कच्चे धागे को असीमित करने के बाद भी कीमत नहीं चुका पाए द्वापर युग के श्रीकृष्ण, लेकिन कलयुग में इस कच्चे को बोझ और खानापूर्ति बना दिया
"विश्व में सुन्दर हैं दो नाम श्रीकृष्ण कहो या श्रीराम" ठीक उसी प्रकार सनातन में दो त्यौहार रक्षा बंधन और भाईदूज ऐसे दो त्यौहार है जिनसे कोई देवी-देवता अछूता नहीं। वैसे सनातन में हर त्यौहार हर प्राणी को शिक्षा और सन्देश देता है। लेकिन सावन के माह में पड़ने वाले रक्षा बंधन का वह अटूट बंधन है जिसका मूल्य द्वापर युग में गीता का ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण भी नहीं समझ पाए। वह स्वयं इन कच्चे धागों के बंधन से मुक्त नहीं हो पाए। लेकिन इस कलयुग में अपनी प्रतिभाशाली गौरवविंत राखी के महत्व को पश्चिमी सभ्यता में डूबी पीढ़ी ने एक बोझ या कहे कि बहन द्वारा भाई से कुछ धन प्राप्ति का नाम देकर दिया। भाई बहन को कुछ न दे केवल स्नेह देता रहे वही बहन की सबसे दौलत होती है। लेकिन कलयुग में इस भटकी पीढ़ी को नहीं मालूम कि सनातन परम्परा में रक्षा बंधन का क्या महत्व है। इस दिन बहन भाई के कच्चा धागा ही नहीं बांधती बल्कि अपने भाई के उज्जवल भविष्य की कामना करती है और जब अपने हाथों से भाई के मुंह में अन्न और मिष्ठान खिलाती है ऐसा आभास होता है मानो पृथ्वी पर देवी-देवता भोजन का आनंद ले रहे हैं।
"पिता" और "पति" दोनों मे "प" और "त" अक्षर का इश्तेमाल हुआ है। एक "प" पति और दूसरे "प" मे पिता भी छुपा हुआ है। ये महज संयोग नही है। बल्कि भाषा विशेषज्ञों ने सोच विचार कर ये नाम दिये है। दोनों प्रेम करते हैं। दोनों परवाह करते है। रक्षा करते है। पालन पोषण करते हैं। बस एक जन्मदाता है दूसरा साथी है। एक का प्रेम वात्सल्यपूर्ण है दूसरे का प्रेम दाम्पत्य पूर्ण है। मगर यहाँ एक बड़ा अंतर है। पिता का प्रेम निस्वार्थ है जबकि पति को प्रेम के बदले प्रेम चाहिए होता हैं! बस यही कामना अपने बच्चों से करते हैं। जब माता-पिता के स्वर्ग सिधारने पर बच्चे आपस में मिलकर रहते है बल्कि अपने-अपने परिवारों में अपने माता-पिता से मिले संस्कारों को अमर कर दिवंगत आत्माओं को स्वर्ग प्रदान करते हैं। अन्यथा उनमे और भटकी आत्माओं में कोई फर्क नहीं होता।
संसार में 84 लाख योनियां हैं, जिनमें ईश्वर जीव को मनुष्य योनि इस अभिप्राय से देता है कि वह विवेक द्वारा संसार के जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परब्रह्म में विलीन होकर मोक्ष प्राप्त कर लेगा। संसार के सभी जीवों में विवेक केवल मनुष्य को ही प्राप्त है, जिसके द्वारा वह अपने कर्मों पर नियंत्रण कर सकता है। जीव की पहचान उसके कर्मों से होती है।
मनुष्य संसार को अपनी इंद्रियों द्वारा अनुभव करता है। इंद्रियां अनुभव की हुई चेतना को व्यक्ति के मन तक पहुंचाती हैं। इसके बाद मन इंद्रिय तृप्ति के लिए उस वस्तु को कर्म द्वारा प्राप्त करने की कोशिश करता है। जब वह संबंधित वस्तु को प्राप्त करने में असफल होता है तब उसके अंदर क्रोध जागृत होता है, जिसके बाद उसका विवेक समाप्त हो जाता है। विवेक समाप्त होने पर उसका विनाश होना शुरू हो जाता है।
