सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेबी परदीवाला और जस्टिस आर महादेवन के अप्रैल 12 को दिए गए विस्तृत फैसले ने यह साबित कर दिया कि अब देश में न्यायिक आतंकवाद और न्यायिक अराजकता शुरू हो चुकी है। उन्हें याद रखना चाहिए यशवंत वर्मा के बाद पूरी न्यायपालिका पर कलंक लगा हुआ है।
यह पहली बार हो रहा है कि आम जनमानस न्यायिक प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। उसका मुख्य कारण है कि सुप्रीम कोर्ट का कांग्रेस के लिए soft corner का होना। याद करिए 1992 में जब अयोध्या में विवादित ढांचा गिरने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को तलब करने पर कल्याण सिंह जब अपने दलबल के साथ जाने पर इसी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि क्या कोर्ट पर हमला करने आ रहे हो? लेकिन जब सोनिया और राहुल गाँधी अपनी बटेलियन के साथ जाने पर चुप्पी साधना साबित करता है कि पूरी न्यायिक प्रणाली कांग्रेस की गुलाम है।
दूसरे, रामजन्मभूमि विवाद पर झूठ बोलने वाले अधिकतर कांग्रेस के ही वकील थे, क्यों नहीं साथ्यों को झूठलाने के लिए दण्डित किया? यही काम अन्य मन्दिरों के साथ हो रहा है और कोर्ट चुप बैठी है, क्यों?
इतना ही नहीं, जब सुप्रीम कोर्ट संविधान प्रमुखों की शक्तियों को अपने हाथ लेने का दुस्साहस कर सकती है, लेकिन जब वही संविधान प्रमुख सुप्रीम कोर्ट को अपनी सीमा में रहने का डंडा चलाए फिर नहीं रोए। सुप्रीम कोर्ट संविधान प्रमुखों के अंतरगर्त आती है या उनके ऊपर?
जब तक जज भी यूपीएससी की तरह किसी प्रतियोगी परीक्षा के द्वारा अपनी काबिलियत के दम पर न्यायपालिका में नहीं आएंगे तब तक भारत की न्यायपालिका बर्बाद होती रहेगी।
संविधान के अनुच्छेद 79 में अनुसार राष्ट्रपति संविधान प्रमुख हैं (Head of the constitution) और उनके द्वारा नियुक्त किया हुआ कोई जज उन्हें आदेश नहीं दे सकता। अनुच्छेद 79 कहता है -
“The constitutional head of the Executive of the Union is the President. As per Article 79 of the Constitution of India, the council of the Parliament of the Union consists of the President and two Houses known as the Council of States (Rajya Sabha) and the House of the People (Lok Sabha)”.
दोनों जजों की पीठ ने तमिलनाडु के 10 बिलों को राज्यपाल के पास दोबारा भेजने की तिथि से स्वीकृत घोषित कर दिया। यह है Judicial Terrorism/Anarchy क्योंकि एक तरफ 8 अप्रैल को दोनों जजों ने गवर्नर और राष्ट्रपति को बिलों को स्वीकार करने का समय दिया तो कल गवर्नर और राष्ट्रपति की शक्तियों को अपने हाथ में लेकर स्वयं ही बिल स्वीकृत घोषित कर दिए।
अगर जजों को अनुच्छेद 200 और 201 में कुछ संशोधन की गुंजाईश लगी तो उन्हें केंद्र सरकार को संशोधन करने के लिए कहना चाहिए था लेकिन उन्होंने स्वयं संवैधानिक संशोधन कर दिया जो केवल संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। संविधान में संशोधन की शक्ति सुप्रीम कोर्ट के दो जजों तो क्या फुल कोर्ट के पास भी नहीं है। इसलिए यह मामला सीधा सीधा महाभियोग का बनता है।
मुझे आश्चर्य है चीफ जस्टिस संजीव खन्ना 5 दिन से सोशल मीडिया में फैसले की घोर निंदा के बाद भी मूकदर्शक बने हुए हैं जबकि उन्हें फैसले पर स्वत रोक लगा देनी चाहिए थी और ऐसा लगता है रिटायर होने से पहले चीफ जस्टिस सरकार से टकराव पैदा करना चाहते हैं। उन्हें याद रखना चाहिए 4 महीने पहले रिटायर हुए चंद्रचूड़ को आज कोई नहीं पूछता और 13 मई के बाद आपको भी कोई घास नहीं डालेगा।
केरल के राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर ने फैसले को judicial overreach कहा है जिसका मतलब कोर्ट का सीमा पार कर कार्यपालिका और विधायिका में दखल होता है। उन्होंने कहा कि कोर्ट अगर संविधान संशोधन करेगा तो संसद और विधानसभा की भूमिका क्या रहेगी? दो जज संविधान का स्वरूप नहीं बदल सकते, न्यायपालिका खुद मामलों को वर्षों तक लंबित रखती है, ऐसे में राज्यपाल के पास भी बिल लंबित रखने के कारण हो सकते हैं।
केरल सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में उसके बिलों को लंबित रखने का मामला दायर किया हुआ है और केरल सरकार के कहने पर चीफ जस्टिस ने उसे भी परदीवाला और महादेवन की बेंच को दे दिया है।
राजेंद्र आर्लेकर जी से मेरी विनती है कि चाहें तो स्वयं कोर्ट में खड़े हो कर जजों को सीधी चुनौती दें कि आप दो जजों के पास तो क्या पूरे सुप्रीम कोर्ट को संविधान में संशोधन करने और संविधान प्रमुख राष्टपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। अपने तमिलनाडु के निर्णय और केरल के मामले को चीफ जस्टिस के पास भेजा जाए लेकिन संविधान में संशोधन नहीं हो सकता।
अब राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट को आदेश देना चाहिए कि सभी लंबित मामले 6 से 12 महीने के बीच निपटा दिए जाएं।
No comments:
Post a Comment