
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
महाराष्ट्र में शिवसेना ने अपने घमंड को दर्शाते हुए सत्ता पाने की लालसा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भाजपा से गठबन्धन तोड़ दिया। इसके बाद शिवसेना ने उद्धव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए एनसीपी और कांग्रेस की स्तुति में क्या कुछ नहीं किया? मगर अंत में जो हुआ वह यह बताने के लिए काफी है कि चुनाव बाद बनी कई दलों की मिली-जुली सरकार हमेशा ही जनता को ठगने में लग जाती है। ऐसी सरकार में जितने भी दल होते हैं सभी अपने-अपने मुनाफाखोरी धंधे में जुट जाते हैं। सत्ता हासिल कर, कभी सत्ता में न आने वाले दल सत्ता के विराजमान होकर सत्ता का भोग नहीं कहना चाहिए कि स्वर्ग में बैठ आनंदित हो, जनता को भूल जाते हैं। यही कारण है कि देश को आज़ाद हुए इतने वर्ष हो गए, परन्तु जन-समस्याएं वहीं की वहीं हैं।
क्यों भाजपा और शिवसेना भ्रष्ट अजित पवार से हाथ मिला रही हैं?
स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में देश में दूध की नदियां बहाने की बात की जाती थी, लेकिन आज वही दूध 40+/50+ रूपए लीटर बिक रहा है, महंगाई आसमान छू रही है, कृषि प्रधान देश घोटाला प्रधान देश बन गया है। विरोधी भी सत्ता पक्ष के घोटालों को केवल सत्ता हथियाने के लिए ही उठाते हैं, और चुनाव परिणाम में समीकरण बिगड़ने पर उन्ही भ्रष्ट पार्टियों से समझौता कर लेते हैं। महाराष्ट्र इसका जीवंत उदाहरण हैं। जिस एनसीपी के अजित पवार के घोटालों के विरुद्ध भाजपा और शिवसेना ने चुनाव लड़ा था, आज ये दोनों पार्टियां सत्ता हथियाने उसी भ्रष्ट एनसीपी के तलवे चाट रही हैं, क्या है ये सब तमाशा? चर्चा यह हो रही है कि "यदि किसी कारण से समस्त गाँधी परिवार भाजपा में शामिल हो जाएं, उनके घोटाले एक स्वप्न मात्र रह जाएंगे।"
अभी प्राप्त समाचारों के अनुसार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के साथ डिप्टी सीएम पद की शपथ लेने के तकरीबन 48 घंटे बाद ही भ्रष्टाचार रोधी ब्यूरो (ACB) ने एनसीपी नेता अजित पवार को बड़ी राहत दी है। एसीबी ने 70,000 करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले में अजित पवार को क्लीनचिट दी है। और जिस दिन अजित घोटालों से सम्बंधित अपनी समस्त फाइलें ठीक करवा लेंगे, संभव है अपना समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा भाजपा को धरातल पर ले आएं। राजनीति किसी समय कुछ भी संभव हो सकता है।
देश ने आपातकाल के बाद पहली गठबंधन सरकार देखी, मगर कुछ ही समय में यह साफ हो गया कि इस सरकार में शामिल सभी दलों के ज़्यादातर लोग आपस में ही एक दूसरे की टाँग खींचने में लगे हैं। इतिहास गवाह है कि भारतीय राजनीति में गठबंधन के घटक दलों का उद्देश्य सत्ता होता है। मात्र एक कम्युनिस्ट पार्टी ऐसी थी, जिसने जनता पार्टी में विलय होने की बजाए अपना समर्थन जारी रखा, विपरीत इसके कांग्रेस से बाद देश में चर्चित विरोधी पार्टी भारतीय जनसंघ ने पूर्णरूप से विलय कर अपना चुनाव चिन्ह तक गँवा दिया था। परन्तु कांग्रेस ने इस गठबंधन को तोड़ने के जनसंघ और आरएसएस की दोहरी सदस्यता का मुद्दा उछाल कर दरार डालने में सफल रही। यही वजह है कि 1977 की मोरारजी देसाई सरकार में अहम पद पर रहने के बावजूद चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद की लालसा के लिए 1979 में इस गठबंधन को तहस-नहस कर दिया, मगर पूर्ववर्ती सरकार की तरह यह भी उसी तरीके से ढह गई। बल्कि उससे भी कम।
