रोटी सिर्फ पेट की भूख मिटाने के लिए नहीं होती, आत्मतृप्ति के लिए जीवन का हर पल रोटी होता है

संस्कृत में कभी पढ़ा था कि एक पति पत्नी जिनका नाम यक्ष और यक्षिणी था वह एक साल तक अलग रहे थे उस समय तो मोबाइल भी नहीं होते थे जो बात कर सके पत्नी पढ़ी-लिखी भी नहीं थी उसने 1 साल मैं जितने दिन होते थे इतने फूल लेकर अपने पास रख लिए थे और रोजाना यह फूल उसमें से हटा देती थी इस प्रकार उसने साल भर का समय बिताया था और यक्ष ने मेघ को अपना मैसेंजर बनाकर काव्य की रचना की थी। बुद्ध भगवान जब सत्य की खोज में निकले थे तो यशोधरा को सोता हुआ छोड़ गए थे।
पति पत्नी के जीवन में खुशहाली तभी होती है जब दोनों एक दूसरे पर विश्वास रखते हैं चाहे घर हो या बाहर दांपत्य जीवन के सफलता का रहस्य आपसी प्रेम और विश्वास है।
पत्नी के स्वर्गवास होने पर सिर्फ उसका परिवार ही नहीं रोता। परिवार को तो दुनिया देख लेती है रोते हुए, लेकिन नहीं देख पाती सुहाग की वेदना, रोती है शांत हुई चूड़ियों की खनखनाहट, मांग का सिन्दूर, रोती है माथे का श्रृंगार बिन्दी, कानों में लटकने वाली बालियां, गले का मंगलसूत्र, रोती है पूजा की वो थाली जिसे
लेकर परमपिता परमेश्वर से अपने परिवार की मंगल कामना करती थी, रोता है फर्श जिस पर चलते गूंजती थी पायल, रोती है रसोई जहाँ चूड़ियों वो खनखनाहट जो रोटी, दाल, सब्जी और पकवान बनाते होती थी बर्तनों की आवाज़ें, रोते हुए घर के वो परदे जिन्हे छूकर करती थी कमरों और घर का श्रृंगार, वो दरवाज़े जिन्हे साफ करते स्पर्श करती थी, वो साड़ियां जिन्हे पहन परिवार को अपने आंचल की छाँव देती थी, रोती रहती है अलमारी जिसमे सजाकर रखती थी अपनी साड़ियां और परिवार के वस्त्र, और घर की वो दीवारें जिन्हे मन ही मन गीत गुना कर मोहित करती थी।

एक मित्र ने पत्नी के स्वर्गवास हो जाने के बाद अपने दोस्तों के साथ सुबह शाम पार्क में टहलना और गप्पें मारना, पास के मंदिर में दर्शन करने को अपनी दिनचर्या बना लिया था।

समय से समझौता करना ही स्वर्गवासी पत्नी को विधुर की सच्ची श्रद्धांजलि देकर प्रसन्न रखना ही विधि का विधान है। यह नहीं भूलना चाहिए कि विधाता ने आज तक कोई ऐसा घर नहीं बनाया जहाँ बर्तनों की आवाज़ नहीं होती, प्राणी की अग्नि परीक्षा उस आवाज़ को शोर नहीं करने में ही है। जिस तरह महिला की चूड़ियां खनखने की आवाज़ होती है। जिस तरह उन चूड़ियों की खनखनाहट से परिवार आनन्दित होता है उसी तर्ज पर आनन्दित होने में परिवार की खुशहाली निर्भर है। दूसरे, आज तक कोई ऐसा चूल्हा नहीं जिसमे धुआँ नहीं हो। पहले के समय में अंगीठी से निकलने वाले धुएं को दुनिया देखकर शांत रहती है लेकिन आज गैस के चूल्हे से नहीं दिखने वाला निकलता धुआं ही सबसे घातक ये ही धुआं होता है। संयम रख परिवार की सुख-शांति के लिए बर्दाश्त करने में ही बुद्धिमानी है। क्योकि लोग दुःख नहीं आंसुओं का सौदा करने लगते हैं।

