तरह इस आदमी ने गोधरा दंगे को कंट्रोल किया वह प्रशंसनीय है, मेरे पत्रकारिता ज्ञान से गुजरात का यही मात्र एक दंगा ऐसा है जो एक सप्ताह से कम समय में शांत हुआ और इसमें केवल दोषियों को ही सजा हुई न कि बेकसूरों को पकड़ जेलों में डाला गया। दूसरे, 2012 के गुजरात विधान सभा चुनावों में तत्कालीन प्रधानमंत्री को सरक्रीक विषय पर पाकिस्तान के विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार को भारत बुलाये जाने पर सार्वजनिक सभा में भाषण देते हुए चुनौती दी थी।) उसका कारण है क्योंकि देश में ढ़ोंगी एवं छद्दम समाजवादी नेताओं की कमी नहीं, थोक के भाव में भरे पड़े हैं। जिन्हे केवल अपनी कुर्सी की चिन्ता है देश जाये भाड़ में। क्योंकि यहाँ चुनाव में वोट मांगे जाते हैं धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, सम्प्रायिकता के नाम पर ; कोई ये कहकर वोट नही मांगता कि मैंने समाज के लिए या देश के हित में ये-ये काम किये। ऐसे कोई देश क्या प्रगति करेगा जहाँ नेता अपनी ही संस्कृति का उपहास करने में गुरेज नहीं करते। विश्व में एक भी ऐसा देश नहीं जहाँ ऐसे घिनोने नामों पर वोट मांगे जाएँ ; ऐसा केवल भारत में ही संभव है बल्कि यह कहने में संकोच नहीं की वास्तव में भारत में आज ऐसा ही हो रहा है। जो चिन्ता का विषय है। ऐसे नेता देश को सुदृढ़ करने की बजाय खोखला कर रहे हैं। कोई नेता अपनी वोट बैंक सोंच बदलने को तैयार नहीं, उनके लिए उनका वोट बैंक ही सर्वोपरि है देश नहीं। संविधान में इतने संशोधन कर संविधान को संविधान की बजाय मात्र एक मनमोहक ग्रंथ बना दिया है, जिसे जब चाहो बदल लो, मानो संविधान कोई हसीना हो, एक से मन भर गया बदल दो। क्या तमाशा बना रखा है? लोकतंत्र के नाम पर कब तक जनता को मूर्ख बनाया जायेगा?
राष्ट्रीय भाषा
इस वोट बैंक की संकीण मानसिकता ने इतनी भाषाओं को मान्यता दी हुई है जिस कारण राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का कितना अनादर हो रहा है किसी को चिन्ता नहीं सबको चिन्ता है मात्र अपने वोट बैंक की, देश जाये भाड़ में, लेकिन हमारा वोट बैंक टस से मस न हो। परन्तु फिर भी कुछ दलों का वोट बैंक बेपेंदी लोटे के समान इधर -उधर चला जाता है। वास्तविकता ये की ये वोट बैंक किसी का सगा नहीं। इस वोट बैंक का हाल ये है “जहाँ देख तवा परात, वहीँ बीता सारी रात ”। विश्व में कहीं भी जाओ केवल एक ही भाषा प्रचलन में होती है। ये नेता सरकारी खर्चे पर जो विदेशों में जाते है क्या सीख कर आते हैं ? खाक? क्या ये सरकारी धन का दुरूपयोग नहीं? आखिर कब तक सरकारी धन का दुरूपयोग होता रहेगा?
एक व्यक्तिगत उदाहरण दे रहा हूँ। आप हंगरी जाइए, या किसी भी अन्य देश में वहां अपनी राष्ट्र भाषा को ही महत्व दिया जाता है, इंग्लिश को बाद में। लेकिन यहाँ स्थिति एक दम विपरीत है। इसके जिम्मेदार कोई और नही हमारा नेता समाज ही है, जिसने अपने वोट बैंक की खातिर राष्ट्र भाषा को महत्वहीन कर दिया है। हंगरी में हंगरी भाषा ही मिलेगी, वहां इंग्लिश जानने वाले भी बहुत काम है। लेकिन यहाँ मेरे प्रदेश में मेरी ही भाषा बोली जाएगी। कुछ समय पूर्व मुंबई में राज ठाकरे ने क्या ड्रामा किया, कितने राजनीतिक दल ठाकरे के विरुद्ध खड़े हुए। क्या किसी ने यह कहने का साहस किया कि “जब राष्ट्रभाषा हिन्दी है तो हिन्दीभाषियों का अपमान क्यों? ”मुंबई में हिन्दी क्यों नहीं, मराठी ही क्यों? क्या यह भारतीय संविधान का मजाक नहीं?
बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक
जब हमारा संविधान सब को सामान अधिकार देता है, फिर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक कहाँ से आ गए? क्या हमारे नेता संविधान का मजाक नहीं बना रहे? विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ अपनी जनसँख्या को विभाजित किया जाता है। विभाजन का कारण धर्म हो या जाति, क्या यह संविधान के विरुद्ध नहीं? क्या संविधान जनता को विभाजित करने का अधिकार देता है? यदि नहीं, फिर नेताओं ने जनता का विभाजन क्यों किया? क्या यह संविधान का अपमान नही ?
फिर जिनको अल्पसंख्यक होना चाहिए, उनको तो बहुसंख्यक के साथ जोड़ दिया और जिनको अल्पसंख्यक नहीं होना चाहिए, उनको अपनी कुर्सी की खातिर अल्पसंख्यक बना कर प्रलोभन देकर सरकारी धन का दुरूपयोग कर देश ही की जनता को मुर्ख बना कर किस तरह संविधान की दज्जियां उड़ाई जा रही है, देख शर्म आती है इन्हे अपना नेता मानने में। आखिर कब तक संविधान का हास्य बनता रहेगा?

नेता अपनी सोंच बदलें
सर्वप्रथम, हमारे नेता समाज को अपनी सोंच में बदलाव लाना होगा। समस्त जनता को भारतीय मानना होगा। धर्म या जाति के आधार पर नहीं। यही कारण है देश में साम्प्रदायिकता पनप रही है जिसमें समाज जल रहा है और नेता समाज उस आग पर अपनी रोटियां ही नहीं सेक रहे बल्कि अपनी तिजोरियां भी भर रहे हैं। ऐसे लोग संविधान की क्या रक्षा करेंगे और क्या पालन? फिर कसूरवार हम जनता भी है जो वोट देते समय अपनी बुद्धि का लेशमात्र भी इस्तेमाल नहीं करते , झूठे प्रलोभनों में आकर विघटनकारियों एवं संविधान विरोधियों को ही वोट दे आते हैं। कोई अपने उम्मीदवार से यह पूछने का साहस नहीं करता की “जब संविधान समान अधिकार की बात कहता है फिर आपकी पार्टी ने अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ क्यों बनाया हुआ है, ये दोहरा चरित्र क्यों?” यह कटु सत्य है की भारत की समस्त पार्टियां दोहरा चरित्र अपनाये हुए हैं, सभी ने अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ,अनुसूचित जाति एवं जनजाति प्रकोष्ठ बनाये हुए हैं, जो इस बात को सिद्ध करता है कि संविधान की रक्षा का रोना और घड़ियाली आंसुओं में कोई अंतर नहीं।
क्या हमारे नेता अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का अर्थ जानते हैं? शायद नहीं क्योंकि यदि इस अर्थ का ज्ञान होता तो इस तरह के प्रकोष्ठों की स्थापना नहीं करते अर्थात हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और। वास्तव में अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इन दो शब्दों से देश को कितनी हानि हो रही है, 70 वर्षों में किसी भी नेता ने सोंचने का साहस तक नहीं किया, करें भी क्यों वोट बैंक जो सर्वोपरि है।
आरक्षण
संविधान बनाने वाले डॉ भीम राव आंबेडकर ने अपनी जाति के उद्धार के लिए दस वर्ष मांगे थे, जो बिना किसी अवरोध के सभी ने स्वीकार कर लिया, किन्तु जब स्वयं उन्होंने देखा की यहाँ उद्धार कम राजनीति ज्यादा हो रही है तब उन्होंने इस आरक्षण को समाप्त करने के लिए कहा। जो बात कल तक एक अफवाह समझी जा रही थी आज वास्तविक हो रही है।
इस में कोई दो राय नही कि आज इस आरक्षण का जरुरत से कहीं अधिक दुरूपयोग हो रहा है। इस बात को आम नागरिक से लेकर सरकार तक जानती है ,फिर भी कोई कार्यवाही नहीं होती। क्यों? सरकारी सुख -सुविधा लेने के लिए जाति का प्रयोग होता है लेकिन समाज में बोलचाल में उच्च जाति का प्रयोग किया जाता है, आखिर ये दोगली नीति क्यों? आखिर कब तक ये जातियां और नेता देश को गुमराह करते रहेंगे ?
