वर्ष 2015 में 1950 से चल रहे चुनाव आयोग में नियुक्तियों को “Unconstitutional” कहते हुए एक अनूप बरनवाल ने PIL दायर की और कहा कि वर्तमान कार्यपालिका द्वारा की जा रही चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों से आयोग की स्वायत्तता संकट में रहती है और एक कॉलेजियम जैसा सिस्टम बनाया जाए। यानी 70 साल बाद मोदी के आते ही सब ख़राब हो गया।
जस्टिस KM JOSEPH, जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस सी टी रवि कुमार की संविधान पीठ ने 8 साल बाद 2 मार्च, 2023 को चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों के लिए कॉलेजियम बना दिया जिसके अनुसार प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और चीफ जस्टिस की एक समिति आयुक्तों की नियुक्ति करेगी और यह कॉलेजियम तब तक जारी रहेगा जब तक संसद कोई क़ानून न बना दे।
संसद ने दिसंबर 2023 में कानून पारित कर नियुक्ति के लिए 3 सदस्यीय समिति बना दी जिसमें चीफ जस्टिस के स्थान पर एक मंत्री को रख दिया। लेकिन अनेक याचिकाएं इस कानून के खिलाफ फिर से दायर हो गई कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही चुनाव आयोग की स्वतंत्रता कायम रह सकती है।
लेखक चर्चित YouTuber |
क्या सुप्रीम कोर्ट का काम रायता फैलाना रह गया वह भी प्रशांत भूषण जैसे वामपंथी वकीलों की संतुष्टि के लिए। बड़ा सीधा सा सवाल है कि 5 जजों की संविधान पीठ के फैसले के अनुसार ही केंद्र सरकार ने कानून में बदलाव किया और अब, जब वह फैसला नए कानून से खरिज हो गया तो उस पर सुनवाई 3 जजों की बेंच कैसे कर सकती है? लेकिन सुनवाई होगी 4 फरवरी को और एक बार फिर रायता नहीं फैलाया जाएगा, कह नहीं सकते!
मैंने कल ही विस्तार से लिखा था कि NGOs की भूमिकाओं और उनकी फंडिंग की जांच होनी चाहिए और ADR (जो एक NGO है) की क्या locus standi है इस मामले में। चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर सवाल उठाने का मतलब, उस पर आरोप लगाना है कि वह “निष्पक्ष” नहीं है लेकिन यह साबित करना होगा कि वह “निष्पक्ष” नहीं है। हवा में बातें करने से काम नहीं चलता और यदि सुप्रीम कोर्ट फिर भी सुने तो रायता फैलाने वाली बात है।
जस्टिस जोसेफ का फैसला कोई कानूनी फैसला नहीं था, वह उनकी मोदी सरकार के खिलाफ बदले की कार्रवाई थी क्योंकि उनकी सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति में विलंब हुआ था।
जस्टिस के एम जोसेफ ने कहा कि यह मिथक टूट चुका है कि अदालतें कानून नहीं बना सकती, उनका यह कहना बड़ा हास्यास्पद था कि संविधान में शक्तियों का कोई सख्त सीमांकन या पृथक्करण नहीं है क्योंकि संसद भी जब किसी को विशेषाधिकार के उल्लंघन के दंडित करती है तो वह न्यायपालिका की भूमिका में होती है।
अवलोकन करें:-
जस्टिस जोसेफ को यह पता नहीं कि संसद को वह अधिकार भी संविधान से मिला हुआ है लेकिन सुप्रीम कोर्ट तो हर बात में सरकार की भूमिका में रहता है। एक बहुत ही घटिया बात जस्टिस जोसेफ ने कही जिसका मतलब कोई नहीं समझ सकता कि “चुनावी प्रक्रिया के जरिए सत्ता हासिल करना न तो अंत माना जा सकता है और न ही इसे अंत माना जाना चाहिए”। इसका मतलब वह यह कहना चाहते थे कि चुनावी प्रक्रिया के अलावा भी सत्ता हासिल करने का कोई और तरीका हो सकता है।
No comments:
Post a Comment