हिंदुओं की वेशभूषा और उनकी संस्कृति से जुड़े चिह्नों को लेकर अक्सर सवाल जवाब होता रहता है। एक पूरा तबका इस विषय को विचार-विमर्श योग्य मानता है। कभी घूँघट पर सवाल उठाया जाता है तो कभी सिंदूर पर। हर बार तर्क-कुतर्क से यह साबित करने की कोशिश होती है कि हिंदुओं की पारंपरिक मान्यताएँ आखिर कितनी खोखली हैं।
अब इसी क्रम में इस बार निशाना बिंदी पर साधा गया है। शृंगार के दौरान बिंदी की महत्ता क्या होती है। इसे भारतीय नारियाँ अच्छे से जानती है। लेकिन उनके लिए एक प्रॉडक्ट स्कॉच ब्राइट बनाने वाली कंपनी के मार्केटिंग हेड इसे ‘Regressive’ अर्थात पिछड़ा हुआ मानते हैं और कार्तिक श्रीनिवासन नामक युवक के बिना सिर-पैर के सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं कि वे जल्द ही स्कॉच ब्राइट से उस ‘लोगो’ को हटाएँगे जिसके माथे पर बिंदी है।
बात सिर्फ अपने प्रॉडक्ट से महिला के माथे पर बिंदी वाले ‘लोगो’ से बिंदी हटाने की नहीं है। बल्कि बिंदी को रिग्रेसिव मानने की है। बात भारतीय नारी की उस पहचान को नकारने की है जिसे आज पूरा विश्व स्वीकार चुका है।
आप अक्सर ऐसी तस्वीरें देखते होंगे जिसमें विदेशी महिलाएँ भारतीय लिबास में नजर आती है और खुद को सम्पूर्ण भारतीय शृंगार के साथ दर्शाने के लिए वो अपने माथे पर बिंदी जरूर लगाती हैं। इसके अलावा अगर भारत की बात की जाए तो केरल को ही उदहारण के तौर पर लेती हूँ, जहाँ वामपंथ के पैर भी सबसे ज्यादा क्षेत्र में फैले हुए और वहाँ के साक्षरता दर भी सबसे अधिक है। लेकिन केरल जैसे वामपंथ के गढ़ में ही वहाँ की महिलाओं के स्थानीय लिबास में माथे पर बिंदी एक बेहद सामान्य बात है।
इसके बाद भारत के पिछड़े गाँवों से लेकर अत्याधुनिक तकनीक से लबरेज शहरों तक में यदि कुछ एक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो स्त्रियाँ भारतीय पहनावे के साथ बिंदी लगाना कभी नहीं भूलतीं। बिंदी के बिना तो सम्पूर्ण शृंगार ही अधूरा लगने लगता है। एक छोटी सी बिंदी सुने माथे को रौशन कर देती है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि माथे पर बिंदी भारत में महिलाओं के पारंपरिक शृंगार की न सिर्फ पहचान है बल्कि अभिन्न हिस्सा भी। ऐसे में अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि बिंदी को आखिर कोई रिग्रेसिव कैसे कह सकता है? क्या एक मार्केटिंग हेड के पद पर बैठे व्यक्ति को ये भी नहीं मालूम कि जिस चिह्न को वो रिग्रेसिव या रुढिवादी बता रहा है वो उसके उपभोक्ताओं की पृष्ठभूमि का ही हिस्सा है।
अमूमन माना जाता है कि कोई भी उत्पाद बेचने से पहले किसी भी छोटे व्यापारी या फिर बिजनेसमैन को अपने उपभोक्ता से जुड़ी कुछ बातें ध्यान में अवश्य रखनी चाहिए। आर्थिक पहलू से लेकर सांस्कृतिक पहलू उसमें ये सब ज़रूरी बातें शामिल होनी चाहिए। फिर आखिर इतनी बड़ी कंपनी और उसका मार्केटिंग हेड इस प्रकार से बिना सोचे-समझे किसी मूढ़ जैसी टिप्पणी कैसे कर सकता है? क्या स्कॉच ब्राइट का मार्केटिंग हेड इस बात से अनभिज्ञ है कि उनकी बहुत बड़ी उपभोक्ताएँ भारतीय महिलाएँ भी है, जिनकी सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाएँ बिंदी से जुड़ी है।
कत्थक से लेकर कत्थककली और कुचिपुड़ी से लेकर मणिपुरी तक क्या किसी नृत्य विधा में आपने भारतीय नारी को बिना बिंदी के देखा है? शायद कभी नहीं, क्योंकि ये भारतीय शृंगार की पहचान है। क्या ये महिलाएँ इन नृत्य विधाओं का प्रदर्शन करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिग्रेसिव लगती हैं?
