आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
जो शहीद हुए है उनकी
जरा याद करो कुर्बानी
आज सत्ता हाथ से जाने उपरान्त कांग्रेस अध्यक्ष एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर जाकर अपना माथा टेक रहे हैं। आज 7 नवम्बर है, कांग्रेस में विराजमान समस्त हिन्दू क्या अपने अध्यक्ष से यह पूछने का साहस कर सकते हैं कि "क्यों तुम्हारी दादी ने 7 नवम्बर 1966 के दिन गौ-हत्या पर प्रतिबन्ध की मांग कर रहे साधुओं पर गोलियां चलवाकर पार्लियामेंट स्ट्रीट को साधुओं के खून में लाल कर दिया था?" उस दिन गोपाष्टमी थी। हिन्दू साधुओं की पार्लियामेंट स्ट्रीट पर खून से लतपत बिछी लाशों को देख कृपालुजी महाराज ने इन्दिरा गाँधी को श्राप दिया था, "इन्दिरा तेरी मौत भी गोपाष्टमी के दिन होगी।" संयोगवश, 31 अक्टूबर 1984 को गोपाष्ठमी ही थी। फिर संयोगवश, आज 7 नवम्बर 2018 को दीपावली है। यानि गोपाष्ठमी केवल आठ दिन दूर।
क्या आपको पता है कि 7 नवंबर की तारीख हिंदुओं के एक नरसंहार के साथ जुड़ी हुई है? 1966 में इसी तारीख को तब की इंदिरा गांधी सरकार ने दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हजारों साधु-संतों को गोलियों से भुनवा दिया था। ये साधु-संत कानून बनाकर देश में गोहत्या पर पूरी तरह से पाबंदी की मांग कर रहे थे। एक अनुमान के मुताबिक इस बर्बर हत्याकांड में करीब 5000 साधु संत मौत के घाट उतार दिए गए थे। मरने वालों में सैकड़ों महिलाएं और बच्चे भी थे। हालांकि सरकारी तौर पर संख्या सिर्फ 250 के करीब बताई गई। इस घटना की कवरेज कर चुके दिल्ली के पत्रकार मनमोहन शर्मा के मुताबिक ये पूरा हत्याकांड तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इशारे पर हुआ था। मनमोहन शर्मा इस बात की पुष्टि करते हैं कि तब के गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा को इस फायरिंग का कुछ अता-पता तक नहीं था। इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी सरकार ने आंदोलन का दमन करने के लिए खास तौर पर जम्मू-कश्मीर की पुलिस को बुलाया था, क्योंकि उन्हें शक था कि दिल्ली पुलिस निहत्थे साधुओं पर गोली चलाने से इनकार कर सकती है।
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क्या कांग्रेसी हिन्दू गो मांस की इस तरह दावत के लिए कांग्रेस का साथ देंगे? |
जरा याद करो कुर्बानी
आज सत्ता हाथ से जाने उपरान्त कांग्रेस अध्यक्ष एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर जाकर अपना माथा टेक रहे हैं। आज 7 नवम्बर है, कांग्रेस में विराजमान समस्त हिन्दू क्या अपने अध्यक्ष से यह पूछने का साहस कर सकते हैं कि "क्यों तुम्हारी दादी ने 7 नवम्बर 1966 के दिन गौ-हत्या पर प्रतिबन्ध की मांग कर रहे साधुओं पर गोलियां चलवाकर पार्लियामेंट स्ट्रीट को साधुओं के खून में लाल कर दिया था?" उस दिन गोपाष्टमी थी। हिन्दू साधुओं की पार्लियामेंट स्ट्रीट पर खून से लतपत बिछी लाशों को देख कृपालुजी महाराज ने इन्दिरा गाँधी को श्राप दिया था, "इन्दिरा तेरी मौत भी गोपाष्टमी के दिन होगी।" संयोगवश, 31 अक्टूबर 1984 को गोपाष्ठमी ही थी। फिर संयोगवश, आज 7 नवम्बर 2018 को दीपावली है। यानि गोपाष्ठमी केवल आठ दिन दूर।

इंदिरा ने किया था गोहत्या पर रोक का वादा
