
मुस्लिम समाज में सुन्नी और शिया दोनों मिलकर मोहर्रम मनाते हैं। हालांकि दोनों के तरीकों में फर्क होता है। इस्लाम धर्म में रमजान के बाद मोहर्रम के महीने को दूसरा सबसे पाक महीना माना जाता है।
मोहर्रम पर मातम मनाने और तलवार लहराने को देवबंदी उलेमाओं ने नाजायज बताया. सहारनपुर के देवबंदी उलेमाओं का कहना है कि मोहर्रम के पाक महीने के अवसर पर नंगी तलवारें लहराना और मातम करना, अखाड़े बाजी करना ये सब इस्लाम में नाजायज है.
देवबन्दी उलेमाओं ने कहा कि मोहर्रम एक मुबारक महीने में आता है. उन्होंने बताया कि इसमें हमारे इस्लाम और शरीयत ये नहीं कहता की तलवारों के साथ मातम किया जाए, इसलिए ये नाजायज हैं.
‘ये उलेमा आतंक का चेहरा’-- वसीम रिजवी, शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष
पश्चिम बंगाल में मुस्लिम उलेमा और नेताओं ने समुदाय से अपील की थी कि मुहर्रम के जुलूस के दौरान हथियार ले जाने से परहेज करें. शहर की मुख्य मस्जिद नखोडा के इमाम मौलाना मोहम्मद शफीक कासमी ने गुरुवार को कहा कि उन्होंने समुदाय के लोगों से अपील की है कि वह शुक्रवार को मुहर्रम के दौरान हथियारों के साथ जुलूस निकालने से बचें, क्योंकि यह इस्लाम के खिलाफ है. मौलाना कासमी ने कहा, ‘‘हमारे इस्लामी कानूनों में कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं है कि मुहर्रम के दौरान हथियारों के साथ जुलूस निकालना चाहिए.’’
मोहर्रम क्यों मनाते हैं
मोहर्रम को इमाम हुसैन की शहादत का प्रतीक माना गया है। इस दिन मुसलमान इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए शोक मनाते हैं और अपनी हर खुशी को त्याग देते हैं।
आज से तकरीबन 1400 साल पहले की बात है, सन् 61 हिजरी के मोहर्रम का महीना था, जब हजरत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उनके 72 साथियों के साथ बहुत बेदर्दी से कर्बला इराक के बयाबान में जालिम यजीदी फौज ने शहीद कर दिया था।
कहा जाता है कि इराक में यजीद नाम का जालिम बादशाह हुआ करता था जो इंसानियत का दुश्मन था। और तो और यजीद खुद को खलीफा मानता था और वह अल्लाह को भी नहीं मानता था।
यजीद चाहता था कि हजरत इमाम हुसैन उसके गुट में शामिल हो जाएं लेकिन हुसैन को यह मंजूर नहीं था और उन्होंने यजीद के विरुद्ध जंग का ऐलान कर दिया था। सन् 680 में कर्बला नामक स्थान मे एक धर्म युद्ध हुआ, जो पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती तथा इब्न ज़्याद के बीच हुआ।
इस धर्म युद्ध में वास्तविक जीत हज़रत इमाम हुसैन की हुई। पर जाहिरी तौर पर इब्न ज़्याद के कमांडर शिम्र ने हज़रत हुसैन रज़ी० और उनके सभी 72 साथियो (परिवार वालोद्) को शहीद कर दिया था। जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे।
तभी से तमाम दुनिया के ना सिर्फ़ मुसलमान बल्कि दूसरी क़ौमों के लोग भी इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उनकी याद करते हैं और शोक मनाते हैं।
शिया करते हैं मातम
शिया समुदाय के लोग 10 मोहर्रम के दिन तक काले कपड़े पहनकर खूनी मातम करते है। मातम के दौरान इमाम हुसैन को याद करते हुए अपने शरीर पर बार करते हैं। 10 मोहर्रम को आशूरा भी कहा जाता है।
10 मोहर्रम के दिन मुस्लिम समाज के लोग इमाम हुसैन की याद में बने ताजिए को कर्बला पर लेजाकर शहीद कर देते हैं। इस इस्लामी महीने में मुस्लिम सुदाय के लोग शादी- विवाह में शिरकत नहीं करते।
सुन्नी रखते हैं रोज़ा
वहीं मुस्लिम समाज में सुन्नी समुदाय के लोग इस इस्लामी महीने में 10 मोहर्रम के दिन तक रोज़ा रखते हैं। सुन्नी समुदाय के लोग शिया समुदाय के लोगों की तरह मातम नहीं करते।
इमाम हुसैन के साथ कर्बला में शहीद हुए लोगों को याद किया जाता है और उनकी आत्मा का शांति के लिए दुवा की जाती है। 61 हिजरी में शहीद हुए लोगों को एक तरह से यह श्रद्धांजलि देने का तरीका है।
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