जाति के नाम पर आरक्षण चलो उचित मान भी लिया जाये लेकिन जब कोई इनको जाति के नाम से बुलाये तो उसके विरुद्ध कानून है परन्तु जब इस जाति का कोई परिवार उच्च जाति के नाम से अपनी पहचान बनाये तो उसके विरुद्ध कोई कानून नहीं। क्या यह दोगली नीति नहीं ? यह कोई आरोप नहीं एक कटु सच्चाई है। व्यक्तिगत प्रमाण हैं। कोई तीर-तुक्का नहीं।व्यक्तिगत प्रमाण


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जब किसी अनुसूचित को जाति के नाम से पुकारना अपराध है, फिर " किस आधार पर चंद्रशेखर रावण जाति का प्रचार करते हैं, क्या यही संविधान में लिखा है? यह देश में दोगली नीति क्यों?" |
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क्या इस तरह की ओझी बात कहने वाली दलित नेता को गुमराह जनता ने सिर पर बैठा लिया। |

अवलोकन करें:--
मुगलवाद को जिस तरह भारत में ज़िंदा रखा जा रहा है और वोट के भूखे नेता कट्टरपंथियों के आगे शीश झुकाते हैं, विश्व में भारत को एक मजाक बना दिया है, विश्व इन करतूतों की वजह से हम पर हँसता है। मक्का जिसे इस्लाम का तीर्थ कहा जाता है, भारत में मुगलों के हिमायती जवाब दें कि मक्का में बानी बिलाल मस्जिद कहाँ है? जहाँ सजदा किए बिना हज पूरा नहीं होता था। किसी माई के लाल में हिम्मत है, सऊदी सरकार के विरुद्ध एक लब्ज़ निकाल सकें। भारत में मुगलों के लिए विधवा-विलाप करने वाले सऊदी सरकार के विरुद्ध मुँह खोलने का अर्थ भलीभाँति जानते है कि कहीं हमारे हज के जाने पर वहाँ की सरकार प्रतिबन्ध न लगा दे। भारत में ही कह सकते हैं "हमारा सिर सिर्फ अल्लाह के आगे झुकता है, किसी और के आगे नहीं", अब कोई इनसे पूछे सऊदी सरकार के विरुद्ध क्यों नहीं ? सऊदी सरकार के आगे झुक गया न सिर, इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए?
शर्म की बात है कि आज देश में गौ मांस पर इतना विवाद चल रहा है। प्रश्न है कि “क्या संविधान इस की इज़ाज़त देता है?” यदि संविधान इसकी इज़ाज़त नहीं देता फिर सख्ती से पालन क्यों नहीं होता? नेता समाज बताये कि वोट बैंक बड़ा या संविधान? फिर गौ मांस पर केवल कुछ ही राज्यों में निषेध है और राज्यों में नहीं, क्यों? नेता समाज राष्ट्र को बताए कि “जिन राज्यों में गौ मांस की इज़ाज़त है क्या वह राज्य भारत के अंग नहीं?” यदि वह राज्य भी भारत के हैं फिर किस आधार पर भेदभाव किया जा रहा है? क्यों? क्या यह संविधान का अपमान नहीं? संविधान को अपमानित कौन कर रहा है, जनता या नेता समाज? क्या नेता समाज इस अपराध का दोषी नहीं ?
क्या विश्व में है कोई ऐसा देश जो आरक्षण देता हो। कहने को और भी अनेक पहलु हैं, किन्तु संक्षेप में इतना ही कहना है उपरोक्त विषयों का अवलोकन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि नेता समाज ने संविधान को देश का संविधान नहीं अपितु सत्ता पाने का लोलीपोप बना दिया है। क्या नेता समाज का यही मानना है कि “कसम संविधान की खाते हैं, लेकिन संविधान का मजाक बनाने से चुकेंगे नहीं।” आखिर क्या है संविधान का औचित्य? कौन दिलाएगा संविधान को सम्मान? क्या किसी देश में संविधान का ऐसा मज़ाक देखा है?
