राकेश कुमार आर्य,
संपादक : उगता भारत एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
500 वर्ष से अधिक समय तक भारत पर आक्रमण करते रहने के कई प्रयासों के पश्चात 1206 ई0 में इस्लाम दास वंश के नाम से भारत के कुछ भाग पर अपना शासन स्थापित करने में सफल हो गया। यह भी एक संयोग ही है कि जो इस्लाम भ्रातृत्व भाव की बात करता है,भारत में उसके पहले वंश का नाम गुलाम वंश या दास वंश था। गुलाम वंश के नाम से ही इस्लाम के भाईचारे की पोल खुल जाती है कि संसार से दासत्व भाव को समाप्त करना इस्लाम का उद्देश्य नहीं था, अपितु दासत्व भाव का प्रचार - प्रसार कर स्वतन्त्र जातियों को प्रताड़ित करना इसका उद्देश्य था। वैसे भी भाईचारे और दासत्व का कोई सम्बन्ध नहीं है। जिन लोगों ने अपने आपको मुस्लिम तुर्क शासकों का गुलाम समझा और इस गुलाम शब्द में भी एक आकर्षण अनुभव किया वे लोग वास्तव में पूर्णतया स्वाभिमान शून्य लोग थे । उनके भीतर से मुस्लिम तुर्क क्रूर शासकों के द्वारा स्वाभिमान के भाव को समाप्त कर दिया गया था। जबकि आर्य हिन्दू जाति किसी के भी स्वाभिमान का सौदा करने में विश्वास नहीं रखती। यद्यपि हिन्दू समाज में भी सन्त परम्परा में दास लोग मिलते हैं, पर वह भी भारतीय ज्ञान विज्ञान की आर्य परम्परा में उपयुक्त नहीं है।
यह दास परम्परा भी भारत में उस समय में विकसित हुई जब अज्ञान ,अविद्या और पाखण्ड के बादल चारों ओर गहरा गए थे । हमारे यहाँ तो मुक्ति के अभिलाषी आर्यपुत्र होने की परम्परा रही है। मोहम्मद गौरी की मृत्यु के उपरान्त 1206 ई0 में उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में पहली बार किसी विदेशी शासन की नींव रखी । उसी के द्वारा स्थापित इस नए राज्य वंश को गुलाम वंश के नाम से इतिहास में जाना जाता है। मुस्लिम इतिहासकार मौलाना हाकिम सैयद अब्दुल हाजी के विवरण के अनुसार ऐबक के शासन में धर्मान्धता के अन्तर्गत हिन्दू,जैन,बौद्ध पूजास्थलों को तोड़ा गया। दिल्ली की पहली मस्जिद क़ुव्वत अल इस्लाम के निर्माण में 20 हिन्दू, जैन मन्दिरों के अवशेषो का प्रयोग किया गया था। क़ुतुबमीनार के आसपास पुरातन मन्दिर के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। जिनके अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ पर प्राचीन मंदिर रहे हैं जिनका विध्वंस करके यह कुतुब मीनार बनाई गई थी। कुतुबुद्दीन ऐबक के समय में किए गए इस प्रकार के कार्यों से अब इतिहास के कई रहस्यों से पर्दा उठता जा रहा है और पता चलता जा रहा है कि दिल्ली की कुतुबमीनार को भी कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम से इतिहास में गलत ढंग से बताया जाता रहा है।