कभी सोचा है क्या कि एक ओर जहाँ बिंदी और सिंदूर को लेकर एक तय तबका इतनी बहस कर पा रहा है। वहीं पर नाइकी जैसी कंपनी स्पोर्ट्स क्षेत्र में भी मुस्लिम लड़कियों के लिए भी हिजाब बतौर ब्रांड या विकल्प क्यों उतार रही है? उसे आजादी का प्रतिबिंब क्यों बता रही है? शायद नहीं। क्योंकि हमें यह स्पेस ही नहीं दिया गया है कि हम किसी समुदाय विशेष या कुछ और मजहबों में प्रचलित कुरीतियों या उनसे जुड़े किसी चिह्न पर आवाज बुलंद कर सकें या उसपर सवाल उठा सकें। लेकिन, आज ये माहौल जरूर बना दिया गया है कि हम घूँघट को बंदिशों का अंजाम बताएँ और माथे की बिंदी को रिग्रेसिव।
इन उदाहरणों से हम किसी के कंपनी के ‘लोगो’ बदलने के अधिकारों या उनकी बदलाव की स्वेच्छा पर अपने सवाल नहीं खड़े कर रहे हैं। लेकिन ये जरूर पूछ रहे हैं कि क्या जिस कंपनी ने जेंडर स्टीरियोटाइप की आड़ में पूछे गए कार्तिक के अनर्गल प्रश्न पर इतना बड़ा फैसला लिया। वो अपना ‘लोगो’ बदलने से पहले बता सकती है कि बिंदी रिग्रेसिव कैसे है?
अवलोकन करें:-
आज इस मामले के तूल पकड़ने के बाद कई लोगों ने स्कॉच ब्राइट नामक उत्पाद बनाने वाली कंपनी 3M को आड़े हाथों लिया है। वकालत में पीएचडी कर रही मधुबंती चटर्जी ने ट्वीट कर इस मामले से जुड़ी खबर को अपनी बिंदी वाली फोटो के साथ पोस्ट करके लिखा है, “मैं लॉ में मास्टर कर चुकी हूँ। अब पीएचडी कर रही हूँ। मैंने लॉ प्रैक्टिस की है और मेरे अंदर एक इंपोर्ट-एक्सपोर्ट कंपनी में 37 ऑफिस स्टॉफ हैं। मैनेजर और अन्य कर्मचारी मेरे अंतर्गत काम करते हैं? क्या मैं रिग्रेसिव बैकग्राउंड से लगती हूँ? मैं अपनी बिंदी वाली तस्वीर भी लगा रही हूँ।”
अब इसी क्रम में इस बार निशाना बिंदी पर साधा गया है। शृंगार के दौरान बिंदी की महत्ता क्या होती है। इसे भारतीय नारियाँ अच्छे से जानती है। लेकिन उनके लिए एक प्रॉडक्ट स्कॉच ब्राइट बनाने वाली कंपनी के मार्केटिंग हेड इसे ‘Regressive’ अर्थात पिछड़ा हुआ मानते हैं और कार्तिक श्रीनिवासन नामक युवक के बिना सिर-पैर के सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं कि वे जल्द ही स्कॉच ब्राइट से उस ‘लोगो’ को हटाएँगे जिसके माथे पर बिंदी है।
बात सिर्फ अपने प्रॉडक्ट से महिला के माथे पर बिंदी वाले ‘लोगो’ से बिंदी हटाने की नहीं है। बल्कि बिंदी को रिग्रेसिव मानने की है। बात भारतीय नारी की उस पहचान को नकारने की है जिसे आज पूरा विश्व स्वीकार चुका है।
