कल(अप्रैल 16) की सुनवाई में चीफ जस्टिस संजीव खन्ना को यह तड़प थी कि वर्षों पुरानी मस्जिदों और अन्य संपत्तियों के कागज वक़्फ़ बोर्ड कहां से लाएगा? खन्ना जी यह बात कह कर यह तो इशारा नहीं कर रहे कि ज्ञानवापी परिसर और मथुरा जन्मभूमि मंदिर पर वो मुसलमानों का अधिकार सिद्ध करना चाहते हैं? अगर ऐसा है तो यह सोच बहुत खतरनाक है।
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इस मामले की सुनवाई 2 कारणों से करनी ही नहीं चाहिए थी।
पहला, डी वाई चंद्रचूड़ की सुप्रीम कोर्ट में कही हुई बात। उन्होंने अश्वनी उपाध्याय की वक़्फ़ कानून को चुनौती देने वाली याचिका को सुनने से मना करते हुए कहा था कि “Constitutionality of legislation cannot be challenged in the abstract which will be merely academic excercise. आप इस कानून से कैसे प्रभावित हैं, क्या आपकी कोई संपत्ति इस कानून से छीनी गई है? हमें सावधान रहना होगा जब संसद द्वारा पारित किए गए किसी कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई हो तो हमारे सामने कोई पीड़ित पक्ष तथ्यों के साथ होना चाहिए”।
यानी जो कानून वर्षों से चल रहा है, उसे भी चुनौती नहीं दे सकते और वर्तमान कानून तो अभी पैदा ही हुआ है। किस वक़्फ़ बाई यूजर पर यह लागू होगा, अभी देखना बाकी है। खन्ना जी को याचिकर्ताओं से पूछना चाहिए था कि वक़्फ़ के संपत्ति जो मुस्लिम नेताओं ने हड़पी हुई हैं, उन पर कोई खतरा है?
CJI खन्ना ने एक सवाल यह भी सरकार से पूछा कि क्या आप हिंदू मंदिरों में मुस्लिमों को रख सकते हैं। उन्हें पता नहीं ऐसा होता रहा है और 2013 के कुंभ का मैनेजर मुस्लिम आज़म खान बनाया गया था। तिरुपति मंदिर बोर्ड का अध्यक्ष दो बार ईसाई था। ममता बनर्जी ने भी मंदिर के बोर्ड का अध्यक्ष मुसलमान को बनाया था और तमिलनाडु सरकार मंदिरों का धन लूट कर मुसलमानों और चर्चों को दे रही है।
खन्ना जी, हिंदू मंदिर और संस्थाएं किसी की संपत्ति नहीं हड़पते जबकि वक़्फ़ बोर्ड ने हजारों संपत्तियां हिंदुओं और अन्य धर्मों के लोगों की हड़पी हुई हैं, इसलिए गैर मुस्लिम वक़्फ़ बोर्ड में रखे गए हैं।
जस्टिस खन्ना ने वक़्फ़ संशोधन पर हो रही हिंसा पर चिंता जताई और इतना कहा कि हम पर हिंसा फैला कर दबाव न बनाया जाए। आपको तो सुनवाई ही रोक देनी चाहिए थी क्योंकि सभी याचिकाकर्ता बंगाल की हिंसा को मौन स्वीकृति दिए हुए हैं।
वैसे जस्टिस खन्ना को याद करा दूं आपकी अध्यक्षता वाली पीठ ने 10 दिन पहले नोएडा में एक सिविल केस को क्रिमिनल केस में बदलने पर कहा था कि “उत्तर प्रदेश में कानून का शासन ध्वस्त हो गया है” यानी एक छोटे से केस से पूरे प्रदेश को कलंकित कर दिया। अब आपको बंगाल में “कानून का शासन” सही दिखाई दे रहा है क्या? वहां के “कानून के शासन” को जंगल का कानून कहने की हिम्मत क्यों नहीं की?
जस्टिस खन्ना वक़्फ़ को छोड़िए, अभी जो क्लेश आपके पास पहले से चल रहे हैं, उनसे निपटिए। जस्टिस वर्मा के मामले में 3 जजों की रिपोर्ट का क्या हुआ; आपके 2 जजों ने राष्ट्रपति पर हुक्म चलाते हुए संविधान में संशोधन कर दिया और आपने एक हफ्ते में भी जजो की संपत्ति सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर नहीं डाली।
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