आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
बसपा और भाजपा के बीच आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर बयानबाजी जारी है और दोनों ही खेमों से एक-दूसरे के खिलाफ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आरोप लगाए जा रहे हैं वहीं उन पर पलटवार भी किए जा रहे हैं। ताजा घटनाक्रम में ट्विटर पर उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच आरोप और उस पर पलटवार का दौर चला। बात दरअसल 'चौकीदार' (Chowkidar) की हो रही थी जिस पर मायावती ने तंज कसते हुए ट्वीट किया और उस पर योगी ने भी पलटवार करते हुए उन्हें जवाब दिया। बसपा सुप्रीमो मायावती के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा 'चौकीदार के अलर्ट रहने से चोर बेचैन और असहज हो गये हैं।'
बसपा सुप्रीमो ने कहा था कि भाजपा चुनाव हार रही है और हारने के बाद योगी चौकीदारी कर सकते हैं। मायावती ने मार्च 22 की सुबह ट्वीट कर कहा, 'भाजपा वाले चाहे जो फैशन करें बस संविधान-कानून के रखवाले बनकर काम करें, जनता बस यही चाहती है।'
उन्होंने ट्वीट किया था, 'भाजपा के मंत्री और नेतागण पीएम श्री मोदी की देखादेखी 'चौकीदार' बन गये हैं। पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जैसे लोग बड़ी दुविधा में हैं कि क्या करें? जनसेवक/योगी रहें या अपने को चौकीदार घोषित करें। बीजेपी वाले चाहे जो फैशन करें बस संविधान/कानून के रखवाले बनकर काम करें, जनता बस यही चाहती है।'
जिन लोगों ने प्रदेश के संसाधनों में लूट खसोट मचाई थी, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान स्थापित किये थे, चौकीदार के चौकन्ने होने से उन्हें अपार वेदना होगी यह देखा और समझा जा सकता है। प्रदेश की जनता ऐसे भ्रष्टाचारियों से अवश्य सचेत रहे।
बीजेपी के मंत्री व नेतागण पीएम श्री मोदी की देखादेखी ’चौकीदार’ बन गये हैं। पर यूपी के सीएम जैसे लोग बड़ी दुविधा में हैं क्या करें? जनसेवक/योगी रहें या अपने को चौकीदार घोषित करें। बीजेपी वाले चाहे जो फैशन करें बस संविधान/कानून के रखवाले बनकर काम करें, जनता बस यही चाहती है।
मायावती के ट्वीट पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मार्च 22 को गोरखपुर में कहा, 'चौकीदार के अलर्ट होने से चोर बेचैन और असहज हो गये हैं । 'उन्होंने कहा, 'मैं और पूरा प्रदेश मायावतीजी की चिंता और बेचैनी को अच्छी तरह से समझते हैं, क्योंकि उनके कार्यकाल में लूट और भ्रष्टाचार के नये रिकार्ड बने थे और अब जब चौकीदार के अलर्ट होने से यह सब बंद हो गया है तो वह असहज महसूस कर रही हैं । चूंकि पूरा देश अलर्ट है इसलिए जिन्होंने देश के संसाधनों को लूटा था उन्हें अब परेशानी हो रही है ।'
चौकीदार के अलर्ट होने से चोर बेचैन
उन्होंने कहा, 'पूरे देश में हर जगह चौकीदार है और चौकीदार पूरी तरह से अलर्ट है और चोर असहज महसूस कर रहे हैं । वास्तव में हर सजग नागरिक चौकीदार है और चूंकि मैं योगी हूं इसलिए मैं धर्म, समाज और संस्कृति का चौकीदार हूं और एक मुख्यमंत्री होने के नाते मैं प्रदेश का चौकीदार हूं ।'
फिल्में और चौकीदार
बात चौकीदार की चली है, तो थोड़ा फिल्म जगत का रुख कर लें। 80 के दशक में स्वतन्त्र पत्रकारिता का श्रीगणेश फिल्म लेखों से किया था। जिसमें कुछ लेख जैसे : "अनारकली कौन थी?", "राजनीति में फिल्म कलाकारों का दखल", "समाज का आईना दर्शाती फिल्में" और "कंगाल मरती फ़िल्मी हस्तियाँ" आदि लेख बहुत चर्चित हुए थे। 'अनारकली कौन थी?' लेख के प्रकाशन ने 'अनारकली' और 'मुग़ल-ए-आज़म', जिन्हें दर्शक इतिहास फिल्में मानते थे, जनता के इस भ्रम को तोडा था। फिल्में जो केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं, बल्कि समाज का आईना होती है। जीवन की वास्तविकता को दर्शाती अशोक कुमार, सुनील दत्त और नूतन अभिनीत "मेहबान", निर्माता-निर्देशक और अभिनेता गुरुदत्त और वहीदा रहमान अभिनीत "कागज के फूल" और बॉलीवुड के चर्चित "शो मैन" राजकपूर की "मेरा नाम जोकर" आदि उल्लेखनीय फिल्में हैं।
