एक मित्र ने पत्नी के स्वर्गवास हो जाने के बाद अपने दोस्तों के साथ सुबह शाम पार्क में टहलना और गप्पें मारना, पास के मंदिर में दर्शन करने को अपनी दिनचर्या बना लिया था।
समय से समझौता करना ही स्वर्गवासी पत्नी को विधुर की सच्ची श्रद्धांजलि देकर प्रसन्न रखना ही विधि का विधान है। यह नहीं भूलना चाहिए कि विधाता ने आज तक कोई ऐसा घर नहीं बनाया जहाँ बर्तनों की आवाज़ नहीं होती, प्राणी की अग्नि परीक्षा उस आवाज़ को शोर नहीं करने में ही है। जिस तरह महिला की चूड़ियां खनखने की आवाज़ होती है। जिस तरह उन चूड़ियों की खनखनाहट से परिवार आनन्दित होता है उसी तर्ज पर आनन्दित होने में परिवार की खुशहाली निर्भर है। दूसरे, आज तक कोई ऐसा चूल्हा नहीं जिसमे धुआँ नहीं हो। पहले के समय में अंगीठी से निकलने वाले धुएं को दुनिया देखकर शांत रहती है लेकिन आज गैस के चूल्हे से नहीं दिखने वाला निकलता धुआं ही सबसे घातक ये ही धुआं होता है। संयम रख परिवार की सुख-शांति के लिए बर्दाश्त करने में ही बुद्धिमानी है। क्योकि लोग दुःख नहीं आंसुओं का सौदा करने लगते हैं।
60 के दशक में मोहम्मद रफ़ी के गाए दो मामिर्क गीत "दीवाना आदमी को बनाती है रोटियां..." और दूसरा "ले लो ले लो दुआएं माँ बाप की, सिर से उतरेगी गठरी महापाप की...", जिस परिवार में बुजुर्गों को सम्मान दिया जाता उस परिवार में देवी-देवताओं का वास करते हैं। कहावत है की जो परिवार अपने बुजुर्गों को सम्मानपूर्वक रखता है वह चारों धामों की यात्रा से कम नहीं होता। इस सन्दर्भ में अनेक मार्मिक कथाएं प्रचलित हैं। दूसरे, जो बच्चे अपने वृद्ध माता या पिता को वृद्ध आश्रम में भेजते हैं परिवार की पगड़ी को खुद चौराहे पर उछालते हैं। बेटा अपने माता-पिता और बुजुर्गों की तो बहु तीन परिवारों की 1. अपने परिवार की; 2. अपने ससुराल की और तीसरे अपने मायके की।
आज पश्चिमी सभ्यता हमारे ऊपर इतनी हावी हो चुकी है कि अपनी भारतीय संस्कृति को भूल गए। पहले घर छोटे होते थे दिल और दिमाग बड़ा होता था और मकान(बंगला/कोठी) जितने बड़े है दिल और दिमाग उतने छोटे। संयुक्त परिवार प्रथा लगभग समाप्त है या कहा जाये कि उसकी अर्थी निकल चुकी है। उसका भी कारण है। हमारे बुजुर्गों में अपनत्व था कि वो गाय का दूध पीते थे भैस का नहीं। यह बहुत गूढ़ रहस्य है। आज गाय के नाम पर भैंस का दूध बिक रहा है। कोई जाँच करने वाला नहीं। गाय और भैंस दो दूधों में उतना अन्तर है जितना धरती और आकाश के बीच। गाय के बछड़े को जब भूख लगती है तो दूध पीने सीधे अपनी माँ के पास पहुँचता है जबकि भैंस के बछड़े को उसकी माँ तक लेकर जाने की ड्यूटी ग्वाले की होती है। यही कारण है संयुक्त परिवारों के टूटने का।
जहाँ तक वृद्ध आश्रम की बात है, इस सन्दर्भ में अभी कुछ ही दिन पहले सोशल मीडिया पर बहुत ही मार्मिक कहानी पढ़ी जिसे अति संक्षेप में उल्लेख कर रहा हूँ कि किन्ही कारणों से बेटा जब अपने पिता को वृद्ध आश्रम ले गया और वृद्ध आश्रम में छोड़कर जैसे ही मुड़ता है आश्रम का एक अधिकारी ताली बजाता है। बेटा पीछे मुड़कर देख जब ताली बजाने की वजह पूछता है तो जवाब मिलता है कि कुछ साल पहले यही व्यक्ति आश्रम से एक बच्चा गोद लेकर गया था और आज वही आदमी वृद्ध आश्रम आ जाता है। बेटा इतना भावुक हो गया कि अपने पिता को तुरन्त वापस ले गया। अपने आप पर इतनी ग्लानि हुई कि घर पहुँचने पर पत्नी को हैरान फिर कहानी बताने पर पत्नी को भी अपने आप पर ग्लानि हुई। यानि जीवन को ऐसा बनाना कि आइने के सामने खड़े होने अपनी शक्ल से नफरत नहीं हो। सूरत नहीं सीरत अच्छी बनानी चाहिए। सूरत तो मृत्यु होने आग में जल जाएगी लेकिन सीरत अमर रहेगी। सूरत एक छलावा है लेकिन सीरत बोलती है संस्कार। लोगों के लिए उदाहरण बन जीवन जीने का मूल आधार बने।
हमारे शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि अगर माँ के चरणों में स्वर्ग होता तो उसका द्वार पिता के ही चरणों में होता है। माँ-बाप के बाद बहन ही माँ, माँ का आंचल, मित्र तो भाई एक पिता, पिता का साया और मित्र समान होते हैं। पत्नी का स्थान सर्वोपरि है। बहु जब घर के द्वार पर अपना पहला कदम रखती है कहते हैं लक्ष्मी आयी है यानि समस्त परिवार एक सूत्र होता है। रक्षा बंधन और भाई दूज पर बहन जो भाई के हाथ में राखी/कलावा बांधती है, वह मात्र एक धागा नहीं होता बल्कि बिना किसी स्वार्थ के अपने भाई के लिए परमपिता परमेश्वर से दुनिया के समस्त सुखों की कामना में बांधती है। उसको इस का लालच नहीं होता कि भाई कुछ पैसे देगा। इसे कहते हैं माँ का आंचल। और जब माता-पिता की मृत्यु बाद यह सूत्र बंधा रहकर रहता है, इसे कहते हैं स्वर्ग, अपने माता-पिता को स्वर्ग प्रदान नहीं करते बल्कि अपने लिए भी वह मार्ग पर चलने अपने-अपने परिवारों को भी संस्कार देते हैं। लेकिन पश्चिमी सभ्यता ने भारतीय संस्कारों को स्वार्थों में बदल दिया।
1 comment:
Kitni khoobsurti se bataya hai aapne 👍
Post a Comment