आप अक्सर ऐसी तस्वीरें देखते होंगे जिसमें विदेशी महिलाएँ भारतीय लिबास में नजर आती है और खुद को सम्पूर्ण भारतीय शृंगार के साथ दर्शाने के लिए वो अपने माथे पर बिंदी जरूर लगाती हैं। इसके अलावा अगर भारत की बात की जाए तो केरल को ही उदहारण के तौर पर लेती हूँ, जहाँ वामपंथ के पैर भी सबसे ज्यादा क्षेत्र में फैले हुए और वहाँ के साक्षरता दर भी सबसे अधिक है। लेकिन केरल जैसे वामपंथ के गढ़ में ही वहाँ की महिलाओं के स्थानीय लिबास में माथे पर बिंदी एक बेहद सामान्य बात है।
इसके बाद भारत के पिछड़े गाँवों से लेकर अत्याधुनिक तकनीक से लबरेज शहरों तक में यदि कुछ एक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो स्त्रियाँ भारतीय पहनावे के साथ बिंदी लगाना कभी नहीं भूलतीं। बिंदी के बिना तो सम्पूर्ण शृंगार ही अधूरा लगने लगता है। एक छोटी सी बिंदी सुने माथे को रौशन कर देती है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि माथे पर बिंदी भारत में महिलाओं के पारंपरिक शृंगार की न सिर्फ पहचान है बल्कि अभिन्न हिस्सा भी। ऐसे में अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि बिंदी को आखिर कोई रिग्रेसिव कैसे कह सकता है? क्या एक मार्केटिंग हेड के पद पर बैठे व्यक्ति को ये भी नहीं मालूम कि जिस चिह्न को वो रिग्रेसिव या रुढिवादी बता रहा है वो उसके उपभोक्ताओं की पृष्ठभूमि का ही हिस्सा है।
अमूमन माना जाता है कि कोई भी उत्पाद बेचने से पहले किसी भी छोटे व्यापारी या फिर बिजनेसमैन को अपने उपभोक्ता से जुड़ी कुछ बातें ध्यान में अवश्य रखनी चाहिए। आर्थिक पहलू से लेकर सांस्कृतिक पहलू उसमें ये सब ज़रूरी बातें शामिल होनी चाहिए। फिर आखिर इतनी बड़ी कंपनी और उसका मार्केटिंग हेड इस प्रकार से बिना सोचे-समझे किसी मूढ़ जैसी टिप्पणी कैसे कर सकता है? क्या स्कॉच ब्राइट का मार्केटिंग हेड इस बात से अनभिज्ञ है कि उनकी बहुत बड़ी उपभोक्ताएँ भारतीय महिलाएँ भी है, जिनकी सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाएँ बिंदी से जुड़ी है।

कत्थक से लेकर कत्थककली और कुचिपुड़ी से लेकर मणिपुरी तक क्या किसी नृत्य विधा में आपने भारतीय नारी को बिना बिंदी के देखा है? शायद कभी नहीं, क्योंकि ये भारतीय शृंगार की पहचान है। क्या ये महिलाएँ इन नृत्य विधाओं का प्रदर्शन करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिग्रेसिव लगती हैं?
इसी लिए सेक्युलरिजम को दोगलापन कहा जाता है..— Janardan Mishra (@janardanmis) July 16, 2020
मुम्बई में एक मुस्लिम को मकान किराए पर नही दिया तो पूरे देश में भूचाल आ गया..
AMU में सरेआम एक मुस्लिम हिन्दू लडक़ी को बुरखा पहनने की धमकी देता है, और पूरा देश खामोश है..
