अपने 26 मार्च के लेख में मैंने कहा था कि मैं उपराष्ट्रपति की बात से सहमत नहीं हूं जिसमें उन्होंने कहा था कि -
“आज़ादी के बाद यह पहली बार है कि किसी मुख्य न्यायाधीश ने पारदर्शी, जवाबदेह तरीके से अपने पास मौजूद सभी सामग्री को पब्लिक डोमेन में रखा है और कोर्ट के साथ कुछ भी बिना छिपाए इसे शेयर किया है; यह सही दिशा में उठाया गया कदम है; सीजेआई की तरफ से एक समिति का गठन और उन्होंने जो सतर्कता दिखाई है, वह भी एक ऐसा कारक है जिस पर विचार करने की जरूरत है; न्यायपालिका और विधायिका जैसी संस्थाएं अपने उद्देश्य को सबसे अच्छी तरह से पूरा करती हैं जब उनका इन-हाउस तंत्र प्रभावी, तेज और जनता के विश्वास को बनाए रखता है; हमें समिति की रिपोर्ट का इंतज़ार करना होगा, इसके बाद ही हमें अपने विचार के लिए पूरी चीज़ें मिल पाएंगी”।लेखक
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सच यह था कि चीफ जस्टिस खन्ना ने कोई पारदर्शिता नहीं दिखाई थी। कल धनखड़ जी ने साफ़ कहा कि “जस्टिस वर्मा के घर से मिले नोटों के मामले में FIR नहीं होने को न्यायाधीशों को कानून से ऊपर समझने का प्रमाण दिया है। आग लगने के 7 दिनों तक मामले को दबा कर रखा गया। CJI द्वारा 3 जजों की समिति बनाने पर भी उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि समिति को जांच करने का क्या अधिकार है, जो केवल सिफारिश कर सकती है। जाँच का अधिकार सिर्फ कार्यपालिका को है और वह प्रक्रिया FIR से शुरू होती है लेकिन न्यायपालिका ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि न्यायाधीशों ने खुद को सुरक्षित कर लिया है” यही बातें मैंने कही थी, आप मेरा लेख पढ़ सकते हैं।
धनखड़ जी ने न्यायपालिका को जो कल आईना दिखाया है उसमें न्यायपालिका को अपना काला चेहरा देखना चाहिए। उन्होंने सही लताड़ मारी है कि न्यायपालिका का व्यवहार सुपर संसद जैसा है और राष्ट्रपति की शक्तियों में हस्तक्षेप है। न्यायपालिका के व्यवहार की कोई जवाबदेही नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 142 को लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ परमाणु मिसाइल की तरह उपयोग किया जा रहा है।
सबसे बड़ी बात धनखड़ ने कही कि संविधान पीठ को संविधान की व्याख्या करने का अधिकार दिया गया था लेकिन उस वक्त सुप्रीम कोर्ट में केवल 8 जज थे लेकिन अब 34 जजों में से अल्पमत के 5 जज संविधान की व्याख्या कर रहे हैं। न्यायाधीश केशवानंद भारती में मूल संरचना के फैसले की आड़ में सुप्रीम कोर्ट के जज खुद को संरक्षक मानने लगे हैं। लेकिन केशवानंद भारती केस के दो साल बाद ही इमरजेंसी लगा दी गई थी और सुप्रीम कोर्ट मूक दर्शक बना बैठा रहा।
उपराष्ट्रपति ने दो जजों द्वारा राष्ट्रपति को आदेश देने पर घोर आपत्ति प्रकट की। आप यह कैसे कर सकते हैं?
न्यायपालिका की चूलें हिल चुकी है और वह जनता का विश्वास खो चुकी है। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें न्यायपालिका दखल नहीं देती। अगर ध्यान से देखा जाए तो अब तक विभिन्न हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जितने मामलों में नई नई व्याख्या कर चुके हैं, उन्हें यदि एकत्र किया जाए तो वर्तमान संविधान से 5 गुना बड़ा संविधान लिखा जा सकता है।
उपराष्ट्रपति के संबोधन में साफ़ इशारा है कि संसद द्वारा पारित किए गए कानूनों की आप विवेचना तो कर सकते हो लेकिन उस कानून को खारिज नहीं कर सकते।
जस्टिस परदीवाला और जस्टिस महादेवन के आदेश पर और लोकपाल की दो जजों के भ्रष्टाचार की जांच पर रोक लगाने पर CJI खन्ना का मौन संदेहास्पद है।
अति का अंत अवश्य होता है। सुप्रीम कोर्ट अब अति कर चुका है और अब लग रहा है इसका उपचार भी होकर रहेगा।
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