60 के दशक में मोहम्मद रफ़ी के गाए दो मामिर्क गीत "दीवाना आदमी को बनाती है रोटियां..." और दूसरा "ले लो ले लो दुआएं माँ बाप की, सिर से उतरेगी गठरी महापाप की...", जिस परिवार में बुजुर्गों को सम्मान दिया जाता उस परिवार में देवी-देवताओं का वास करते हैं। कहावत है की जो परिवार अपने बुजुर्गों को सम्मानपूर्वक रखता है वह चारों धामों की यात्रा से कम नहीं होता। इस सन्दर्भ में अनेक मार्मिक कथाएं प्रचलित हैं। दूसरे, जो बच्चे अपने वृद्ध माता या पिता को वृद्ध आश्रम में भेजते हैं परिवार की पगड़ी को खुद चौराहे पर उछालते हैं। बेटा अपने माता-पिता और बुजुर्गों की तो बहु तीन परिवारों की 1. अपने परिवार की; 2. अपने ससुराल की और तीसरे अपने मायके की।

आज पश्चिमी सभ्यता हमारे ऊपर इतनी हावी हो चुकी है कि अपनी भारतीय संस्कृति को भूल गए। पहले घर छोटे होते थे दिल और दिमाग बड़ा होता था और मकान(बंगला/कोठी) जितने बड़े है दिल और दिमाग उतने छोटे। संयुक्त परिवार प्रथा लगभग समाप्त है या कहा जाये कि उसकी अर्थी निकल चुकी है। उसका भी कारण है। हमारे बुजुर्गों में अपनत्व था कि वो गाय का दूध पीते थे भैस का नहीं। यह बहुत गूढ़ रहस्य है। आज गाय के नाम पर भैंस का दूध बिक रहा है। कोई जाँच करने वाला नहीं। गाय और भैंस दो दूधों में उतना अन्तर है जितना धरती और आकाश के बीच। गाय के बछड़े को जब भूख लगती है तो दूध पीने सीधे अपनी माँ के पास पहुँचता है जबकि भैंस के बछड़े को उसकी माँ तक लेकर जाने की ड्यूटी ग्वाले की होती है। यही कारण है संयुक्त परिवारों के टूटने का।

जहाँ तक वृद्ध आश्रम की बात है, इस सन्दर्भ में अभी कुछ ही दिन पहले सोशल मीडिया पर बहुत ही मार्मिक कहानी पढ़ी जिसे अति संक्षेप में उल्लेख कर रहा हूँ कि किन्ही कारणों से बेटा जब अपने पिता को वृद्ध आश्रम ले गया और वृद्ध आश्रम में छोड़कर जैसे ही मुड़ता है आश्रम का एक अधिकारी ताली बजाता है। बेटा पीछे मुड़कर देख जब ताली बजाने की वजह पूछता है तो जवाब मिलता है कि कुछ साल पहले यही व्यक्ति आश्रम से एक बच्चा गोद लेकर गया था और आज वही आदमी वृद्ध आश्रम आ जाता है। बेटा इतना भावुक हो गया कि अपने पिता को तुरन्त वापस ले गया। अपने आप पर इतनी ग्लानि हुई कि घर पहुँचने पर पत्नी को हैरान फिर कहानी बताने पर पत्नी को भी अपने आप पर ग्लानि हुई। यानि जीवन को ऐसा बनाना कि आइने के सामने खड़े होने अपनी शक्ल से नफरत नहीं हो। सूरत नहीं सीरत अच्छी बनानी चाहिए। सूरत तो मृत्यु होने आग में जल जाएगी लेकिन सीरत अमर रहेगी। सूरत एक छलावा है लेकिन सीरत बोलती है संस्कार। लोगों के लिए उदाहरण बन जीवन जीने का मूल आधार बने।

लोहा जितना तपता है उतनी ही ताकत भरता है,
सोने को जितनी आग लगे उतना ही प्रखर निखरता है,
सूरज जैसा बनना है तो सूरज जैसा जलना होगा,
नदियों सा आदर पाना है तो पर्वत छोड़ निकलना होगा,
हम आदम की संतानें हैं क्यों सोचें राह सरल होगा,
हर संकट का हल होगाआज नहीं तो कल होगा।


