क्या पाकिस्तान में तख्ता पलटने की कगार पर है?

Image result for इमरान-बाजवाआर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार 
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रारम्भ से ही पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना विरोध दर्ज करते रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान में पल रहे आतंकी सरगनाओं, फौज और सरकार जरुरत से ज्यादा हल्के में लेते रहे। उन्होंने समझा कि जिस तरह भारत सरकार द्वारा आतंकवाद को विश्व नज़रअंदाज़ करता रहा, अभी भी मोदी की आवाज़ को नज़रअंदाज़ कर दिया जाएगा, परन्तु हुआ एकदम विपरीत। विश्व स्तर पर भारत के प्रधानमंत्री की आवाज़ को गंभीरता से लिया गया, जिसके परिणाम स्वरुप विश्व में पाकिस्तान अलग-थलग होना शुरू हो गया था। तब भी पाकिस्तान के किसी भी बुद्धिजीवी ने लेशमात्र भी मनन करने का प्रयास तक नहीं किया। घटनाक्रम पूर्व की तरह चलता रहा, कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियां बदस्तूर जारी रहने के कारण भारत सरकार द्वारा पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक को भी गंभीरता से नहीं लिया। उसके बाद बालाकोट में एयर स्ट्राइक कर पाकिस्तान पर पाबंदियों का दौर शुरू होने पर, विश्व में रोना शुरू कर, अपनी पुरानी आदत के अनुसार भारत को बदनाम किया जाने का दाँव पाकिस्तान पर ही भारी पड़ गया। जिसे भारत में रह रहे पाकिस्तान समर्थकों के लिए चिंता का विषय है। ये लोग भी पाकिस्तान की ही बोली बोल रहे हैं, इन्हें देशहित से कोई मतलब नहीं। इस वीडियो को ध्यान से सुनें और भारत में पाकिस्तान समर्थकों को जानिए:-  
परन्तु अगस्त 5 को भारत की राज्यसभा अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बाद से पाकिस्तान प्रधानमंत्री इमरान खान की मुसीबतें थमने का नाम नहीं ले रही। बढ़ती महंगाई से जनता में इतना अधिक रोष उत्पन्न हो गया है, जिस कारण पाकिस्तान में विपक्ष भी एकजुट होकर, इमरान खान और फौज के विरुद्ध आवाज़ बुलंद कर रहा है। फौज प्रमुख बाजवा का 3 वर्ष कार्यकाल बढ़ाने से फौज में बगावत के स्वर मुखरित होने शुरू हो गए हैं, जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और बाजवा के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। जैसाकि इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने पर संभावनाएं व्यक्त की जा रही थीं कि "इमरान खान अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएंगे" के चरितार्थ होने का समय आ गया है। और अगर फौज में बगावत होती है, तो शायद पाकिस्तान के इतिहास में यह पहली घटना हो सकती है। क्योकि फौज में कितने ही इस पद के उत्तराधिकारी सेवा निर्वित हो चुके होंगे? जो अच्छा संकेत नहीं है। 
इमरान खान के एक साल में बदहाल हुआ पाकिस्तान 
उधर पाकिस्तानी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैरिस खालिक कहते हैं कि इमरान खान जिन वादों को लोगों के सामने रख सरकार में आए थे, वो उन्हें पूरा नहीं कर सके हैं। इमरान के सत्ता संभालने के बाद परिस्थिति सुधरी नहीं बल्कि और बिगड़ी हैं। जो प्रमाणित कर रहा है कि पाकिस्तान में हर मोड़ पर रोष है। 
18 अगस्त 2018 को जब इमरान खान ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली तो कई पाकिस्तानियों ने उन्हें मौजूद विकल्पों में सबसे बेहतर माना। बाकी पाकिस्तानियों ने उन्हें एक मसीहा की तरह माना और उनका अंधसमर्थन किया। इमरान की जीत को पाकिस्तान के दक्षिणपंथी और संपन्न शहरी मध्य वर्ग की जीत माना गया।
उन्हें विदेशों में रह रहे पाकिस्तानियों से भी मदद मिली। साथ ही मनौवैज्ञानिक रूप से अधीर न्यायपालिका और राजनीतिक रूप से ताकतवर सेना का भी साथ मिला। इमरान के समर्थकों ने उन्हें अर्थव्यवस्था की कमजोरी को दूर करने और राजनीतिक मुश्किलों का हल करने के लिए समर्थन दिया। वो मूलभूत समस्याओं का प्रशासनिक हल और भौतिक सवालों के नैतिक जवाब चाहते थे। लेकिन अब तक इमरान ऐसा करने में नाकाम दिख रहे हैं। लोगों की मुश्किलें दूर होने की बजाय बढ़ती दिख रही हैं।
2018 में पाकिस्तान की जनता के लिए नया पाकिस्तान का नारा इमरान ने दिया था। इसे संक्षेप में भ्रष्टाचार मुक्त अर्थव्यवस्था और सही तरीके से काम करने वाली सरकार के रूप में देखा गया था। यह इमरान खान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ के उभार और सत्ता तक पहुंचने की कहानी भी कह रहा है।
जुलाई 2018 में हुए आम चुनावों में गड़बड़ी के आरोप लगे। लेकिन फिर भी पाकिस्तान के लोग और दूसरी पार्टियों ने इमरान खान को एक मौका दिया। विपक्षी पार्टियों की मजबूरी ये थी कि अगर वो इस चुनाव के नतीजों को नहीं मानते तो आशंका थी कि कहीं यह पाकिस्तान में लोकतंत्र के अंत और फिर से फौजी हुक्मरानों के सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की वजह ना बन जाए।