हालाँकि राजेश खन्ना की 'अमृत', 'अवतार' और अमिताभ बच्चन अभिनीत 'बाग़बान', फिल्म "मेहबान" का ही रीमेक कहा जा सकता है। इसी तरह 80 के दशक में अभिनेता सुनील दत्त ने फिल्म समीक्षकों की कल्पनाओं से बहुत दूर दहेज़ प्रथा पर बहुत ही चर्चित एवं मार्मिक फिल्म "ये आग कब बुझेगी" का निर्माण किया था, जबकि इसी दहेज़ उत्पीड़न समस्या पर लगभग 60 दशक के अंत में व्ही शान्ताराम ने पृथ्वीराज कपूर अभिनीत फिल्म "दहेज़" का निर्माण किया था। इस फिल्म में शान्ताराम ने दहेज़ की ज्वलन्त समस्या को उजागर किया था। एक बाप अपनी बेटी की शादी में लाख अपनी हैसियत से ज्यादा दहेज़ दे दे, लेकिन दहेज़ लालची फिर भी बेटी बताकर लाये अपनी बहु को कम दहेज़ लाने पर कितना प्रताड़ित करते हैं। बाप द्वारा सूचना देकर जाने पर बेटी को बहुत प्यार और दुलार के साथ व्यवहार करते दर्शाया जाता है, लेकिन एक दिन जब बिना किसी पूर्व सूचना के बाप अपनी पुत्री से मिलने जाता है, तब बेटी को कम दहेज़ लाने की आग में जलता देख, रोता बाप बेटी से मिले बिना लौट, अपना सबकुछ बेच बैंड-बाजे के साथ खूब दहेज़ लेकर जब तक बेटी के दरवाज़े पहुँचता है, तब तक बहुत देर हो चुकी है, दरवाज़े पर बेटी की लाश देख, विवश बाप(पृथ्वीराज) कहता है, "बेटी देख, तेरे लिए कितना दहेज़ लाया हूँ, बस कफ़न नहीं लाया।" देखिए कितना दर्दनाक था यह दृश्य, फिर भी भारत में दहेज़ की समस्या वहीँ की वहीँ है।
1974 में एक फिल्म आई थी, ‘चौकीदार’। शंभू नाम के चौकीदार की भूमिका में जाने-माने एक्टर ओमप्रकाश थे। साहूकार के सताए गरीबों के हमदर्द और खैरख्वाह। कहानी में ट्विस्ट आता है साहूकार के बेटे को चौकीदार की बेटी से प्यार हो जाता है। फिर कहानी आगे बढ़ती है और ज्यादातर हिन्दी फिल्मों की तरह कहानी का सुखद अंत हो जाता है।
हिन्दी फिल्मों में अक्सर ऐसा ही होता है। गरीबी का कोई भी प्रतीक आमतौर पर ईमानदार दिखाया जाता है, जबकि समृद्धि, सत्ता और सिस्टम से जुड़े प्रभावशाली हिस्से की छवि ज्यादातर नकारात्मक ही होती है। शायद इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि मल्टीप्लेक्स कल्चर आने से पहले तक हिन्दी सिनेमा के दर्शकों का सबसे बड़ा हिस्सा उस अभावग्रस्त तबके से आता रहा है, जो अपनी ज्यादातर परेशानियों की वजह उस समृद्ध तबके की बेईमानी में देखता है, जो पर्दे पर आम लोगों के बीच से आए ‘गरीब’ लेकिन ‘माचो’ हीरो से पिटता है। पहले के ढाई घंटे तक उसके जुल्मो-सितम से दर्शक खुद के अंदर उसके लिए नफरत और बदले की आग में तपता है और आखिर के आधे घंटे में जब गरीबों का काल्पनिक नुमाइंदा (हीरो) सारा हिसाब चुकता करता है, तो सिनेमाघर में बैठा वास्तविक गरीब (दर्शक) बड़ी शिद्दत के साथ इस अहसास से गुजरता है जैसे कि असल जिंदगी में उसकी तकलीफों की वजह रहे शख्स से उसने बदला ले लिया है।
जिससे बदला लिया जाता है वो कभी नेता होता है तो कभी माफिया। कभी भ्रष्ट पुलिस वाला तो कभी कोई गुंडा डॉन। लेकिन सबसे ज्यादा बार पर्दे का वो नकारात्मक किरदार (विलेन)छोटा या बड़ा कोई राजनेता ही होता है।
चायवाले या चौकीदार से खुद को जोड़ने का लाभ
