जुलाई 3 को लेह में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने लिखा था कि-
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
मैं आज अपनी वाणी से आपकी जय बोलता हूं।
उन्होंने कहा कि आज लद्दाख के लोग हर स्तर पर चाहे वो सेना हो या सामान्य नागरिक के कर्तव्य हों, राष्ट्र को सशक्त करने के लिए अद्भुत योगदान दे रहें हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हमारे यहां कहा जाता है, वीर भोग्य वसुंधरा। यानी वीर अपने शस्त्र की ताकत से ही मातृभूमि की रक्षा करते हैं। ये धरती वीर भोग्या है। इसकी रक्षा-सुरक्षा को हमारा सामर्थ्य और संकल्प हिमालय जैसा ऊंचा है। ये सामर्थ्य और संकल्प में आज आपकी आंखों पर, चेहरे पर देख सकता हूं।
मोदी द्वारा लेह में सैनिकों के बीच राष्ट्रकवि रामधारी दिनकर की कविता का पाठ करने पर लोगों आशंका व्यक्त कर रहे थे कि आखिर किस कारण मोदी कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा का स्वांग कर रहे हैं? लेकिन वास्तविकता यह है कि मोदी ने दिनकर के माध्यम से जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान कांग्रेस तक चीन के मुद्दे पर राष्ट्र को धोखे में रखने की चालों का रहस्योघाटन किया है।
चीन से हारने पर चहुँ ओर नेहरू और कांग्रेस की आलोचना होने पर राष्ट्रकवि दिनकर ने कविता के माध्यम से अपना दर्द व्यक्त किया था।
आज हम दिल्ली के रामलीला मैदान में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में लता मंगेश्कर द्वारा गाया कवि प्रदीप रचित गीत "ऐ मेरे वतन के लोगों...." को सुनते समय आँखों में आंसू ले आते हैं, यदि गीत के शब्दों में छिपे सन्देश को देखें तो बहुत कुछ वर्णित कर रहे हैं। यह गीत इतना अधिक भाव विभोर था कि नेहरू गीतकार कवि प्रदीप को उपस्थित न देख उन्हें इतने राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत गीत की बधाई देने स्वयं मुंबई तत्कालीन बम्बई गए थे।
जब राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का नेहरू और कांग्रेस पर फूटा गुस्सा
1962 में चीन के हाथों भारत की पराजय से देश की जनता तो मर्माहत थी ही, हमारे बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी बहुत दुखी थे। सभी चीन के साथ भारत की कमजोर विदेश नीति को इस हार का जिम्मेवार ठहरा रहे थे। ऐसे में आग, विरोध और विद्रोह के लिए मशहूर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कैसे चुप रह सकते थे! कविवर दिनकर ने चीन की हार के बाद ही ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ नाम की काव्य पुस्तक की रचना की। उन्होंने इसमें नेहरू की गलत नीतियों की कविता के माध्यम से आलोचना की। नेहरू सरकार के समय देश में व्याप्त भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार को भी दिनकर जी ने अपनी लेखनी से रेखांकित किया।
पुस्तक की शुरुआत में ही कवि ने वीरों और सैनिकों से प्रश्न और उनके उत्तर के अंदाज में लिखा है-
गरदन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था,
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गए थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गए थे,
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं,
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का,
इन पंक्तियों मे दिनकर जी ने नेहरू की ओर इशारा करते हुए लिखा है कि जो नेता सस्ती लोकप्रियता पाकर फूले नहीं समा रहे थे और जो शेरों की तरह आचरण करने वाली जनता को अजा यानि बकरी का आचरण सिखा रहे थे, वैसे ही नेताओं के पाप को हमारे वीर सैनिक ढो रहे हैं। तलवार गलाकर तकली गढ़ने वाली नीतियों की वजह से ही हमारे वीर सैनिकों को शहादत देनी पड़ी और अपने शोणित यानि खून से हमारे वीर ऐसी नीतियों के कलंक को धो रहे हैं। दरअसल, इन पंक्तियों में तत्कालीन विदेश नीति और रक्षा नीति पर करारा प्रहार किया गया है। यह बताया गया है कि गलत रक्षा नीति के कारण कैसे भारतीय सैनिक युद्ध के लिए जरूरी सामानों के अभाव में युद्ध लड़ रहे थे।
चीन की हार से दिनकर जी गुस्से और दुख से भरे हुए थे। उनके क्षोभ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने नेहरू को इशारों ही इशारों में ‘पापी’ तक कह डाला।
उन्होंने लिखा-
घातक है जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहां मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं बधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं,
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