इसलिए श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि यदि शरीर त्यागने से पूर्व कोई मनुष्य अपनी इंद्रियों के वेग को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ हो जाता है तो वह संसार में सुखी रहकर अंत में मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इंद्रियों के वेग को रोकने के लिए योग के जरिये मन तथा कर्म पर निरंतर संयम का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार नियंत्रित मन शुभ और निष्काम कर्म की तरफ प्रेरित होता है। इसके बाद ही मनुष्य समाधि द्वारा अपनी चेतना को परम चेतना में विलीन कर सकता है, जिसे मोक्ष कहा जाता है।
जो लोग अपनी इंद्रियों को नियंत्रित कर शुभ कर्म करते हैं वे मानव जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त कर लेते हैं और जो बुरे कर्मों में लिप्त रहते हैं वे 84 लाख योनियों के फेर में फंसे रहते हैं।इसको देखते हुए ही मानस में कहा गया है- 'सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयं बिचारी ॥' यानी शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है, जो कर्म करता है, वही फल पाता है। यही वह मंत्र है, जिसे आत्मसात करके हम अपने जीवन को सुगम एवं सार्थक बना सकते हैं।
रीता इस बार मत आना राखी पर, क्या है ना मैं और तुम्हारे भैया किसी जरुरी काम से शहर से बाहर जा रहे हैं। अब काम भी ऐसा है कि मना भी कर सकते।” ये शब्द थे पुनीत की पत्नी श्यामा के, जो उसने व्हाट्सएप पर एक साधारण मैसेज में भेजे थे। लेकिन इस मैसेज के पीछे छुपा था एक तीखा ताना, एक कटाक्ष और एक बहन के दिल पर लगा वो जख्म जो कभी भर नहीं पाया।रीता, जो हमेशा अपने भाई पुनीत को राखी बांधने सबसे पहले पहुंचती थी, उस दिन घंटों स्क्रीन को देखती रही। उस छोटे से मैसेज ने जैसे उसका सीना चीर दिया हो।
बचपन से लेकर अब तक उसने हर खुशी अपने भाई के साथ बांटी थी। मां-बाप के गुजरने के बाद तो भाई ही उसका सब कुछ था। रीता और पुनीत में उम्र का बस दो साल का फर्क था। दोनों ने मां की छांव में बड़ा होना सीखा, लेकिन किस्मत ने जल्द ही दोनों से वह छांव छीन ली। पिताजी पहले चले गए, जब मां भी चली गईं, तब रीता 20 साल की थी और पुनीत 18 का। रीता ने पढ़ाई छोड़ दी, छोटी-छोटी ट्यूशन पकड़ लीं, पुनीत को इंजीनियर बनाने का सपना मां की तरह अपनी पलकों पर सजा लिया। उसने अपने सारे सपने छोड़ दिए लेकिन पीङित की आँखों में चमक देखती रही। जब पुनीत इंजीनियर बना और शहर में नौकरी लगी, तो सबसे पहले उसने कहा,“दीदी, अब तुम्हारे सारे सपनों को मैं पूरा करूंगा।” रीता मुस्कुरा दी, उसे पता था कि यह बच्चा अभी भी वैसा ही है जैसे स्कूल में गलती होने पर आकर माफ़ी मांगता था। लेकिन जैसे ही पुनीत की शादी हुई, सब कुछ बदल गया। श्यामा अलग सोंच और दिमाग वाली थी। उसे रीता का बार-बार घर आना पसंद नहीं था। उसने धीरे-धीरे पुनीत को गलत राह दिखानी शुरू कर दी कि बहन को अब अपनी दुनिया में रहना चाहिए, राखी हो या कोई भी त्योहार, अब 'हमारी दुनिया' बस हमारे तक सीमित होनी चाहिए। शादी के पहले साल भी रीता राखी पर आई, श्यामा ने दिखावे के मिठास से उसका स्वागत किया लेकिन जाते ही पुनीत से कहा,“इतना गिफ्ट क्यों दिया? अब हर साल राखी पर इतनी बड़ी रस्म जरूरी है क्या?” पुनीत चुप रहा, उसने मुस्कुरा कर कहा, “दीदी ने सब कुछ किया मेरे लिए श्यामा, बस साल में दो दिन-रक्षा बंधन और भाई दूज- ही तो उसे कुछ छोटी भेंट देने का मौका मिलता है।"