2014 में जब प्रधानमंत्री मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने, तो उनके पक्ष में कई बातें थीं। राजनीति में लंबा वक्त गुजारने के बावजूद उनकी छवि तब देश के सबसे बड़े विकास पुरुष की थी। मोदी में खुशहाल और दमखम वाले भारत की गारंटी दिखती थी। इस पर बहस अलग से हो सकती है कि ये चीजें हासिल कितनी हुईं? लेकिन हम फिलहाल बात कर रहे हैं चायवाले और चौकीदार के प्रतीकों के साथ मोदी जी को जोड़े जाने पर।
भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों की वजह से बदनाम हो चुकी यूपीए-टू सरकार के मुकाबले बेहद दमदार व्यक्तित्व होने के बावजूद 2014 में मोदी की पहचान एक चायवाले की शक्ल में भी गढ़ी गई। गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान इन्हें "मौत का सौदागर" कहा गया, लोकसभा चुनावों में "खून का दलाल" और न जाने अपशब्दों से कांग्रेस और इसके समर्थक दलों ने अपमानित किया। इसका फायदा भी मिला। क्यों? क्योंकि जो लोग सख्त प्रशासक और शासक मोदी के कायल थे, वे तो साथ रहे ही, उन करोड़ों गरीबों ने चायवाले की शक्ल में उन्हें अपने बीच का महसूस किया, जिनके हाथों में वोट की ताकत थी। साथ ही, इसके जरिये मोदी राजनेताओं के लिए गढ़ी उस छवि से भी बाहर निकल आए, जिसे आमतौर पर नकारात्मक रूप में ही देखा जाता है।
नरेन्द्र मोदी और लाल बहादुर शास्त्री में समानताएँ
स्मरण हो, लाल बहादुर शास्त्री का भी बचपन गरीबी में गुजरा था, भारत का प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य मिला। और जब देहान्त हुआ आजके नेताओं की तरह अपने परिवार के लिए तिजोरियाँ भरकर नहीं गए, विपरीत इसके परिवार पर क़र्ज़ छोड़कर गए। वह क़र्ज़ जो उन्होंने अपनी कार खरीदने के लिए पंजाब नेशनल बैंक से क़र्ज़ लिया था, की किश्तें। जिस तरह 1965 इंडो-पाक युद्ध के दौरान शास्त्री दो मोर्चों पर-- एक पाकिस्तान और दूसरे देश में छुपे बैठे पाकिस्तानियों से-- लड़ रहे थे, उसी भाँति मोदी भी उन्ही दोनों मोर्चों पर लड़ लड़ रहे हैं। जिस तरह लालबहादुर के समय भारत में पल रहे पाक समर्थक परेशान थे, उसी तरह मोदी से।
इसी सन्दर्भ में स्मरण आते हैं, केन्द्रीय मंत्री रहे रफ़ी अहमद किदवई के दो किस्से, जिनसे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल, भ्रष्ट और जमाखोर बहुत परेशान थे। जो पिताश्री एम.बी.एल.निगम से सुनने को मिलते थे। एक, एक बार गेहूँ जमाखोरों ने दाम बढ़ाने के चक्कर में सारा गेहूँ गोदामों में भर लिया, जनता परेशान थी। रफ़ी अहमद खाद्य मंत्री थे, उन्होंने नेहरू से चर्चा की, बातचीत विफल होते देख, उन्होंने नेहरू की मर्जी के विरुद्ध दिल्ली के रामलीला ग्राउंड से जनता को सम्बोधित करते कहा "मुझे आप केवल तीन दिन का समय दें, बाहर से गेहूं आते ही, सरकार अपनी गाड़ियों से गेहूं बेचेगी। और जिस दुकान पर गेहूं का एक भी दाना नज़र आने पर कठोर कार्यवाही की जाएगी", अगले ही दिन सडकों पर गेहूं आ गया। समय पूर्व ही समस्या का समाधान हो गया। दो, कम्युनिकेशन मंत्री होते एक गांव में मनीऑर्डर पर अतिरिक्त कमीशन यानि रिश्वत मांगे जाने की सूचना मिलते ही, तुरन्त उस गांव के डाकखाने में एक गरीब देहाती बन पहुँच गए। पोस्टमास्टर ने अतिरिक्त राशि न देने के चक्कर में अन्य आरोप में हवालात में बंद करवा दिया। देर रात तक रफ़ी साहब की खोज करने पर मालूम हुआ कि मंत्रीजी तो अपनी कार को जंगल में खड़ा करवा,खुद हवालात में ईंट पर बैठे हैं। उसी रात पूरा डाकखाना suspend कर दिया गया। सुबह का भी इंतज़ार नहीं किया।
चायवाले से चौकीदार में बदलाव क्यों?
