जयपुर धमाकों के जालिमों को आजीवन कारावास; एक जज ने फांसी दी थी और अब यह अलग सजा? इस मामले की कहानी भी अजीब है

सुभाष चन्द्र

जयपुर कोर्ट के स्पेशल जज ने 20 दिसंबर, 2019 को 13 मई 2008 में हुए serial blasts में मारे गए 71 लोगों की मौत और 200 लोगों के घायल हुए लोगों के केस में 4 जालिमों, मोहम्मद सैफ, मोहम्मद सरवर आज़मी, सैफ़ूर रहमान और मोहम्मद सलमान को फांसी की सजा सुनाई थी, जो Explosives Act, UAPA और IPC की अन्य धाराओं में थी। एक अभियुक्त शाहबाज़ हुसैन को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया था 

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लेकिन हाई कोर्ट ने procedural errors और lack of evidence के लिए 23 मार्च, 2023 को फांसी की सजा रद्द कर दी और कहा था कि उसके सामने अपील में राज्य सरकार ठीक से मामले की पैरवी नहीं कर सकी उस समय कांग्रेस के अशोक गहलोत की सरकार थी जिसने किसी लुंज पुंज वकील को हाई कोर्ट में खड़ा कर दिया जो किसी डेट पर कोर्ट मे नहीं गया कांग्रेस सरकार ने दरअसल अपराधियों को बचाने की कोशिश की थी कांग्रेस का “हाथ” तो आतंकियों के साथ

मृतकों के परिजनों ने सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ अपील की थी लेकिन मीलॉर्ड ने हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने से मना कर दिया और यह भी कहा कि केस की सुनवाई की जरूरत नहीं है वह सुनवाई 17 मई, 2023  के लिए तय की गई लेकिन सुनवाई लगता है अभी भी घुइयाँ के खेत में दबी पड़ी है

राजस्थान में सरकार बदलने के बाद यह मामला फिर से ट्रायल कोर्ट के पास गया और अब ट्रायल कोर्ट ने इन चारों दरिंदों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। आजीवन कारावास क्या  मृत्यु तक कारावास की सजा है यह नहीं पता

जब हाई कोर्ट ने उन्हें बरी किया था तब मोहम्मद सैफ 15 साल, मोहम्मद सरवर आज़मी और सैफ़ूर रहमान 14-14 साल और मोहम्मद सलमान 13 साल तक जेल में रह चुके थे

आप देखिए इन चारों सजायाफ्ताओं के नामों में 3 का नाम मोहम्मद है जिसका मतलब यह भी निकलता है कि इन्होने मज़हब के लिए लोगों का खून बहाया

चलिए मान भी लिया जाए कि कांग्रेस सरकार के वकील ने हाई कोर्ट में ठीक से पैरवी नहीं की लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हाई कोर्ट ट्रायल कोर्ट में मुक़दमे के कार्यवाही का संज्ञान  ही न ले और अभयुक्तो को बरी कर दिया जाए हर मुक़दमे की असली पड़ताल तो ट्रायल कोर्ट में ही होती है हाई कोर्ट सभी सबूतों का निरीक्षण नहीं कर सकता जो ट्रायल कोर्ट करता है

जिस ट्रायल कोर्ट ने 2019 में 10 साल की सुनवाई के बाद चारों को फांसी की सजा सुनाई, उसने सभी तथ्य देखे होंगे, गवाहों को सुना होगा और सबूतों का भी परीक्षण किया होगा हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट उन सब बातों पर गहन विचार नहीं करते लेकिन ट्रायल कोर्ट की मेहनत पर पानी फेर देते हैं ट्रायल कोर्ट का निर्णय सही मायने में निष्पक्ष था और अगर ऐसा न होता तो वह एक अभियुक्त शाहबाज़ हुसैन को बरी न करता

अब सजा दी गई है आजीवन कारावास की लेकिन जो अपील सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ मृतकों के परिजनों ने दायर की थी, वह उन्हें फांसी की सजा बरक़रार करने के लिए की थी और इस लिए उस पर भी फैसला होना क्योंकि यदि वह अपील स्वीकार होती है तो उन्हें फांसी की सजा हो सकती है यह दो वर्ष से लंबित हैं सुप्रीम कोर्ट में 18 साल में ट्रायल कोर्ट ने दो फैसले दे दिए 5 महीने में हाई कोर्ट ने फांसी की सजा रद्द कर दी क्या सुप्रीम कोर्ट पंचवर्षीय योजना पर काम कर रहा है जो अभी तक सुनवाई का नाम भी नहीं है?

आतंकियों के हौसले इसलिए भी बुलंद रहते थे कि मामले का फैसला होने में ही 20 साल लग जाएंगे

वो तो पिछले 11 साल से मोदी सरकार के परिश्रम और मजबूत ख़ुफ़िया तंत्र के चलते आतंकी हमले होने बंद हुए हैं वरना तो आए दिन बम धमाकों से चीतपुकार मची होती थी

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