यही कारण है कि अब कुतुबमीनार की वास्तविकता का पता लगाने के लिए भी लोग न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। वामपंथी इतिहासकारों की मान्यता मुस्लिम शासकों की साम्प्रदायिक नीतियों का बचाव वामपंथी विचारधारा के इतिहासकार करते रहे हैं । ऐसे इतिहासकारों का तर्क होता है कि तुर्क आक्रमणकारियों का भारत पर आक्रमण करने का उद्देश्य हिन्दुओं को मारना या उनकी संपत्तियों को छीनना या उन पर किसी प्रकार के अत्याचार करना नहीं था । यदि इन वामपंथी इतिहासकारों के दृष्टिकोण से इन मुस्लिम आक्रमणकारियों को देखा जाए तो ये लोग इन विदेशी आक्रमणकारियों को इस बात का प्रमाण पत्र देते हुए दिखाई देते हैं कि जैसे ये तो शुद्ध मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए और ज्ञान बांटने के लिए भारत में आए थे। इसके उपरान्त भी यदि इन लोगों का विरोध हिन्दू कर रहे थे तो इसमें दोष हिन्दुओं का ही था , क्योंकि वह उनके उत्कृष्ट ज्ञान को लेना नहीं चाहते थे। वामपंथी इतिहासकारों की मान्यता है कि यदि ऐसे आक्रमणों के समय कुछ हिन्दू मारे जाते थे तो उसका कारण केवल यह होता था कि इन विदेशी तुर्क आक्रमणकारियों से युद्ध करने वाला राजा हिन्दू होता था । जिसकी सेना के लोग भी स्वाभाविक रूप से हिन्दू ही होते थे । वामपंथी इतिहासकारों के इस प्रकार के तर्क से तुर्को के अत्याचार अत्याचार नहीं दिखाई देते । इसके साथ साथ ही उनके द्वारा किए गए हिन्दुओं के नरसंहारों का उल्लेख तो पूर्णतया विलुप्त ही कर दिया गया है । इस प्रकार के तथ्यों को गलत ढंग से इतिहास में या उस समय के साहित्य में स्थान देकर ऐसे उल्लेखित कर दिया गया है जैसे कि तुर्क आक्रमणकारियों का उद्देश्य हिन्दुओं का विनाश करना नहीं था, जो कि गलत है। प्रारंभ में ही तय हो गया था कि हिन्दुओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाए ? जियाउद्दीन बर्नी तथा डॉo के0ए0 निजाम के वर्णन से स्पष्ट है कि दिल्ली सल्तनत की स्थापना के प्रारम्भिक काल में ही यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ था कि इस्लामिक राज्य में मूर्तिपूजक हिन्दुओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाए ? इस सन्दर्भ में दिल्ली सल्तनत के प्रथम शासक के शासन काल में हुई मुस्लिम उलेमाओं की एक परामर्श समिति "मुस्तफा -अलैहिस्सलाम" का का उल्लेख किया जाना यहाँ बहुत आवश्यक है, जिसके परामर्श और मार्गदर्शन से सुल्तान कार्य करता था। इस समिति का हिन्दुओं के प्रति सियासत और सत्ता का कैसा दृष्टिकोण हो ? - इस पर स्पष्ट मत था कि हिन्दू लोग पैगंबर साहब के सबसे बड़े शत्रु हैं अर्थात समिति ने यह स्पष्ट संकेत और परामर्श अपने सुल्तान को दे दिया था कि हिन्दुओं के साथ कट्टर शत्रुता का व्यवहार करना ही पैगंबर की भावनाओं और उनकी पवित्र पुस्तक का सम्मान करना होगा। कहना न होगा कि हिन्दू लोग काफिर हैं और काफिरों का विनाश करना ही पैगंबर और उनकी पवित्र पुस्तक का उद्देश्य है। इसलिए उन लोगों के साथ जितना हो सके क्रूरता का व्यवहार किया जाए। जितना इनका उत्पीड़न होगा उतना ही पैगंबर और पवित्र पुस्तक की भावनाओं का सम्मान हो पाएगा। इस समिति ने सुल्तान को यह परामर्श दे दिया था कि पैगंबर की भावनाओं का सम्मान करने के लिए उसके लिए आवश्यक है कि वह हिन्दुओं की संपत्ति का हरण करे, उनकी