हमारे शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि अगर माँ के चरणों में स्वर्ग होता तो उसका द्वार पिता के ही चरणों में होता है। माँ-बाप के बाद बहन ही माँ, माँ का आंचल, मित्र तो भाई एक पिता, पिता का साया और मित्र समान होते हैं। पत्नी का स्थान सर्वोपरि है। बहु जब घर के द्वार पर अपना पहला कदम रखती है कहते हैं लक्ष्मी आयी है यानि समस्त परिवार एक सूत्र होता है। रक्षा बंधन और भाई दूज पर बहन जो भाई के हाथ में राखी/कलावा बांधती है, वह मात्र एक धागा नहीं होता बल्कि बिना किसी स्वार्थ के अपने भाई के लिए परमपिता परमेश्वर से दुनिया के समस्त सुखों की कामना में बांधती है। उसको इस का लालच नहीं होता कि भाई कुछ पैसे देगा। इसे कहते हैं माँ का आंचल। और जब माता-पिता की मृत्यु बाद यह सूत्र बंधा रहकर रहता है, इसे कहते हैं स्वर्ग, अपने माता-पिता को स्वर्ग प्रदान नहीं करते बल्कि अपने लिए भी वह मार्ग पर चलने अपने-अपने परिवारों को भी संस्कार देते हैं। लेकिन पश्चिमी सभ्यता ने भारतीय संस्कारों को स्वार्थों में बदल दिया।

हालांकि घर में उन्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं थी। सभी उनका बहुत ध्यान रखते थे, लेकिन आज सभी दोस्त चुपचाप बैठे थे।
एक दोस्त को वृद्धाश्रम भेजने की बात से सभी दु:खी थे" आप सब हमेशा मुझसे पूछते थे कि मैं भगवान से तीसरी रोटी क्यों माँगता हूँ? आज बतला देता हूँ। "
कमल ने पूछा "क्या बहू तुम्हें सिर्फ तीन रोटी ही देती है ?"
बड़ी उत्सुकता से एक दोस्त ने पूछा? "नहीं यार! ऐसी कोई बात नहीं है, बहू बहुत अच्छी है।
असल में "रोटी, चार प्रकार की होती है।"
पहली "सबसे स्वादिष्ट" रोटी "माँ की "ममता" और "वात्सल्य" से भरी हुई। जिससे पेट तो भर जाता है, पर मन कभी नहीं भरता।
एक दोस्त ने कहा, सोलह आने सच, पर शादी के बाद माँ की रोटी कम ही मिलती है।" उन्होंने आगे कहा "हाँ, वही तो बात है।
दूसरी रोटी पत्नी की होती है जिसमें अपनापन और "समर्पण" भाव होता है जिससे "पेट" और "मन" दोनों भर जाते हैं।", क्या बात कही है यार ?" ऐसा तो हमने कभी सोचा ही नहीं।
फिर तीसरी रोटी किस की होती है?" एक दोस्त ने सवाल किया।
"तीसरी रोटी बहू की होती है जिसमें सिर्फ "कर्तव्य" का भाव होता है जो कुछ कुछ स्वाद भी देती है और पेट भी भर देती है और वृद्धाश्रम की परेशानियों से भी बचाती है", थोड़ी देर के लिए वहाँ चुप्पी छा गई।
"लेकिन ये चौथी रोटी कौन सी होती है?" मौन तोड़ते हुए एक दोस्त ने पूछा-
"चौथी रोटी नौकरानी की होती है। जिससे ना तो इन्सान का "पेट" भरता है न ही "मन" तृप्त होता है और "स्वाद" की तो कोई गारँटी ही नहीं है", तो फिर हमें क्या करना चाहिये यार?
माँ की हमेशा पूजा करो, पत्नी को सबसे अच्छा दोस्त बना कर जीवन जिओ, बहू को अपनी बेटी समझो और छोटी मोटी ग़लतियाँ नज़रन्दाज़ कर दो, बहु भी खुश रहेगी तो बेटा भी ध्यान रखेगा। महकेगा स्वर्गवासी हुई का घर-संसार।
अवलोकन करें:-
"वियोग क्या पिछले जन्म का कर्म है?" मृत्युलोक (धरती) पर जो आया है वियोग निश्चित है कोई आगे कोई पीछे;
यदि हालात चौथी रोटी तक ले आये तो भगवान का आभार जताओ कि उसने जीवित रखा हुआ है और अब स्वाद पर ध्यान मत दो केवल जीने के लिए थोड़ा कम खाओ ताकि आराम से बुढ़ापा कट जाए। बड़ी खामोशी से दोस्त सोच रहे थे वाकई हम कितने खुशकिस्मत हैं।

1 comment:

Shweta said...

Kitni khoobsurti se bataya hai aapne 👍