संविधान को जलाना
क्या आपने किसी भी देश में अपने संविधान (संविधान की प्रति जलाना संविधान जलाने के बराबर है ) को जलाये जाने का समाचार पढ़ा या सुना? लेकिन यह कार्य संभव होता है भारत में। नेता समाज बताये क्या संविधान को जलाना उचित है? यदि नहीं, तो ऐसा करने वालों के विरुद्ध क्या कार्यवाही हुई? और यदि नहीं हुई तो क्यों? संविधान कोई खिलौना नहीं कि जब तक चाहा झुनझुना समझ खेले और जब चाहा जला दिया।
राष्ट्रीय ध्वज का अपमान
यह भारत में ही संभव है की राष्ट्रीय ध्वज को जलाओ, उसका अपमान करो। यह कार्य संभव है भारत में। जो चाहो करो कोई कार्यवाही नही होगी। अगर हुई तो राजनीति के मैदान में बैठे हमारे प्यादे और मानवाधिकार हमारा ब्रह्मस्त बन सहायता के लिए सडकों पर उतर आएंगे। मीडिया के माध्यम से मौलिक अधिकारों के हनन का शोर मचवाएंगे। फिर उसके बाद कार्य में सहयोगी साहित्यकारों एवं लेखकों को राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जायेगा। जबकि विश्व में कहीं और ऐसी दुष्काम की कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योकि वहां संविधान को ही सर्वोपरि माना जाता है, भारतीय नेता समाज की भांति संविधान को दिल भहलाने वाला झुनझुना नहीं। पिछली सरकार के दौरान एक बहुजन समाज पार्टी के मुस्लिम सांसद सदन में राष्ट्रगान शुरू होते ही, सदन छोड़ गया, सरकार ने क्या कार्यवाही की?

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2013 में अपने स्तम्भ में किए प्रश्न आज भी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं |

स्कूलों में पढ़ाया जाता है की दुनिया को फ़तेह करने वाला बादशाह सिकंदर भी जब दुनिया से विदा हुआ ,खाली हाथ गया। अरे सम्राट पोरस ने सिकंदर की जो दुर्दशा की कि दुम दबा कर भागने को विवश कर दिया था, फिर कहाँ से विश्व विजेता हुआ।
फिर हमें पढ़ाया जाता है कि "अकबर महान बादशाह था", वो बादशाह जो ज्वाला माता के मन्दिर नंगे पैर स्वर्ण छतर चढ़ाने जाता है, क्यों? माता की जोत को शान्त करने क्या-क्या कुकर्म नहीं किये थे, इस जालिम ने, और जब उसके हर प्रयास को माता ने विफल कर दिया, तब ज्वाला माता मन्दिर जाकर स्वर्ण छतर चढ़ाया था। इस विषय पर भी विस्तार से अति शीघ्र लिखने वाला हूँ कि "कौन कहता है अकबर महान था?" एक अय्याश बादशाह को महान बताया जाता है। हमें यह नहीं पढ़ाया गया/जाता कि अकबर किस गन्दी नीयत से "मीना बाजार" लगवाता था, और किस महिला से अपने जीवन की भीख माँग, इस अय्याशी के अड्डे को बंद किया था। क्या यही संविधान कहता है कि वोटों की खातिर भारत /इंडिया/इन्द्रप्रस्थ के वास्तविक इतिहास को मात्र नाम के दिखाओ और आक्रान्ताओं के इतिहास को इतना बढ़ा चढ़ा कर गुणगान करों।
हिन्दू काल से ब्रिटिश काल तक हमारी यह पावन धरती सोने की चिड़िया के नाम से विश्व विख्यात थी, लेकिन स्वंतंत्रता उपरांत कृषि प्रधान हो गयी और आज घोटाला प्रधान। यह सब इसलिए कि हमारे नेता समाज को न संस्कृति की चिन्ता है और न ही संविधान की। बस कुर्सी की खातिर किसी एक का या कभी-कभी दोनों का सहारा ले लेते है।
और यह हमारी विशेषकर भावी युवा पीढ़ी के लिए अच्छे संकेत नहीं है। क्योकि मेरी ही जैसी अधेड़ आयु के ही लगभग दस से बीस प्रतिशत लोग भारत के वास्तविक इतिहास से अवगत होंगे। और इसके लिए जिम्मेदार है हमारा नेता समाज। जितने घातक आक्रमण भारतीय संस्कृति पर हुए हैं, उससे संस्कृति कुछ धूमिल तो हुई लेकिन समाप्त नहीं। नेता समाज इतना अवश्य समझ ले, जिस दिन यह धूल हटनी प्रारम्भ होगी इनका वोट बैंक भी अपने पहलू में छुपाने की बजाय इन पाखण्डी एवं छद्दम नेताओं के साये से भी दूर रहेगा। फ्रेंच ज्योतिष नॉस्ट्राडौमुस द्वारा 1555 में की गयी भविष्यवाणियों का अध्ययन करने पर एक आशा की किरण बहुत ही अतिनिकट भविष्य में प्रज्जलित होने को आतुर है।