स्त्रियों का शील भंग करे, हरण करे और उन्हें अपने ढंग से जैसे चाहे प्रयोग करे, इसके अतिरिक्त हिन्दुओं को अपमानित कर त्रस्त करना भी इस पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सत्ता सियासत के लिए आवश्यक है। (जियाउद्दीन बर्नी -सहीफये नाते मोहम्मदी पृo 390- 91) इस एक कथन से ही वामपंथियों के इतिहासकारों के इस दावे की पोल खुल जाती है कि तुर्क शासक हिंदुस्तान में भाईचारे का संदेश लेकर आए थे। आगे समिति कहती है कि "जब - जब हिन्द के सभी विभिन्न प्रदेश और कस्बे मुसलमानों से भर जाएं तथा बहुत बड़ी सेना मुसलमानों की हो जाए, तब हमारा आदेश होगा कि हिन्दुओं का कत्ल कर दिया जाए और उन्हें इस्लाम स्वीकार करने पर विवश किया जाएI" इस प्रकार के परामर्श के आधार पर मजहब आगे रहकर सत्ता और सियासत का संचालन करता रहा और उसके नेतृत्व में सत्ता व सियासत के दमन चक्र का शिकार हिन्दू होता रहा। दमन चक्र चलता रहा मजहब हुआ बेशर्म। हिन्दू का विनाश ही सियासत का हुआ कर्म।। सल्तनत काल में एक से बढ़कर एक हिन्दू विरोधी शासक देश की सत्ता और सियासत के शीर्ष पर आकर बैठता रहा और अपने शासनकाल में हिन्दू नरसंहार के एक से बढ़कर एक उत्सव सजाता रहा। खिलजी वंश की बात यदि की जाए तो इस काल में भी बड़ी संख्या में हिन्दुओं का नरसंहार मजहबी नेताओं और मजहबी शासकों ने अपने सेनापतियों के माध्यम से निरन्तर जारी रखा। खिलजी शासनकाल में अलाउद्दीन खिलजी का साम्राज्य तुर्कों और मुगलों के सभी बादशाहों व सुल्तानों के साम्राज्यों से अधिक विस्तृत था, इसलिए यह भी स्वाभाविक है कि उसके शासनकाल में हिन्दुओं का और भी अधिक तेजी से व बड़े व्यापक स्तर पर सामूहिक नरसंहार हुआ। अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में अत्याचार जलालुद्दीन, फिरोज़ शाह और अलाउद्दीन खिलजी के सेना प्रमुख जैसे उलुघ खान, नुसरत खान, खुसरो खान व मलिक काफूर के द्वारा ऐसे कई अभियान चलाए गए जिनमें हिन्दुओं को व्यापक नरसंहार के माध्यम से समाप्त किया गया या उन्हें अपमानित व तिरस्कृत करने के सत्ता व सियासत की ओर से कार्यक्रम आयोजित किए गए । जब हम रानी पद्मिनी और अलाउद्दीन की इतिहास प्रसिद्ध घटना को पढ़ते हैं तो केवल एक रानी पद्मिनी और एक अलाउद्दीन खिलजी तक हमें सीमित नहीं रहना चाहिए , अपितु इस काल के विषय में यह समझ लेना चाहिए कि जिस समय का शासक ही इतना व्यभिचारी और चरित्र से पतित रहा हो उस समय के उसके सेनापति ,सेनाधिकारी , शासन के अन्य पदों पर बैठे लोग व कर्मचारी कितने चरित्र भ्रष्ट और आचरण से गिरे हुए होंगे ? चरित्र भ्रष्ट और आचरण से पतित लोगों के व्यवहार और कार्य से हिन्दू लोग जब अपमानित होते होंगे तो वह निश्चय ही इनके विरुद्ध आक्रामक होकर अपने सम्मान की लड़ाई लड़ते थे । इस प्रकार के हिन्दू प्रतिरोध को मध्यकालीन इतिहास में हिन्दुओं का प्रतिरोध कहने का साहस कुछ इतिहासकारों ने किया है । हमारा मानना है कि जहाँ हिन्दू प्रतिरोध की ऐसी घटनाएं होती थीं वहां उसके दमन के लिए