आज हर जगह चर्चा है कि सुप्रीम कोर्ट मुख्य न्यायाधीश के अधीन है या कुछ चुटकी भर वकीलों के अधीन? जिनकी योग्यता और प्रभाव सिर्फ इसलिए है कि चाहे मुकदमा आतंकवादी का हो, आतंकवादी की फांसी रुकवाने का हो, भ्रष्टाचारी का हो या दंगाइयों का ये चुटकी भर वकीलों में से किसी न किसी के पास मुकदमा होता है और ये अपने प्रभाव से कोर्ट को घुमाते रहते हैं। आधी/देर रात कोर्ट खुलवाने की क्षमता रखते हैं। जो न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर ऐसा प्रश्नचिन्ह लगा देता है जिसका मुख्य न्यायाधीश न कोई समाधान कर पाते है और न ही इस अव्यवस्था का जवाब। जो इस बात को साबित करता है कि अदालतें न्यायाधीश के अधीन नहीं।
कपिल सिब्बल कह रहे हैं कि आंतरिक समिति की जांच के आधार पर जस्टिस वर्मा को हटाना “गैर संवैधानिक” है।
अगर ऐसा किया जाता है तो हम उसका विरोध करेंगे क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी और यह परोक्ष रूप से न्यायपालिका पर कंट्रोल करना होगा।
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लेखक चर्चित YouTuber |
सरकार वर्मा और यादव के मामले में भेदभाव पूर्ण नीति अपना रही है।
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज को "proven misbehavior" or "incapacity" के लिए हटाया जा सकता है।
Proven Misbehavior:
This refers to wrongdoing that violates the judge's duty, such as abuse of power, corruption, or lack of integrity.
Incapacity:
This refers to a physical or mental condition that prevents the judge from performing their duties effectively.
किसी भी जज को अपनी बात कहने का अन्य नागरिकों की तरह मौलिक अधिकार होता है। जस्टिस शेखर यादव ने भी अपने विचार व्यक्त किए, वो गैर संवैधानिक थे abuse of power था या उनकी Integrity पर शंका पैदा करता है। यह जांचने का अधिकार कपिल सिब्बल को नहीं है।
सिब्बल को बस शेखर यादव को target करना है क्योंकि उनके विचार सिब्बल और सेकुलर कीड़ों से मेल नहीं खाते। इसलिए आरोप लगा रहा है कि सरकार यादव को बचा रही है।
जबकि जस्टिस वर्मा का मामला सीधा सीधा भ्रस्टाचार से जुड़ा है और सिब्बल हर भ्रष्टाचारी के साथ खड़े होते हैं। वर्मा को क्या करोड़ो की काली कमाई करने का अधिकार था जो उसे हटाने को सिब्बल Unconstitutional कह रहा है। चीफ जस्टिस ने आंतरिक जांच समिति का गठन किया जिसकी रिपोर्ट पर चीफ जस्टिस ने राष्ट्रपति को उसे हटाने का सुझाव दिया।
जब वर्मा का केस सामने आया था तब सिब्बल ने ही कहा था सरकार को और न्यायपालिका को स्वीकार करना चाहिए जजों की नियुक्ति में कमियां हैं। आज न्याय प्रणाली में लोगों का विश्वास कम हो रहा है। ये बयान दिया तो वर्मा के केस के सामने आने के बाद लेकिन वर्मा के घर मिली नकदी पर कुछ बोलने से मना कर दिया।
जब आंतरिक समिति बनाई गई तब ही सिब्बल को उसकी वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में challenge करना चाहिए था। और या चीफ जस्टिस की राष्ट्रपति को भेजी गई Recommendation को ही चुनौती देनी चाहिए थी। उसे कहना चाहिए था कि चीफ जस्टिस has overstepped his jurisdiction लेकिन जब सरकार उन्हें हटाने का प्रस्ताव लाने को तैयार है तब सिब्बल का बिलबिलाना एक पागलपन के सिवाय कुछ नहीं है।
क्या सिब्बल कहना चाहते है कि यशवंत वर्मा या किसी भी जज को भ्रष्टाचार करने का भी मौलिक अधिकार है? सच्चाई तो यह है कि Judicial Independence के नाम पर सुप्रीम कोर्ट वर्मा को बचा रहा है अन्यथा अभी तक तो वर्मा के खिलाफ FIR की permission दे दी गई होती।
वर्मा का तो एक केस सामने आया है। न्यायपालिका में तो पता नहीं कितने छुपे हुए बैठे हैं जो काली कमाई कर रहे हैं। 1993 में ऐसे ही एक भ्रष्टाचार के आरोपी जज रामास्वामी का केस भी संसद में सिब्बल ने लड़ा था।
Judicial Independence के नाम पर और उस पर खतरा बता कर कॉलेजियम क्या क्या गोलमाल कर सकता है ये आम चर्चा का विषय है। NJAC को केवल इसलिए ख़ारिज कर दिया क्योंकि उसमे Law Minister को शामिल कर लिया गया था और उसे सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला बता दिया।
जब हजारो लाखो वकीलों में से कोई इक्का दुक्का वकील जज बनता है तो मान कर चलना चाहिए कि चढ़ावा चढ़ा कर ही जज बना है और जज बनने के बाद Investment की उगाही करना उसका अधिकार हो जाता है। यशवंत वर्मा भी एक वकील थे और जिस जज ने जियाउर रहमान बर्क की 2 करोड़ के पेनल्टी पर रोक लगाई है वह भी 2017 तक Senior Advocate ही थे।
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