इसके बाद साल 1989-91 के दौर में आई गठबंधन सरकारों का भी वही हाल हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर चंद्रशेखर की अगुवाई वाली सरकारों में भी कोई खास स्थिरता नहीं दिखी। देवेगौड़ा और गुजराल जैसे प्रधानमंत्रियों की सरकार गिराने में भी दलगत मतभेदों का बड़ा हाथ रहा। कालांतर में भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में भी डीएमके के नेताओं पर भ्रष्टाचार के कई आरोप सामने आए। यह तमाम उदाहरण इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं कि सरकार की व्यवस्था को चलाने के लिए गठबंधन की सरकारें जनहित से ज्यादा कुर्सी बचाए रखने के लिए समर्पित होती हैं। जनहित ही नहीं, प्रशासन के मोर्चे पर भी अनेक दलों के गठबंधन की सरकार अक्सर विफल रहती हैं। ऐसे में कुर्सी की जोड़-तोड़ करने वाली पार्टियों के शासन में जनता ही पिसती है।
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राष्ट्रपति चुनाव के दौरान मनोनीत प्रणव मुख़र्जी समर्थन के लिए पहुंचे थे बालासाहब ठाकरे से मिलने मातोश्री । आज उद्धव सत्ता के लालच में मातोश्री से बाहर निकल, विरोधियों के दरवाज़े जा रहे हैं। |
विचारधारा में अंतर न होते हुए भी जब 50-50 के फॉर्मूले पर शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन तोड़कर एनसीपी और कांग्रेस जैसी पार्टियों संग विलय की जो उत्सुकता दिखाई, उसने जनता के सामने उसके सत्तालोलुप चरित्र को सामने लाकर रख दिया। ट्विटर पर #ShivsenaCheatsMaharashtra जैसे ट्रेंड किसी राजनीतिक दल नहीं बल्कि आम लोगों की भावनाएँ दर्शा रहे थे। महाराष्ट्र के लोगों के लिए यह उनके द्वारा शिवसेना को भरोसे पर दिए गए वोट का सौदा करने जैसा था।
जिस शिवसेना से जनता उम्मीदें लगाए बैठी थी, वही शिवसेना अगर एनसीपी जैसे दलों से अपनी पार्टी लाइन और विचारधारा को लेकर समझौता कर सकती है, सत्ता में बैठने के लिए अपने ही वोटरों के भरोसे का सौदा कर सकती है तो क्या इस बात का क्या भरोसा कि वह सत्ता में बैठकर जनहित का काम करे? स्वाभाविक है कि जिसके रहमोकरम पर सरकार चलेगी, उसके प्रति नतमस्तक रहना उसकी (शिवसेना की) अघोषित ज़िम्मेदारी रहेगी। देश और देश के राज्यों में मिली-जुली सरकारें राजनीतिक दलों के पेट भरने का एक ऐसा जरिया होती हैं जहाँ जनता के कष्टों की सुनवाई अनिश्चितकाल तक टल जाती है। महाराष्ट्र के सन्दर्भ में यह सोचना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि तीन ऐसी पार्टियाँ (जो एक दूसरे की हमेशा से धुर-विरोधी रहीं) – एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस यदि एक साथ गठबंधन में शामिल होतीं तो राज्य सरकार और उसके लोगों का क्या हश्र होगा?
बालासाहेब ठाकरे की राजनीति ही हिन्दुत्व से शुरू हुई। उन्होंने राजनीतिक संगठन के रूप में शिवसेना बनाई। भारतीय राजनीति के इतिहास में हिन्दू ह्रदय सम्राट’ शब्द उन्ही के लिए संबोधन में इस्तेमाल होता था। उनकी लड़ाई सिर्फ हिन्दुत्व के लिए ही नहीं बल्कि छद्म सेकुलरिज्म के विरुद्ध भी थी। वही छद्म सेकुलरिज्म, जिसे कांग्रेस जैसी पार्टियों ने समाज के वर्ग विशेष का वोट लेने का जरिया बना लिया था। तीनों पार्टियों की विचारधारा, उनमे मौजूद भिन्नता खुद यह बताती है कि अगर यह गठबंधन सफल भी होता तो इस त्रिशंकु से जनहित की उम्मीद करना एक भूल होगी।
भारत में जोड़-तोड़ की राजनीति नई नहीं है, मगर भारतीय राजनीति में ऐसी सरकारों की स्थिरता हमेशा सवालों के घेरे में रही है। दिल्ली से लेकर राज्यों की राजधानी तक, अगर बहुमत न हो, तो त्रिशंकु सरकारों ने देश की प्रगति अपने फैसलों और नीतियों के ज़रिए कितना ध्यान दिया यह एक प्रश्न चिन्ह है।
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