मुस्लिम शासक भी किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ते थे । इस प्रकार के संघर्ष में कई बार ऐसा भी होता था जब हिन्दू प्रतिरोध गली - मोहल्ले तक में फैल जाता था। तब यह सांप्रदायिक दंगे का रूप ले लेता था। जिसे सरकारी संरक्षण के माध्यम से बहुत ही निर्दयता के साथ दबा दिया जाता था। हमें यह समझ लेना चाहिए कि उस समय ऐसे अनेकों अलाउद्दीन खिलजी थे जो हिन्दू महिलाओं पर अत्याचार कर रहे थे और ऐसी अनेकों रानी पद्मिनियाँ थीं जो अपने सम्मान की रक्षा के लिए या तो तलवार हाथ में उठा चुकी थीं या जौहर रचा रही थीं। कुल मिलाकर उस समय बड़े स्तर पर हिन्दू नारियों की अस्मिता से खिलवाड़ किया गया और मजहब के नाम पर उनकी आजादी छीनी गई। हिन्दू मानस को उठाता विद्रोही जब हम खिलजी के इतिहासकारों के माध्यम से ऐसा सुनते और पढ़ते हैं कि उस समय हिन्दुओं ने सल्तनत के कई हिस्सों जैसे पंजाब, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, में विद्रोह कर दिया तो उनके इस कथन का अभिप्राय यह होता है कि उस समय की सत्ता और सियासत की मजहबी चालों और उनके विकृत स्वरूप के विरुद्ध हिन्दू जनमानस विद्रोहित हो उठा था, क्योंकि भारत का यह प्राचीन संस्कार है कि सत्ता यदि जनविरोधी हो जाए तो लोगों को भी उसका विरोध करने का पूर्ण अधिकार होता है। उस समय में लोकतन्त्र नहीं था, अपितु मजहब का डकैत देश पर शासन कर रहा था । इसलिए उस मजहबी डकैत के रूप में काम कर रही सत्ता और सियासत के विरुद्ध जब भारत के लोग अपनी लोकतांत्रिक मांगों को लेकर विद्रोह करके सामने आए तो उनके इस प्रकार के विद्रोह को सत्ता में बैठे डकैत लोगों ने बहुत ही निर्ममता के साथ कुचल दिया। इस प्रकार के अत्याचारों में कई बार ऐसी घटनाएं हुई जब 8 वर्ष से ऊपर के सभी बच्चों और बड़ों को सामूहिक नरसंहार का शिकार होना पड़ा ।आज के कांग्रेसी और वामपंथी इतिहासकार इस प्रकार के निर्मम अत्याचारों को भी या तो इतिहास में स्थान नहीं देते और यदि देते हैं तो उन्हें बहुत कुछ इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि जैसे वह उस समय के शासक वर्ग की ओर से साम्प्रदायिक विद्वेष भाव से प्रेरित होकर नहीं किए गए थे अपितु देश के हिन्दू समाज की ओर से तत्कालीन शासक वर्ग को जिस प्रकार परेशान किया जा रहा था उसके दृष्टिगत ऐसा किया जाना आवश्यक हो गया था। इतिहास लेखकों इलियट एन्ड डाउसन के वर्णन से हमें पता चलता है कि अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति नुसरत खान ने इस विद्रोह में भाग लेने वाले लोगों की स्त्रियों और बच्चों को कैद कर लिया था। इसके पश्चात उसने इन महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर उत्पीड़ित और अपमानित किया । बच्चों को उनकी माताओं के सामने ही काट दिया गया। पुरुषों के अपराध के बदले में उनकी पत्नियां और बच्चों को उठाकर ले जाने की अमानवीय प्रथा भी हमारे देश में यहीं से प्रारम्भ हुई।
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