
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति - (कठोपनिषद्, अध्याय 1, वल्ली 3, मंत्र 14)। उतिष्ठित, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत् यानी उठो जागो और तबतक चलते रहो जबतक की लक्ष्य की प्राप्त नहीं हो जाए। यह सूक्ति वह युवाओं को प्रेरित करने के लिए कहते थे।
विद्वानों का कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना । उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत। स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि अपने देशवासी समाज के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं के प्रति सचेत हों और उनके निराकरण का मार्ग अवश्य खोजें ।
दुनिया के महानतम संतों में शुमार होनेवाले स्वामी विवेकानंद को वेद की यह सूक्ति बड़ी प्रिय थी और इसका जिक्र उन्होंने युवाओं को प्रेरित करने के लिए बार-बार किया है। वेदों की एक और सूक्ति हैं- 'चरैवेति-चरैवेति' यानी चलते रहो, चलते रहो। यानी जीवन रूकने का नहीं बल्कि चलने का नाम है और मकसद तो चलने से ही हासिल होता है।
वह यही कहना चाहते थे कि हर स्थिति और परिस्थिति में आगे ही बढ़ते जाने का नाम जीवन है। जीवन में निराश और हताश होकर लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। जो हमारा समय निकल गया उसकी चिंता छोड़े। जो जीवन शेष बचा है उसके बारे में विचार करे। स्वामी जी ने इसी संदर्भ में खुद पर आत्मविश्वास और विश्वास करने की बात कही थी। उनके विचार आज भी युवाओं में ऊर्जा का संचार करते हैं।
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