दिनकर जी की ये पंक्तियां नेहरू के जमाने की राजनीतिक अक्षमता और भ्रष्टाचार की कहानी कहती हैं। वे बता रहे हैं कि कैसे सच जानकर भी सच को नजरअंदाज किया जाता रहा, चुप्पी साधी जाती रही, कैसे उस वक्त लोभ, लालच का माहौल था और चोरों, भष्ट्राचारियों और चापलूसों को संरक्षण दिया जाता था। यही वजह थी कि भारत अपने ही घर में हार गया।
कांग्रेसी सत्ता को चुनौती देते हुए दिनकर जी आगे लिखते हैं-
ओ बदनसीब अंधो! कमजोर अभागो?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
तलवारें सोतीं जहां बंद म्यानों में,
किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियां-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर नहीं कढ़ती हैं।
दिनकर जी सिर्फ नेहरू सरकार की नीतियों को गलत ठहरा कर चुप नहीं हो गए बल्कि, वे देश को कमजोरी की ऐसी स्थिति से निकलने का समाधान बताते हुए वीरता और शौर्य का आह्वान भी करते हैं।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आग जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जाएगा,
भारत का पूरा पाप उतर जाएगा,
देखोगे कैसा प्रलय चण्ड होता है!
असिवन्त हिन्द कितना प्रचंड होता है!
बांहों से हम अंबुधि अगाध थाहेंगे,
धंस जाएगी यह धरा, अगर चाहेंगे .
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे।
हम जहां कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
गरजो, अंबर को भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढो! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
मां के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
1962 की हार के करीब साठ वर्षों के बाद अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समय सीमा पर चीन से संघर्ष की स्थिति बनी है। ऐसे में दिनकर जी के ये वाक्य बहुत ही प्रासंगिक हैं। चीन के खिलाफ कवि का गुस्सा जैसे भारतीय जनमानस में अब तक पलता आ रहा हो।
कुत्सिक कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिए प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित हैं, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
झकझोरो, झकझोरो महान सुप्तों को,
टेरो-टेरो चाणक्य-चंद्रगुप्तों को,
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को,
वैराग्यवीर, वंदा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
वीरों और सैनिकों का आह्वान करते हुए दिनकर लिखते हैं-
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,
मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए।
दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है,
मरता है जो, एक बार मरता है।
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे!
जीना है तो मरने से नहीं डरो रे!
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल,
कलम, आज उनकी जय बोल।
मैं आज अपनी वाणी से आपकी जय बोलता हूं।
उन्होंने कहा कि आज लद्दाख के लोग हर स्तर पर चाहे वो सेना हो या सामान्य नागरिक के कर्तव्य हों, राष्ट्र को सशक्त करने के लिए अद्भुत योगदान दे रहें हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हमारे यहां कहा जाता है, वीर भोग्य वसुंधरा। यानी वीर अपने शस्त्र की ताकत से ही मातृभूमि की रक्षा करते हैं। ये धरती वीर भोग्या है। इसकी रक्षा-सुरक्षा को हमारा सामर्थ्य और संकल्प हिमालय जैसा ऊंचा है। ये सामर्थ्य और संकल्प में आज आपकी आंखों पर, चेहरे पर देख सकता हूं।
मोदी द्वारा लेह में सैनिकों के बीच राष्ट्रकवि रामधारी दिनकर की कविता का पाठ करने पर लोगों आशंका व्यक्त कर रहे थे कि आखिर किस कारण मोदी कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा का स्वांग कर रहे हैं? लेकिन वास्तविकता यह है कि मोदी ने दिनकर के माध्यम से जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान कांग्रेस तक चीन के मुद्दे पर राष्ट्र को धोखे में रखने की चालों का रहस्योघाटन किया है।
चीन से हारने पर चहुँ ओर नेहरू और कांग्रेस की आलोचना होने पर राष्ट्रकवि दिनकर ने कविता के माध्यम से अपना दर्द व्यक्त किया था।
आज हम दिल्ली के रामलीला मैदान में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में लता मंगेश्कर द्वारा गाया कवि प्रदीप रचित गीत "ऐ मेरे वतन के लोगों...." को सुनते समय आँखों में आंसू ले आते हैं, यदि गीत के शब्दों में छिपे सन्देश को देखें तो बहुत कुछ वर्णित कर रहे हैं। यह गीत इतना अधिक भाव विभोर था कि नेहरू गीतकार कवि प्रदीप को उपस्थित न देख उन्हें इतने राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत गीत की बधाई देने स्वयं मुंबई तत्कालीन बम्बई गए थे।


