
एक तेरह साल पुराना किस्सा सुनाता हूं। यह किस्सा उसी संस्थान से जुड़ा है जहां रवीश कुमार काम करते हैं। उन दिनों मैं भी एनडीटीवी इंडिया में ही हुआ करता था। और उन्हीं दिनों केंद्र में आजादी के बाद से अब तक के सबसे “उदार और कमजोर” प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का शासन था। दान में मिली कुर्सी पर बैठकर मनमोहन सिंह भी गठबंधन सरकार पूरी उदारता से चला रहे थे। तो सत्ता और पत्रकारिता के उस “सर्णिम काल” में, एनडीटीवी के क्रांतिकारी पत्रकारों को अचानक ख्याल आया कि क्यों नहीं मनमोहन सरकार के मंत्रियों की रिपोर्ट कार्ड तैयार की जाए और अच्छे और खराब मंत्री चिन्हित किए जाएं। एनडीटीवी ने इस क्रांतिकारी विचार पर अमल कर दिया। एनडीटीवी इंडिया पर रात 9 बजे के बुलेटिन में अच्छे और बुरे मंत्रियों की सूची प्रसारित कर दी गई।

करीब नौ साल बाद 2014 में जब मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब “द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर” बाजार में आयी तो पता चला कि आखिर डॉ प्रणय रॉय ने ऐसा क्यों किया था। पेज नंबर 97 पर संजय बारू ने बताया है कि अब तक के सबसे अधिक उदार और कमजोर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फोन करके एनडीटीवी के ताकतवर पत्रकार मालिक डॉ प्रणय रॉय को ऐसी झाड़ पिलाई कि उनकी सारी पत्रकारिता धरी की धरी रह गई। खुद प्रणय रॉय के मुताबिक मनमोहन सिंह ने उन्हें कुछ ऐसे झाड़ा था जैसे कोई टीचर किसी छात्र को झाड़ता है। मनमोहन सिंह से मिली झाड़ के बाद महान पत्रकार/मालिक प्रणय रॉय इतना भी साहस नहीं जुटा सके कि अपनी रिपोर्ट कार्ड पूरी तरह गिरा सकें। अच्छे मंत्रियों की सूची सिर्फ इसलिए चलाई गई ताकि मनमोहन सिंह की नाराजगी दूर की जा सके। आप इसे पत्रकार से कारोबारी बने डॉ प्रणय रॉय की मजबूरी कह सकते हैं, सरकार की चाटूकारिता कह सकते हैं या जो मन में आए वह कह सकते हैं, लेकिन इसे किसी भी नजरिए से पत्रकारिता नहीं कह सकते।

रवीश कुमार जिस चैनल में काम करते हैं उसके मालिक डॉ प्रणय रॉय हमेशा उसी बड़े सियासी खेल का हिस्सा रहे हैं। अगर आप डॉ प्रणय रॉय और एनडीटीवी के अतीत पर नजर डालेंगे तो पाएंगे कि डॉ रॉय को आगे बढ़ाने में कांग्रेस और तीसरे मोर्चे की सरकारों का बड़ा योगदान रहा है। शुरुआती दिनों में उन्हें दूरदर्शन से करोड़ों रुपये के ठेके दिए गए। डीडी की कीमत पर उनको खड़ा किया गया। उसके बाद जिस दौर में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी उस दौर में वह रुपर्ट मर्डोक वाले स्टार न्यूज के लिए चैनल चलाया करते थे। तब पैसा मर्डोक की कंपनी देती थी और डॉ रॉय अपना एजेंडा चलाते थे। फिर वो दिन भी आया जब मर्डोक को लगने लगा कि डॉ रॉय उसके पैसे से अपना हित साध रहे हैं तो फिर उसने 2003 में एनडीटीवी से करार खत्म कर दिया। 2004 में डॉ रॉय अपना चैनल लेकर आए तो केंद्र में एक बार फिर से कांग्रेस और सहयोगी दलों की सरकार थी। 2004 से 2014 के बीच एनडीटीवी ने सत्तापक्ष की पत्रकारिता की।
मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान सदी के महान पत्रकार रवीश कुमार भी सत्तापक्ष की पत्रकारिता ही करते थे। 2007 के रेल बजट वाले दिन खुद इन्होंने और एक और बड़े पत्रकार ने यानी दो बड़े पत्रकारों ने मिल कर लालू यादव के एक अधिकारी के साथ ब्रेकफास्ट पर ऐतिहासिक इंटरव्यू किया था जिसमें उन्होंने बताया था कि अधिकारी महोदय की महती भूमिका की वजह से रेल बजट तैयार हुआ है। (इस मसले से जुड़ा मेरा खुद का एक बेहद कड़वा अनुभव है। तब “फ्री स्पीच” की वकालत करने वाले रवीश कुमार पत्रकारिता पर एक टिप्पणी से इस कदर विचलित हुए कि रोते हुए मालकिन राधिका रॉय के पास शिकायत करने पहुंच गए थे। उस वाकये पर मैं फिर कभी विस्तार से लिखूंगा) बहरहाल, ऊपर बताई गई रेल बजट वाली क्रांतिकारी पत्रकारिता से फुरसत मिलने पर रवीश स्पेशल रिपोर्ट में दलित की दुकान दिखाया करते थे या फिर मुंबई में स्ट्रगलर्स कॉलोनी या फिर मुजरेवालियों पर विशेष बनाया करते थे। ये एनडीटीवी की फेस सेविंग एक्सरसाइज थी और यहां ध्यान रखना होगा कि 2004 से 2014 के दौर में एनडीटीवी ने कभी भी सत्ता के खिलाफ कोई सशक्त स्टोरी नहीं की। सुनियोजित तरीके से सरकार के खिलाफ कोई “कैंपेन” नहीं चलाया। मौका पड़ने पर चमचागीरी ही की। अन्ना आंदोलन के दौरान जब केंद्र की मनमोहन सरकार पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगे तब भी एनडीटीवी का रवैया संतुलित बना रहा।
2014 के बाद एनडीटीवी की पत्रकारिता अचानक “बागी” हो गई तो इसलिए क्योंकि जिस सियासी खेल में डॉ प्रणय रॉय शामिल थे उसमें मौजूदा सरकार के खिलाफ स्टैंड लेना उनकी मजबूरी थी। फिर भी डॉ प्रणय रॉय ने संतुलन बनाने की कोशिश की। उसी कोशिश के तहत कुछ बड़े लोग हटाए गए। लेकिन मौजूदा सत्तापक्ष ने एनडीटीवी को स्वीकार नहीं किया। अगर मौजूदा सत्तापक्ष ने एनडीटीवी को स्वीकार कर लिया होता तो इसकी भाषा भी काफी पहले बदल गई होती। जो मालिक एक झटके में 3-4 सौ कर्मचारियों को बाहर निकाल सकता है, अगर उसे लाभ का विकल्प दिया जाए तो वह किसी को भी बाहर कर सकता है। जो पत्रकार नौकरी से निकाले गए अपने सहयोगियों का फोन उठाना बंद कर दे, या फिर उन्हें बाहर निकालने की साजिश रचे, या फिर मातहत काम करने वालों को नौकरी से निकाल देने की धमकी दे, वह पत्रकार भी जरूरत पड़ने पर कोई भी समझौता कर सकता है।
इसलिए वर्तमान दौर में आत्मवंचना में लिप्त जो भी पत्रकार खुद को “क्रांतिकारी” होने का दावा कर रहा है, उसकी समीक्षा इस बात पर होगी कि 2014 से पहले उसने कैसी पत्रकारिता की थी? क्या उसने मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के खिलाफ सुनियोजित तरीके से कोई कैंपेन चलाया था या नहीं? या फिर इन क्रांतिकारी पत्रकारों की परीक्षा तब होगी जब केंद्र में एक बार फिर नरेंद्र मोदी की सरकार नहीं रहेगी। अभी के दौर में देखा जाए तो ज्यादातर नामचीन पत्रकार एक बड़े “सियासी खेल” का हिस्सा नजर आते हैं. सत्तापक्ष और सत्ता विरोधी खेमे में खड़े इन चंद चर्चित पत्रकारों की “सियासत” के चलते पत्रकारिता और समाज का बड़ा नुकसान हुआ है। इस नुकसान का भुगतान देश को और समाज को लंबे समय तक करना होगाॆ। (एनडीटीवी के पूर्व पत्रकार समरेंद्र सिंह के फेसबुक पेज से साभार।)
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