भ्रष्टाचार विरोधी बिल पेश करते समय गृह मंत्री अमित शाह पर विपक्ष ने फेंके कागज के गोले |
संसद में हंगामा और कार्यवाही रुकना कोई विचित्र बात नहीं है। दुनिया भर की सांसदों में यह होता है। लेकिन लगातार पूरे-पूरे दिन संसद ना चलने देना और पहले बैठकों में सहमति बनाने के बाद भी डेडलॉक पैदा करना भारत के विपक्ष की आदत बन गई है। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि लोग पहले ही बता देते हैं कि संसद का सत्र चालू होने से पहले या तो कोई रिपोर्ट आएगी या कोई ऐसा मुद्दा उठेगा जिस पर हंगामा होगा, इसके बाद संसद सत्र बर्बाद होगा।
संविधान की रक्षा करने का रोना रोने वाले INDI गठबंधन को ना ही महामहिम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, निचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और ना ही अन्य संवैधानिक संस्थाओं तक का सम्म्मान नहीं करता। क्या ऐसे बेगैरत INDI गठबंधन से देश के सम्मान की कल्पना की जा सकती है, ये सबसे बड़ा प्रश्न है, जिसका जवाब जनता को इस ठग INDI गठबंधन से पूछनी चाहिए। इस तरह का बेगैरत विपक्ष भारत ने कभी नहीं देखा। क्या ये INDI गठबंधन वर्तमान युग का जयचन्द गैंग है?
कार्यवाही रुकना यानी करोड़ों की बर्बादी
मॉनसून सत्र का पहले ही दिन हंगामा भरा होना कोई शुभ संकेत नहीं है। यह सत्र 32 दिन चलने वाला है और इसमें 21 दिन संसद की बैठक होगी। नियमानुसार, हर दिन संसद के दोनों सदन 6 घंटे काम करते हैं। यह समय घट-बढ़ भी सकता है।
लेकिन 21 दिन भी संसद चले और 6 घंटे भी काम करे तो इस पर भारी-भरकम खर्च होता है। यह खर्च जनता के पैसे का होता है, जिसे हम टैक्स कहते हैं। लोकसभा के पूर्व महासचिव PDT आचार्य ने कई वर्षों पहले बताया था कि संसद का एक मिनट चलाने पर भी 2.5 लाख रूपए का खर्च होता है।
इसमें सांसदों की तनख्वाह, बिजली-पानी के बिल समेत बाकी खर्च शामिल होते हैं। यह खर्च अभी तक काफी बढ़ गया होगा। लेकिन 2.5 लाख रूपए खर्च आज भी प्रति मिनट माना जाए, तो इस मॉनसून सत्र पर सैकड़ों करोड़ खर्च होने वाले हैं।
सीधी गणित के हिसाब से इस संसद सत्र पर 2.5 लाख रूपए/मिनट के हिसाब से 189 करोड़ रूपए खर्च होने हैं। 21 दिन में संसद 126 घंटे चलने वाली है। यानी इसकी कार्रवाई 7560 मिनट चलेगी। इन 7560 मिनटों को 2.5 लाख रूपए से गुना करे तो यह 189 करोड़ रूपए की धनराशि खर्च होगी।
संसद के खर्च इसके अलावा और भी होते हैं, जैसे सांसदों को संसद सत्र के दौरान आने का हर दिन का 2500 रूपए भत्ता भी मिलता है। ऐसे में यह खर्च बढ़ता ही है, देश के लोकतंत्र के मंदिर पर खर्च हो, इससे किसी को ऐतराज नहीं है, लेकिन जिस तरह से इस सत्र की शुरुआत हुई है उससे अच्छे आसार नहीं लगते।
सरकार इस सत्र के पहले हुई सर्वदलीय बैठक में कह चुकी है कि वह ऑपरेशन सिंदूर समेत सभी मुद्दों पर बात करने को तैयार है। विपक्ष की माँग थी कि इस दौरान बिहार में चुनाव आयोग की पुनरीक्षण प्रक्रिया पर बात हो और एअर इंडिया हादसे को लेकर भी बात हो।
क्यों चिंताजनक है यह ट्रेंड?
संसद को चलाना पक्ष और विपक्ष दोनों की बराबर की जिम्मेदारी होती है। संसद का कम दिनों चलना और कम काम करना चिंताजनक इसलिए भी है कि इससे व्यवस्था के दूसरे हिस्सों को प्रभाव बढ़ाने का मौक़ा मिलता है। एक रिपोर्ट बताती है कि जहाँ पहली लोकसभा (1952-57) साल में 135 दिन बैठी तो वहीं 17वीं लोकसभा (2019-24) मात्र 55 दिन चली।
इससे भी चिंताजनक यह ट्रेंड है कि इन 17वीं लोकसभा का लगभग 50% समय हंगामे और बवाल की भेंट चढ़ गया। इससे जहाँ एक ओर जनता का पैसा बर्बाद होता है तो वहीं दूसरी तरफ महत्वपूर्ण विधेयकों पर तक चर्चा नहीं हो पाती।
ऐसे में विपक्ष को सिर्फ हंगामे की जगह अपने तर्क और सबूत के आधार पर संसद में सरकार को घेरने की नीति बनानी चाहिए ना कि कार्यवाही पर ही ग्रहण लगा देना चाहिए। इससे जनता का विश्वास बढ़ेगा ही, देश का लोकतंत्र मजबूत होगा और सरकारी पैसे की बर्बादी रुकेगी।
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