पेटा इंडिया गाय के चमड़ा को रक्षा बंधन से संबंधित बता रहा है।— भूमिहार भैया ⚪ (@bhumihar_bhaiya) July 16, 2020
स्कॉच ब्राइट बिंदी को प्रतिगामी विश्वास बता रहा है
भगवा और तिलक के लिए कांति प्रसाद की हत्या
एक सप्ताह के भीतर सभी।
फिर भी हर सुबह क्या ट्रेंड होता है इस्लामोफोबिया।😣#Hinduphobic
क्यो महात्मा गाँधी का पाठ पढ़ाकर आने वाली नस्लो को बुजदिल बना रहे हो— Brand Anuj ♛ (@Brand_Anuj) July 16, 2020
भगतसिंह शिवाजी का ज्ञान देकर तो देखो दुनिया ना काँपे तो कहना
Dear @3M n @scotchbrite I am a masters in law pursuing my PHD. I practice law and have an import and export company with 37 office staff, manager and executives working under me. Does it sound like i belong to a regressive background?Herein attaching a pic of me wearing a bindi. pic.twitter.com/MWrWrJtNlg— Madhubanti Chatterjee (@MadhubantiChat3) July 16, 2020
When Israel takes action against Palestinian terrorists, our left liberals & seculars in India hold protests— Anshul Saxena (@AskAnshul) July 15, 2020
When something happens against Rohingyas in Myanmar, there are riots in India
Now, when Turkey has converted Hagia Sophia into mosque, these people don't have any issue
कभी सोचा है क्या कि एक ओर जहाँ बिंदी और सिंदूर को लेकर एक तय तबका इतनी बहस कर पा रहा है। वहीं पर नाइकी जैसी कंपनी स्पोर्ट्स क्षेत्र में भी मुस्लिम लड़कियों के लिए भी हिजाब बतौर ब्रांड या विकल्प क्यों उतार रही है? उसे आजादी का प्रतिबिंब क्यों बता रही है? शायद नहीं। क्योंकि हमें यह स्पेस ही नहीं दिया गया है कि हम किसी समुदाय विशेष या कुछ और मजहबों में प्रचलित कुरीतियों या उनसे जुड़े किसी चिह्न पर आवाज बुलंद कर सकें या उसपर सवाल उठा सकें। लेकिन, आज ये माहौल जरूर बना दिया गया है कि हम घूँघट को बंदिशों का अंजाम बताएँ और माथे की बिंदी को रिग्रेसिव।
इन उदाहरणों से हम किसी के कंपनी के ‘लोगो’ बदलने के अधिकारों या उनकी बदलाव की स्वेच्छा पर अपने सवाल नहीं खड़े कर रहे हैं। लेकिन ये जरूर पूछ रहे हैं कि क्या जिस कंपनी ने जेंडर स्टीरियोटाइप की आड़ में पूछे गए कार्तिक के अनर्गल प्रश्न पर इतना बड़ा फैसला लिया। वो अपना ‘लोगो’ बदलने से पहले बता सकती है कि बिंदी रिग्रेसिव कैसे है?
अवलोकन करें:-
आज इस मामले के तूल पकड़ने के बाद कई लोगों ने स्कॉच ब्राइट नामक उत्पाद बनाने वाली कंपनी 3M को आड़े हाथों लिया है। वकालत में पीएचडी कर रही मधुबंती चटर्जी ने ट्वीट कर इस मामले से जुड़ी खबर को अपनी बिंदी वाली फोटो के साथ पोस्ट करके लिखा है, “मैं लॉ में मास्टर कर चुकी हूँ। अब पीएचडी कर रही हूँ। मैंने लॉ प्रैक्टिस की है और मेरे अंदर एक इंपोर्ट-एक्सपोर्ट कंपनी में 37 ऑफिस स्टॉफ हैं। मैनेजर और अन्य कर्मचारी मेरे अंतर्गत काम करते हैं? क्या मैं रिग्रेसिव बैकग्राउंड से लगती हूँ? मैं अपनी बिंदी वाली तस्वीर भी लगा रही हूँ।”
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