हालांकि इमरान खान को अपने दो पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों जुल्फिकार अली भुट्टो और नवाज शरीफ की तुलना में बेहतर समर्थन मिला। अधिकांश शक्तिशाली संगठन उनकी तरफ थे, विपक्ष एकदम निष्क्रिय था और बाजार और मीडिया के साथ पाकिस्तान के पूरे मध्यम वर्ग को इमरान खान एक ऐसे नेता की तरह लग रहे थे जो उन्हें बचा सकेगा और उनका उद्धार करेगा।
अर्थव्यवस्था को नहीं संभाल सके
इमरान के सत्ता संभालने के सालभर बाद अब लगता है कि अर्थव्यवस्था को ठीक करने के उनके वादे हवा हवाई निकले हैं। अर्थव्यवस्था आगे तो नहीं बढ़ी बल्कि और भी पीछे पहुंच गई है। एक विकासशील देश में हमेशा पूंजीवाद काम आता है। इमरान खान की पार्टी कहती है कि वो सिस्टम को ठीक कर देंगे लेकिन उन्हें पता ही नहीं कि सिस्टम काम कैसे करता है।
पीटीआई का भ्रष्टाचार मिटाने और आर्थिक कर्ज खत्म करने का वादा उम्मीद से जल्दी धाराशायी हो गया। इमरान द्वारा नियुक्त किए गए आर्थिक प्रबंधकों की कम जानकारी और कुप्रबंधन इसकी वजह बना है। यही कारण है कि उनका ये वादा अब धूमिल होता नजर आ रहा है। आईएमएफ के साथ देरी से हुए समझौते ने ना सिर्फ इमरान खान की सरकार पर अतिरिक्त दबाव बनाया बल्कि आईएमएफ को पाकिस्तान की आर्थिक नीति पर अधिक नियंत्रण दे दिया।
मैक्रोइकोनॉमिक स्टैबिलिटी के नाम पर विकास रुक गया है। रुपये की कीमत लगातार कम होती जा रही है। बाजार ने अपना भरोसा खो दिया है। बिजली के बढ़ते दामों के साथ-साथ बढ़ती महंगाई ने आम लोगों की जेब ढीली कर दी है। लोगों की आमदनी कम होने से उनके सामने और भी मुश्किलें आ रही हैं। इस आर्थिक मंदी की वजह से बेरोजगारी और गरीबी लगातार बढ़ती जा रही है।
इन सब के बावजूद खर्चों की सबसे मुख्य कटौती शिक्षा और स्वास्थ्य के मद में की गई है। इसका नुकसान होना तय है। कर्ज की बात की जाए तो पाकिस्तानी अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून की खबर के मुताबिक पिछले पांच साल में नवाज शरीफ की सरकार ने जितना कर्ज लिया उसका दो तिहाई कर्ज इमरान खान की सरकार महज एक साल में ले चुकी है।
घरेलू और विदेशी नीति
विदेश नीति में इमरान की सरकार चीन और अमेरिका के साथ अपने संबंधों में सामंजस्य बिठाने में असफल रही है। चीन की महत्वाकांक्षी चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना अभी अधर में है। वहीं अमेरिका भी पाकिस्तान को अफगान शांति वार्ता में उसके मुताबिक काम नहीं करने पर कोई भी मदद देने को तैयार नहीं है।
अर्थव्यवस्था को स्थिर करने की कोशिश में पिछले एक साल में सऊदी अरब और यूएई को लुभाने के लिए झुकना, पाकिस्तान की आर्थिक स्थिरता के लिए बहुत थोड़ी ही राहत ला सका है। भारत के कश्मीर को लेकर अनुच्छेद 370 में किए गए परिवर्तनों पर अरब मुल्कों ने बहुत ठंडी प्रतिक्रिया दी। इस प्रतिक्रिया के चलते पाकिस्तान का पक्ष कमजोर हो गया।
पिछले एक साल में इमरान खान और उनके समर्थकों ने बस दो काम ठीक से किए हैं। एक राजनीतिक असंतोष को कम करना और दूसरा मेनस्ट्रीम मीडिया पर नियंत्रण करना। हालांकि जो लोग पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास से परिचित हैं वो ये बात अच्छे से जानते हैं कि आवाज दबाने का प्रतिरोध इतना घातक होता है कि वो सरकार की जड़ों को हिला देता है।
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जम्‍मू कश्‍मीर से धारा 370 हटने के बाद से ही पाकिस्‍तान बुरी तरह बौखलाया हुआ है. इसी बौखलाहट में वह दुनिया के कई देशों...

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जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद पाकिस्तान ने इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की कोशिश कर रहा .....

आत्मनिरीक्षण की जरूरत
एक साल का कार्यकाल खत्म होने के बाद इमरान खान की सरकार को आत्मनिरीक्षण की जरूरत है जिससे वो पाकिस्तानी नागिरकों के आर्थिक अधिकारों को सुनिश्चित कर सकें। इसमें गरीबी हटाना, उत्पादकता और रोजगार बढ़ाना भी शामिल है। साथ ही इमरान की सरकार को दूसरे देशों और महाशक्तियों के साथ दूरगामी हितों को देखकर अपने संबंधों में सामंजस्य स्थापित करना होगा।
साथ ही सरकार को अपने नागरिकों के सिविल और नागरिक अधिकारों को देना होगा। सरकार को लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी देना होगा। पाकिस्तान में हो रही आलोचनाओं को सुनने और उन्हें सकारात्मक रूप में लेकर इमरान खान की सरकार को काम करना होगा जिससे जिन वादों को करके वो सत्ता में आए थे उन्हें पूरा कर सकें और जनता की उम्मीदों पर खरा उतर सकें।

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