अल्पमत की महिला जज क्या सही थीं- सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने 4:1 के बहुमत से महिलाओं के हक में 28 सितंबर को फैसला दिया था जिस पर महिला जज इंदु मल्होत्रा ने असहमति व्यक्त की थी. सीनियर एडवोकेट से सीधे सुप्रीम कोर्ट की जज बनीं जस्टिस मल्होत्रा ने 74 पेज के पृथक फैसले में अनेक महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर अपनी राय प्रकट की थी. उनके अनुसार संविधान के अनुच्छेद 14 के समानता के सिद्धांत को मंदिर और परंपराओं में नहीं लागू किया जा सकता. उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अयप्पा के 1000 अन्य मंदिरों में अनावश्यक विवाद बढ़ेंगे. जस्टिम मल्होत्रा द्वारा दिए गए तर्कों के आधार पर फैसले के बाद श्रद्धालुओं ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की, जिस पर छुट्टियों के बाद सुनवाई होगी.
सबरीमाला मामले में संवैधानिक प्रावधानों की गलत व्याख्या
वरिष्ठ वकील के. राममूर्ति ने एमिकस क्यूरी के तौर पर सबरीमाला मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप का विरोध किया था. उनके अनुसार संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत होटल और दुकानों की तर्ज पर मंदिरों में प्रवेश के नियम सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय नहीं किए जा सकते. अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता को परंपराओं की विविधता के अधिकार से एमिकस क्यूरी ने जोड़ा.
अवलोकन करें:--
उत्तराखंड में पीआईएल पर जजों के अजीबोगरीब फैसले
उत्तराखंड हाईकोर्ट के जजों ने पीआईएल में अजब फैसले दिए, जिनका क्रियान्वयन नामुमकिन है. गंगा नदी और हिमालय के ग्लेशियर को विधिक व्यक्ति का दर्जा देकर अदालत ने खुद को स्वयंभू संरक्षक भी नियुक्त कर लिया. एक अन्य फैसले में जजों ने हवा, पानी और पृथ्वी में रहने वाले सभी जीवों को विधिक व्यक्ति का दर्जा देते हुए उन्हें मनुष्यों की तरह अधिकार दे दिए. ऐसे फैसले मीडिया की सुर्खियां बन जाते हैं पर इन्हें लागू करने का सिस्टम नहीं बनने से, अदालती फैसले कानून की भीड़ में गुम हो जाते हैं.
संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत पीआईएल का बढ़ता दुरुपयोग
अध्याय 3 में दिए गए मूल अधिकारों के प्रावधान को डॉ. आम्बेडकर ने संविधान की आत्मा बताया था. इन अधिकारों की सुरक्षा के लिए अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट और अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल का अधिकार लोगों को दिया गया. अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार और अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के मामले गढ़ कर पीआईएल दायर करने के बढ़ते रिवाज से न्यायिक फैसलों का रसूख कम हो रहा है. पीआईएल में सरकार से राहत की मांग की जाती है. इसलिए सबरीमाला जैसे मंदिरों के निजी प्रशासन के खिलाफ पीआईएल के फैसले को लागू करने की चुनौती, अदालतों के लिए एक सबक है.
सती और नरबलि की कुरीति से सबरीमाला की तुलना क्यों
राजा राममोहन राय और स्वामी दयानंद के समय से समाज और धर्म की अनेक कुरीतियों के खात्मे के लिए कानून बनाने का सिलसिला जारी है. सती, जौहर, नरबलि और पशुबलि जैसी परंपरायें मनुष्यता के विरुद्ध अपराध थीं, जिनके विरुद्ध कानून बनना ही चाहिए था. बाल विवाह, भ्रूण हत्या, तीन तलाक और हलाला जैसे मामलो में भी न्यायिक हस्तक्षेप जरूरी था.
धार्मिक विधि-विधान परंपराओं से चलते हैं, जिन्हें तर्क और कानून की कसौटी पर कसने से पैदा हुए न्यायिक कुतर्क लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं हैं. समाज में अनेक उत्सवों में सिर्फ महिलाओं की भागीदारी होती है तो क्या उनमें पुरुषों के प्रवेश के लिए न्यायिक नियम बनाना चाहिए? मिस इंडिया जैसे प्रतियोगिताओं के लिए लड़कियों की उम्र, रंग, सुंदरता और फिगर के लिए अनेक मापदंड बने हैं तो क्या उन्हें अदालत में चुनौती दी जा सकती है? सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं को प्रवेश का अधिकार मिले, इस पर न्यायिक फैसले की बजाय सामाजिक प्रयासों से सहमति बने तभी देश में लाठी की बजाय, कानून का राज होगा.
(लेखक विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
---साभार
No comments:
Post a Comment