आज समय की मांग है कि जो भी नेता और उसकी पार्टी जो आतंकवाद के बचाव में खड़ी हो रही हैं जब तक जनता ऐसे लोगो के विरुद्ध खड़ी नहीं होगी आतंकवाद अपने आप ख़त्म हो जाएगा। आतंकवाद के पनपने में सबसे सबसे बड़े जिम्मेदार आतंकवादी या उनके आका नहीं बल्कि देशभक्ति का स्वांग रचने वाले हमारे नेता और उनकी पार्टियां है जिन्हे हम सिरमौर बनाए रहते हैं। आतंकवाद के बचाव में खड़े नेताओं का जब तक उनके परिवार सहित सामाजिक बहिष्कार नहीं होगा देश से आतंकवाद ख़त्म नहीं होगा।
आज देश जितनी मुसीबतों से जूझ रहा है उसकी जिम्मेदार हमारी पिछली सरकारें हैं। उन्होंने अपनी कुर्सी की खातिर देश को गुमराह किया। जीती-जागती मिसाल देख लो कि जितनी कांग्रेस कमजोर हुई है उतना ही पाकिस्तान भी कमजोर हो रहा है। 
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इंडस वाटर ट्रीटी जिसे सिंधु नदी जल समझौता भी कहते है, उसे पहलगाम हमले के बाद मोदी सरकार ने सस्पेंड कर दिया और पाकिस्तान को दिए जाना वाला पानी रोक दिया गया।
वह समझौता 19 सितंबर, 1960 कराची में नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के बीच हुआ था जिसमें वर्ल्ड बैंक ने बतौर मध्यस्थ हस्ताक्षर किये थे।
नेहरू ने वह समझौता संसद से अनुमति लिए बिना किया पाकिस्तान के साथ और दो महीने बाद नवंबर, 1960 में संसद में Short Discussion के लिए लाया गया जिसे कांग्रेस के सांसदों समेत अनेक सांसदों ने इतने महत्वपूर्ण विषय को बहुत कम समय देने के लिए निंदा भी की।
आपने सुना होगा मंगल और सूर्य क्रूर ग्रह होते है मतलब अपने स्वभाव से कठोर होते हैं जबकि पाप ग्रह शनि, राहु और केतु को माना जाता है, जो अपने अशुभ प्रभाव से पाप कर्मों की ओर ले जा सकते हैं। परंतु उनके प्रभाव शुभ और अशुभ दोनों हो सकते हैं। लेकिन नेहरू, गांधी के साथ भारत पर ऐसा पाप ग्रह था जिसका प्रभाव हमेशा अशुभ ही रहा है और आज तक झेल रहा हैं और झेलता रहेगा। लेकिन कांग्रेस हर अच्छे काम का श्रेय नेहरू को देती है जैसे चंद्रयान के चंद्रमा पर उतरने के लिए भी नेहरू का गुणगान कर दिया जबकि नेहरू का उससे दूर दूर तक कुछ लेना देना नहीं था।
नेहरू ने 8 अप्रैल, 1950 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के साथ दिल्ली में एक द्विपक्षीय समझौता किया जिसमें कहा गया कि 1947 के विभाजन के बाद दोनों देश अपने अपने यहां अल्पसंख्यकों की रक्षा करेंगे।
अब ऐसा कहा गया कि दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्ष समझौता करने के लिए अपने अपने देश से अधिकृत थे। हमें पाकिस्तान से मतलब नहीं लेकिन भारत में जब संसद के चुनाव भी नहीं हुए थे और नेहरू जब देश का चुना हुआ प्रधानमंत्री भी नहीं था तो उसे वह समझौता करने का अधिकार किसने दिया क्योंकि उसने तो समझौता करने के लिए राष्ट्रपति से भी अनुमति लेने की जरूरत नहीं समझी।
नेहरू लियाकत समझौता भारत के दृष्टिकोण से एक गैर जरूरी और गैर कानूनी समझौता था क्योंकि जब संसद ही नहीं थी तो किसी देश के साथ भी कोई समझौता कोई भी प्रधानमंत्री कैसे कर सकता है? फिर समझौते पर क्या पाकिस्तान ने अमल किया जबकि उस समझौते ने भारत में मुसलमानों को इतनी हिम्मत दे दी कि वे भारत के एक बार और टुकड़े कर सकें। पाकिस्तान में उस समय 22% हिंदू अल्पसंख्यक थे जो अब 2% हैं, फिर कैसे समझौते का पालन किया पाकिस्तान ने।
8 अप्रैल,1950 को समझौता होने तक तो भारत में रह रहे मुसलमान भारत के नागरिक ही नहीं थे क्योंकि उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए था, उस मुल्क में जो 95% मुसलमानों ने वोट करके मांगा था। ये नेहरू और लियाकत की पकाई हुई खिचड़ी थी जिससे मुसलमानों को भारत में रहने का कोई खतरा न हो और नेहरू को पहली सरकार बनाने में मदद कर सके जो वो आगे भी करते रहे।
कभी सुप्रीम कोर्ट में भी इस समझौते को चुनौती नहीं दी गई। वैसे कांग्रेस के बिठाए गए जजों से कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती जब वो पूरे विपक्ष को जेल में ठूंस कर संविधान की मूल प्रस्तावना का बलात्कार करने वाले जोड़े गए “Secular और Socialist” शब्दों को भी अवैध नहीं कह सके।
मेरा मानना है और सरकार से अनुरोध है कि जब हमने सिंधु जल समझौते को रद्द/निलंबित कर दिया तो हमें नेहरू-लियाकत समझौते को भी रद्द कर देना चाहिए। 8 अप्रैल 1950 में जो भी मुसलमान भारत में थे और अभी तक जो भी उनके वंशज है, उनको भी अल्पसंख्यक मानने से ही इंकार कर देना चाहिए और उन मुसलमानों की नागरिकता भी स्वतः ख़त्म कर देनी चाहिए।
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