पुस्तक की शुरुआत में ही कवि ने वीरों और सैनिकों से प्रश्न और उनके उत्तर के अंदाज में लिखा है-
गरदन पर किसका पाप वीर! ढोते हो?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था,
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गए थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गए थे,
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं,
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का,
इन पंक्तियों मे दिनकर जी ने नेहरू की ओर इशारा करते हुए लिखा है कि जो नेता सस्ती लोकप्रियता पाकर फूले नहीं समा रहे थे और जो शेरों की तरह आचरण करने वाली जनता को अजा यानि बकरी का आचरण सिखा रहे थे, वैसे ही नेताओं के पाप को हमारे वीर सैनिक ढो रहे हैं। तलवार गलाकर तकली गढ़ने वाली नीतियों की वजह से ही हमारे वीर सैनिकों को शहादत देनी पड़ी और अपने शोणित यानि खून से हमारे वीर ऐसी नीतियों के कलंक को धो रहे हैं। दरअसल, इन पंक्तियों में तत्कालीन विदेश नीति और रक्षा नीति पर करारा प्रहार किया गया है। यह बताया गया है कि गलत रक्षा नीति के कारण कैसे भारतीय सैनिक युद्ध के लिए जरूरी सामानों के अभाव में युद्ध लड़ रहे थे।
चीन की हार से दिनकर जी गुस्से और दुख से भरे हुए थे। उनके क्षोभ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने नेहरू को इशारों ही इशारों में ‘पापी’ तक कह डाला।
उन्होंने लिखा-
घातक है जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहां मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं बधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं,
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
दिनकर जी की ये पंक्तियां नेहरू के जमाने की राजनीतिक अक्षमता और भ्रष्टाचार की कहानी कहती हैं। वे बता रहे हैं कि कैसे सच जानकर भी सच को नजरअंदाज किया जाता रहा, चुप्पी साधी जाती रही, कैसे उस वक्त लोभ, लालच का माहौल था और चोरों, भष्ट्राचारियों और चापलूसों को संरक्षण दिया जाता था। यही वजह थी कि भारत अपने ही घर में हार गया।
कांग्रेसी सत्ता को चुनौती देते हुए दिनकर जी आगे लिखते हैं-
ओ बदनसीब अंधो! कमजोर अभागो?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
तलवारें सोतीं जहां बंद म्यानों में,
किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियां-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर नहीं कढ़ती हैं।
दिनकर जी सिर्फ नेहरू सरकार की नीतियों को गलत ठहरा कर चुप नहीं हो गए बल्कि, वे देश को कमजोरी की ऐसी स्थिति से निकलने का समाधान बताते हुए वीरता और शौर्य का आह्वान भी करते हैं।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आग जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जाएगा,
भारत का पूरा पाप उतर जाएगा,
देखोगे कैसा प्रलय चण्ड होता है!
असिवन्त हिन्द कितना प्रचंड होता है!
बांहों से हम अंबुधि अगाध थाहेंगे,
धंस जाएगी यह धरा, अगर चाहेंगे .
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे।
हम जहां कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
गरजो, अंबर को भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढो! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
मां के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
1962 की हार के करीब साठ वर्षों के बाद अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समय सीमा पर चीन से संघर्ष की स्थिति बनी है। ऐसे में दिनकर जी के ये वाक्य बहुत ही प्रासंगिक हैं। चीन के खिलाफ कवि का गुस्सा जैसे भारतीय जनमानस में अब तक पलता आ रहा हो।
कुत्सिक कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिए प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित हैं, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
झकझोरो, झकझोरो महान सुप्तों को,
टेरो-टेरो चाणक्य-चंद्रगुप्तों को,
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को,
वैराग्यवीर, वंदा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
वीरों और सैनिकों का आह्वान करते हुए दिनकर लिखते हैं-
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,
मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए।
दो बार नहीं यमराज कंठ धरता है,
मरता है जो, एक बार मरता है।
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे!
जीना है तो मरने से नहीं डरो रे!
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