अफगानिस्तान सरकार का समापन अब कभी भी हो सकता है। चारों तरफ से घिरे बेबस अफगानी राष्ट्रपति ने तालिबान को संधिप्रस्ताव भेजा है। सीधा मतलब यह कि अब सरकार लाचार है और मुकाबले में असमर्थ है। अफगान सेना का मनोबल टूट चुका है, वह किसी भी समय सरेंडर को तैयार है। जाहिर है अफगान सरकार चारों ओर से घिर चुकी है, तालिबान के पास अब केवल काबुल कब्जाना बाकी है। राष्ट्रपति अपने विशेष विमान से कब देश छोड़ भागें, कहना मुश्किल है। बहुत संभव है कि आज की रात सरकार के लिए आखिरी रात साबित हो।
अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकी एक के बाद एक प्रांतों पर कब्जा करते जा रहे हैं। लेकिन तालिबान के खिलाफ हमेशा मुखर होकर अपनी आवाज उठाने वाली शांति की नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफजई अफगानिस्तान में आतंकवादी संगठन के बढ़ते हमले पर एकदम चुप्पी साधे हुए हैं। तालिबान के अमानवीय हमलों का विरोध करना और उस पर रोना तो छोड़िए एक फुसफुसाहट तक नहीं नजर आ रही है।अफगानिस्तान में तालिबान के हमले तेज होते जा रहे हैं। उसने अब तक 10 से अधिक प्रांतीय राजधानियों को अपने कब्जे में ले लिया है। तालिबानियों की क्रूर हिंसा के कारण लोग सामूहिक रूप से विस्थापन के लिए मजबूर हैं। लेकिन पाकिस्तान की मलाला युसुफजई उनके पड़ोसी देश में क्या हो रहा है उससे पूरी तरह से बेपरवाह हैं।
अफगानिस्तान में पूरी तरह से अराजकता का साम्राज्य फैल गया है। तालिबान लगातार वहाँ की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को उखाड़ फेंकने और अपने प्रतिगामी इस्लामी शासन को स्थापित करने की धमकी दे रहा है। लेकिन नोबेल पुरस्कार विजेता को अब तक इस हिंसा की निंदा करना तक उचित नहीं लगा। खास बात यह है कि मलाला ट्विटर सहित तमाम सोशल मीडिया काफी सक्रिय रहती हैं। बावजूद इसके तालिबानी आतंक पर उन्होंने एक भी पोस्ट नहीं किया है।
खास बात यह है कि ये वही मलाला हैं, जिन्हें अक्टूबर 2012 में पाकिस्तान की स्वात घाटी में महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने पर तालिबान ने गोली मारी थी। गंभीर रूप से घायल हालत में उन्हें पहले पाकिस्तान के आर्मी अस्पताल में ले जाया गया औऱ फिर वहाँ से यूके रेफर किया। वहाँ इलाज के बाद वह चमत्कारिक रूप से ठीक हो गई थीं।
कंधार पर कब्ज़ा
रिपोर्ट के मुताबिक, तालिबानी आतंकियों ने अफगानिस्तान में गुरुवार (12 अगस्त 2021) रात एक और प्रांतीय राजधानी कंधार पर कब्जा कर लिया था। कंधार अफगानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा शहर है और देश की 34 में से 12वीं प्रांतीय राजधानी भी है।
इससे पहले 11 अगस्त को तालिबानी आतंकियों ने अफगान के कुंदुज प्रांत के अधिकतर हिस्से पर कब्जा जमा लिया था। यहीं के कुंदुज एयरपोर्ट पर भारतीय वायु सेना द्वारा अफगान सेना को गिफ्ट किया गया Mi-35 हिंद अटैक हेलिकॉप्टर था, जिसे तालिबानी आतंकियों ने अपने कब्जे में ले लिया था। एमआई-35 को रूस द्वारा डिजाइन किया गया था।
अफगानिस्तान में तालिबान कुछ मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अब काबुल से मात्र 50 किलोमीटर की दूरी पर ही है। इसके बाद ही तालिबान द्वारा मुल्क में पूर्ण कब्जा करने की आशंकाएँ बढ़ गई हैं।
तालिबान के आतंक पर समस्त मुस्लिम देशों ने साधी चुप्पी, क्यों?
18 साल सुरक्षा देने के बावजूद अमेरिका, न तो तालिबानियों का सफ़ाया कर पाया, और न ही अफगानिस्तान को आंतरिक रूप से सुरक्षित कर पाया। यह करने में पहले रूस भी नाकाम साबित हुआ, और आरम्भ में तेजी दिखाने के बाद में अमेरिका ने भी कुछ खास करना छोड़ दिया। भारत जैसे देश ने सैकड़ों करोड़ डॉलर अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में लगा दिए। अब घाटे में भारत ही रहे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अफगानी सरकार आखिरी सांस ले रही है, तालिबानियों की क्रूरता से भयभीत लोग देशभर से काबुल भाग आए हैं, मैदानों और बागों में पड़े हैं। मौत का शिकंजा यहां भी चारों ओर से कड़ा होता जा रहा है।
दुनिया में 56 इस्लामिक देश हैं। सभी चुपचाप बैठे हुए निर्दोष अफगानियों पर कोड़े बरसते देख रहे हैं, अपने भाइयों के गले काटे जाते देख रहे हैं। पाकिस्तान और तुर्की तो खैर तालिबानियों के आका हैं ही, बाकी देशों को अपने मुस्लिम भाइयों को बचाने में कोई रुचि नहीं। भारत सहित दुनिया का कोई मुस्लिम नेता आतंकी तालिबानियों के ख़िलाफ़ एक लफ़्ज बोलने को तैयार नहीं। वे सब चाहते हैं कि जिस ईसाई अमेरिका को वे गालियाँ देते आए हैं, वही अफगानिस्तान को बचाए। अजीब फलसफ़ा है अपने बिरादरों के लिए।
इस्लामिक जगत की सहानुभूति हमेशा लादेन, बगदादी, जवाहिरी आदि की कम्पनी से रही है। इराक या ईरान हो, लेबनान, सीरिया या सूडान; ये आतंकी मार तो मुसलमानों को ही रहे हैं। इस्लामिक जगत अपने कईं देशों में तो पश्चिमी संस्कृति ले आया है, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में कट्टरवादियों के साथ खड़ा दिखाई देता है। पाकिस्तान की आईएसआई तालिबान को प्रशिक्षण देती है, तुर्की हथियार देता है, वित्तपोषण करता है। आपको याद हो तो बताइए , हमने तो कभी भारत के मुस्लिम नेताओं को हाफिज, लादेन, तालिबान आदि की भर्त्सना करते हुए नहीं देखा। कश्मीर के मसले पर भी मुस्लिम नेता चुप रहते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है, अच्छी बात नहीं है।
त्राहि त्राहि मची है, इस्लामिक देश अफगानियों को अकेला छोड़ कर बांसुरी बजा रहे हैं। इंसानियत चौराहों पर पड़ी हुई सिसक रही है। चारों तरफ हाहाकार सुनाई दे रहा है। मानवता के पतन की इस संध्या में बेकसूर अफगानी जनता द्रौपदी की तरह टकटकी लगाए आकाश की ओर अपलक निहार रही है। आकाश में घोर अंधकार है, सर्वत्र निराशा छाई है।
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