लेकिन अगले साल से श्यामा ने धीरे-धीरे दीवारें खींचनी शुरू कर दीं। और इस बार...वो मैसेज था — “इस बार मत आना राखी पर, मैं और तुम्हारे भैया शिमला जा रहे हैं।” रीता ने फोन उठाया, कांपती उंगलियों से नंबर डायल किया, पुनीत ने उठाया,“हां दीदी?” “शिमला जा रहे हो?” “हां दीदी, अचानक प्लान बन गया।” “ठीक है, खुश रहो…”— यह कहकर उसने फोन काट दिया, लेकिन आँसू वहीं से बहने लगे, जैसे बरसों की राखी बह गई हो उन नम आंसुओं में।
उस रात नंदिता ने मां की तस्वीर के आगे दीपक जलाया और कहा, “मां, देखो तुम्हारा बेटा अब बड़ा हो गया है, अब उसे बहन की जरूरत नहीं।” इधर शिमला में पुनीत की रात करवटों में बीती। उसे रीता की आवाज़ में कुछ टूटता महसूस हुआ था। लेकिन श्यामा ने प्यार से कहा, “अब हम अपनी फैमिली के साथ हैं ना, हर बार उन पुराने रिश्तों को ढोना जरूरी थोड़ी है।” वो खामोश रहा, पर चैन ना आया। राखी के दिन जब सोशल मीडिया पर सब अपनी बहनों के साथ फोटो डाल रहे थे, पुनीत का दिल डूबता जा रहा था। तभी उसे एक पोस्ट दिखी — "कुछ रिश्ते कच्चे धागों से नहीं, त्याग से बंधे होते हैं... लेकिन जब एक त्याग करता है और दूसरा भूल जाए, तो वो रिश्ता भी दम तोड़ देता है..." — ये रीता की पोस्ट थी। पुनीत के हाथ कांपने लगे, दिल बैठ गया। वो कुछ देर चुप रहा फिर श्यामा से कहा,“श्यामा, मुझे दिल्ली जाना है... दीदी के पास।” श्यामा चौंकी, “अब क्या मतलब है? अभी तो छुट्टियाँ शिमला की प्लान की हैं।” “श्यामा, तुम्हें जो समझना है समझो, लेकिन मैंने बहुत बड़ा धोखा दिया है दीदी को। जिसे मां की तरह पूजा, जिसके लिए उसने सब छोड़ा, उसे मैंने एक मेसेज में बाहर कर दिया।” श्यामा ने नाराजगी से मुँह मोड़ लिया लेकिन पुनीत ने सामान उठाया और तुरंत स्टेशन के लिए निकल गया।
खून आखिर खून ही होता है। दिल्ली पहुंचा तो नंदिता अपने छोटे से कमरे में बैठी थी। उसकी आँखें लाल थीं लेकिन जब दरवाज़े की घंटी बजी और पुनीत खड़ा था हाथ में राखी लिए...तो वह फूट-फूटकर रो पड़ी। “दीदी...माफ कर दो। मैं बहुत छोटा पड़ गया श्यामा के सामने... तुम्हारे प्यार को भूल गया...” “नहीं बेटा, तुम छोटे नहीं हो... दुनिया की चालाकी में फंस गए थे। लेकिन आज भी तू वही मेरा पप्पू है जो स्कूल में डिब्बा भूल आता था और मुझसे लेने को कहता था।” पुनीत ने उसका हाथ पकड़ा, “दीदी, चलो मेरे साथ, तुम्हारे बिना मेरा घर अधूरा है।” श्यामा ने उस साल राखी अकेले मनाई, लेकिन अगले साल जब रीता आई, तो श्यामा ने दरवाज़ा खोला और पहली बार झुककर कहा,“नमस्ते दीदी...आपका स्वागत है।”
कभी एक राखी सिर्फ धागा नहीं होती, वो एक इतिहास होती है, त्याग, प्रेम और रिश्तों की कसौटी होती है। अगर बहन हो तो रीता जैसी, और भाई हो तो पुनीत जैसा जो भटक कर भी वापस लौटे। कहानी से सीख: परिवार के रिश्ते वक्त और दूरी से नहीं, बल्कि दिल से निभाए जाते हैं। राखी का धागा अगर टूट भी जाए, तो दिलों का रिश्ता उसे फिर से बाँध सकता है।
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