साम्प्रदायिकता
यह कोई भयभीत करने वाला अथवा भयंकर शब्द नहीं, जितना इसे हमारे नेता समाज और इनके समर्थकों (दूसरे शब्दों में चमचे) ने बना दिया है। मैं अधिक चर्चा में नहीं जाना चाहता। कहते है न प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। ताजमहल जिसे विश्व का सातवां अजूबा कहा जाता है, किसी ने क्या नेता समाज से या न्यायालय में पीआईएल(PIL) डाल कर यह पूछने का साहस किया कि “क्या कारण की ताजमहल के दो कमरों को आज तक क्यों नहीं जनता के लिए खोला गया?” साम्प्रदायिकता होती नहीं बल्कि फैलाई जाती है। वास्तविकता का बोध करवाना यदि साम्प्रदायिकता है तो धर्मनिरपेक्षता क्या होती है? हमारा नेता समाज वास्तव में धर्मनिरपेक्ष का भावार्थ तक न जानते हैं और ना ही जानने का प्रयत्न करते हैं, यदि जानते हैं तो वोट बैंक के आगे नतमस्तक हो उसका दुष्प्रचार करके जनता को भ्रमित करते हैं और शिक्षित समाज भी पुरस्कर पाने की लालसा में धृतराष्ट्र बन अनुसरण करने लगे हैं।
सरदार (सिख ) कौम कहां से आई ?
क्या हमारा नेता समाज राष्ट्र को यह बताने का साहस कर सकता है कि यह सरदार जिन्हें आज सिख के नाम से जाना जाता है, कहाँ से आई? आखिर ये कौम या जात या फिर धर्म क्या है? आज के बहुसंख्यक की रक्षा करने के लिए हमारे, मतलब सिख, गुरुओं ना जाने कितनी यातनाएं झेलीं है? न जाने कितने सरदारों को जान से हाथ थोना पड़ा ? न जाने कितने सरदारों को खौलते तेल में डाला गया? और न जाने कितनों को आड़े से कटा गया? इतना ही नहीं, इस भेदभाव की घिनौनी राजनीति ने एक सिख संत को आतंकवादी बना दिया। क्या वह सिख संत आतंकवादी था? आदि आदि। यदि इस सच्चाई अर्थात कटु सत्य को बताने का साहस कर सकता है तो केवल सरदार यानि सिख, बाकी किसी में वास्तविकता को बताने का साहस नहीं क्यूंकि वोटबैंक का भय उन्हें सत्यता से दूर ही रहने की सलाह देगा।
प्रश्न वही आता ही कि संविधान की दुहाई देने वाले नेता समाज ने देश को धर्म एवं जाति के विस्फोटक बारूद के ढ़ेर पर स्थापित कर दिया है। आखिर क्यों?
संक्षेप में इतना ही कहना चाहूंगा कि वैसे तो संविधान की प्रतिष्ठा एवं मान पर चर्चा करने को अनेक बिंदु हैं, एक लम्बी श्रृंखला लिखी जा सकती है। लेकिन वोट बैंक के आगे नत मस्तक हमारे नेता समाज एवं उनके धृतराष्ट्र और गंधारी बने अनुयायिओं द्वारा ऐसा विषैला विषपान जनता को करवाया जाएगा जिसका विश्लेषण करना शब्दों से परे है। डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी एवं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस इसके जीवंत उदाहरण हैं। नाम तो अनेक हैं। परन्तु भारतीय नेता समाज जैसा वर्ग विश्व में कहीं और नहीं मिलेगा जो वोट बैंक के आगे नतमस्तक हो संविधान को एक झुनझुने की भांति प्रयोग करे। इनके लिए संविधान नहीं वोट बैंक सर्वोपरि है। जब तक नेताओं की ऐसी मानसिकता रहेगी भारत और भारत की प्रगति आधारहीन भव्य महल की भांति रहेगी। जो कभी भी ताश के महल की भांति कभी भी धराशाही हो सकता है, जिसने चुनाव प्रणाली को भी एक मजाक बना दिया है।
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