1966 में लोकसभा चुनाव हुए थे। नेहरू और लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा प्रधानमंत्री बन तो गई थीं, लेकिन वो ज्यादा लोकप्रिय नहीं थीं। उन्हें चुनाव में हार का डर सता रहा था। तब जीत के लिए उन्होंने हिंदू कार्ड चला और तब के मशहूर संत स्वामी करपात्री जी महाराज से आशीर्वाद लेने पहुंच गईं। करपात्री महाराज ने कहा कि वो उन्हें विजय का आशीर्वाद तभी देंगे जब वो देश में गोहत्या पर पूरी तरह से पाबंदी लगाने का वादा करें। इंदिरा गांधी ने फौरन इसे स्वीकार कर लिया। चुनाव में संत समाज ने इंदिरा गांधी का भरपूर समर्थन किया, लेकिन चुनाव जीतने के बाद इंदिरा अपना वादा भूल गईं। संतों को लगने लगा कि इंदिरा ने सिर्फ वोट के लिए उनसे छल किया गया है। नवंबर 1966 में स्वामी करपात्रीजी महाराज की अगुवाई में संतों ने बोट क्लब पर अनशन शुरू किया। इंदिरा गांधी ने उनकी मांगों को मानने से साफ इनकार कर दिया। 7 नवंबर को लाखों की संख्या में भूखे-प्यासे संतों ने बोट क्लब से संसद की तरफ पैदल मार्च शुरू किया। उस समय के अखबारों के अनुसार दिल्ली में देशभर से कम से कम 10 लाख आम लोग और संत जमा हो चुके थे। संतों ने संसद का घेराव शुरू कर दिया।
पार्लियामेंट स्ट्रीट पर एतिहासिक खून-खराबा
संसद भवन के पास एकजुट साधु-संतों पर पूर्वनियोजित तरीके से हमला किया गया। उनके मुताबिक इंदिरा गांधी के इशारे पर ही कुछ गुंडों ने भीड़ में शामिल होकर तब के कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज का घर और कुछ दूसरी सरकारी इमारतों में आग लगा दी। इसके बाद इंदिरा गांधी ने पुलिस को गोली चलाने का आदेश दे दिया। जो जहां दिखा उसे गोली मार दी गई। यहां तक कि महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों पर भी रहम नहीं की गई। मनमोहन शर्मा के मुताबिक उस समय वो संसद भवन के अंदर चल रही कार्यवाही की रिपोर्टिंग कर रहे थे। खबर मिलने पर वो बाहर आए तो देखा कि पूरा संसद मार्ग खून से लथपथ हो चुका था। सैकड़ों की संख्या में यहां-वहां लाशें बिछी हुई थीं। उन्होंने एक अस्पताल में घुसने में कामयाबी पाई और अपनी आंखों से देखा कि वहां के मुर्दा घर के बाहर कुछ घंटों के अंदर ही 372 लाशें लाई जा चुकी थीं। ज्यादातर लोगों के सिर और छाती में गोली लगी थी। इसके अलावा हजारों लोगों की लाशों को ट्रकों में लादकर दिल्ली के बाहर ले जाकर पेट्रोल डालकर आग लगा दी गई। सभी जानते हैं कि ये कार्रवाई इंदिरा गांधी के आदेश के बिना संभव नहीं थी। लेकिन इंदिरा गांधी ने इसके लिए तब के गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा को बलि का बकरा बनाकर उनका इस्तीफा ले लिया।
मीडिया पर खबर देने से पाबंदी लगाई गई
तब की इंदिरा गांधी सरकार ने फोन करके सभी अखबारों और समाचार एजेंसियों को साफ निर्देश दे दिया था कि वो उतना ही छापें जितना सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है। इस औपचारिक बयान में कहा गया था कि “साधु-संतों ने संसद भवन पर हमला कर दिया था और वो संसद भवन में आग लगाने की कोशिश कर रहे थे। इसलिए न्यूनतम बल का प्रयोग किया गया, जिसमें 11 दंगाइयों की मौत हो गई।” सभी अखबारों ने बस इतना ही छापा। तब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी संसद में विपक्ष के नेता के तौर पर हुआ करते थे, लेकिन उन्होंने भी इस अत्याचार पर कभी आवाज नहीं उठाई। यहां तक कि अपनी पार्टी के बाकी नेताओं को भी इस मसले पर बोलने से मना कर दिया। मनमोहन शर्मा के मुताबिक आंदोलन की अगुवाई करने वाले करपात्री महाराज से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ मतभेद थे। उस समय संघ ने भी इस हत्याकांड पर चुप्पी बनाए रखी, लेकिन कुछ ही दिन बाद उसने अपनी पत्रिकाओं ऑर्गनाइज़र और पांचजन्य में घटना का पूरा वर्णन छापा। इतनी बड़ी घटना के बावजूद कभी हिंदू समाज में कोई गुस्सा या नाराजगी देखने को नहीं मिली। कहा जाता है कि उन दिनों इंदिरा गांधी का जलवा ऐसा था कि कोई भी संगठन या संस्था उनसे सीधे तौर पर टकराव लेने से बचता था। इन्हीं परिस्थितियों का नतीजा हुआ कि आजाद भारत में हिंदुओं का ये सबसे बड़ा नरसंहार हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों से मिटा दिया गया।
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