
जनसंघ के लिए राष्ट्रहित पहली प्राथमिकता थी, इसीलिए उसने इस गुट की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद पीएम पद की लालसा नहीं रखी और निःस्वार्थ भाव से जनता पार्टी एक्सपेरिमेंट का हिस्सा बनी। यही संस्करण है, जिसका अनुसरण करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘राष्ट्र प्रथम’ का नारा देते हुए पार्टी और देश का नेतृत्व किया, कर रहे हैं। 1977 में जनता पार्टी वाला एक्सपेरिमेंट चौधरी चरण सिंह व अन्य नेताओं की पीएम बनने की लालसा के कारण असफल रहा। 1980 के चुनाव में जनता पार्टी मात्र 31 सीटों पर सिमट गई लेकिन जनसंघ फिर भी लगभग आधी यानी 15 सीटें जीत कर इस गुट का सबसे बड़ा दल बना।
1977 और 1980 के चुनावों में जनसंघ के अच्छे प्रदर्शन के बाद जनता पार्टी के ही कुछ नेताओं में असुरक्षा की भावना ने घर कर लिया। वो ‘दोहरी सदस्यता’ का मुद्दा उठाने लगे और कहने लगे कि जनता पार्टी का कोई सदस्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य नहीं हो सकता। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने ज़रूर जनसंघ के नेताओं को पार्टी में बनाए रखने के लिए मेहनत की लेकिन अप्रैल 4, 1980 को जनता पार्टी की एग्जीक्यूटिव कमिटी ने जनसंघ के सभी नेताओं को जनता पार्टी से निलंबित कर दिया। हालाँकि, ये वाजपेयी, अडवाणी जैसे कद के नेताओं और उनके अनुयायियों के लिए झटका भी रहा, और इससे राहत भी मिली।
ये झटका इसीलिए था क्योंकि 1977 में जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर जनसंघ ने बाकी सारी चीजों को पीछे रखते हुए जनता पार्टी का हिस्सा बनना स्वीकार किया था, ताकि देश को एक नया और मजबूत राजनीतिक विकल्प मिले। ये राहत इसलिए था क्योंकि उन्हें लगातार दबाव के बाद वहाँ से छुटकारा मिल गया। अप्रैल 5-6, 1980 को जनसंघ के नेताओं ने दिल्ली में दो दिवसीय कार्यक्रम के दौरान नई भारतीय जनता पार्टी बनाने का निर्णय लिया और अटल बिहारी वाजपेयी इसके संस्थापक सदस्य बने। इस तरह एक नई पार्टी देश को मिली और वाजपेयी एक सर्वमान्य नेता बन कर उभरे।
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