मोदी की शक्ल में जो ‘चायवाला’ 2014 में आया था वह 5 साल प्रधानमंत्री रहने के बाद सत्ता के अधिकारों से दूर चायवाला ही बना नहीं रह सकता था। लेकिन दिक्कत ये थी कि सत्ता के अधिकारों को खुद में समेटने के साथ ही फिर से खतरा नकारात्मक छवि की तरफ जाने का था। ऐसे में एक किरदार सामने आया चौकीदार का। खुद में सत्ता की थोड़ी-सी ताकत समाहित रखने वाला ऐसा किरदार, जो शायद इस मायने में देश में अकेला वर्ग है, जिसकी छवि कुल मिलाकर ईमानदारी के एक प्रतीक की ही बनती है। जैसा कि फिल्म ‘चौकीदार’ में भी था।
खुद को चौकीदार कहकर नरेंद्र मोदी सत्ता की बुराइयों के बीच होते हुए भी अपने को न सिर्फ इससे अलग करते दिखे, बल्कि चौकीदार की शक्ल में 7 लोककल्याण मार्ग (प्रधानमंत्री निवास) पर मौजूद होने भर से सबकुछ ठीक से चलने और आगे भी चलते रहने का वादा और दावा किया।
2014 में चायवाले में देश के अभावग्रस्त वोटर्स ने खुद के बीच का आम इंसान देखा था, तो 2019 में चौकीदार के आईने में देश खुद को उतरता हुआ देखे, ऐसी कोशिश बीजेपी की है। देश ने ऐसा देखा या नहीं, इसका पता 23 मई को पड़ेगा।
क्या जनप्रतिनिधि ‘चौकीदारी’ का अपनी फर्ज निभा रहे हैं?
‘चौकीदार’ फिल्म का चौकीदार रुपहले पर्दे पर साहूकार की शक्ल में मौजूद समाज के बुरे प्रतीक से गरीबों को बचाता है। सवाल जरूर रहेगा कि लोकतंत्र में अगर हमने अपने जनप्रतिनिधियों को चौकीदार की शक्ल में बिठाया है, तो वह सत्ता या सामर्थ्य के बूते निरंकुश हो रही ताकतों से एक आम इंसान की कितनी रक्षा करते हैं? ये सवाल किन्हीं एक नरेंद्र मोदी से नहीं किया जा सकता। ये सवाल हर उस जनप्रतिनिधि से किया जा सकता है, जो हमारे वोट से चुनकर आते हैं और खुद को जनप्रतिनिधि कहते हैं। क्या वे समाज के मुट्ठी भर ताकतवर जमात से गरीबों को बचा पाते हैं?
चायवाले में फंसा विपक्ष चौकीदार के चक्रव्यूह में भी उलझा !
राहुल ने नारा दिया- ‘चौकीदार चोर है।’ कांग्रेस इस नारे पर निहाल हो रही थी। भाजपा ने उन्हीं का हथियार पलट कर दे मारा। कहा गया कि ये कांग्रेसी चौकीदार जैसे गरीबों की इज्जत कर ही नहीं सकते। ये 2014 चुनाव से पहले की उस घटना का दोहराव है, जब मणिशंकर अय्यर ने कह दिया था कि- ''अगर मोदी यहां (कांग्रेस की बैठक में) चाय बेचने आते हैं, तो कांग्रेस उनका स्वागत करेगी।'' तब भी भाजपा ने इसे तमाम चायवाले और उससे भी आगे तमाम गरीबों का अपमान माना था।
फिर बात आयी पकोड़ों पर, कांग्रेस तो क्या मोदी विरोधी तक कहते हैं, कि "क्या युवा पढ़-लिखकर पकोड़े बेचेगा?" इसका भी भाजपा ने यह कहकर विरोधियों को जवाब दिया कि "वह रोजगार पाने के साथ-साथ एक/दो भी रोजगार देगा।"
आमिर खान की फिल्म‘पीके’में एक सीन था। एलियन के किरदार में आमिर अपने गालों पर कुछ देवी-देवताओं की तस्वीरें चस्पा कर लेते हैं। क्योंकि उस एलियन को ये समझ में आ जाता है कि इन देवी-देवताओं को देख कोई उन्हें तमाचा नहीं लगाएगा। बीजेपी ने 2014 में चायवाला और 2019 में चौकीदार को खुद के साथ चस्पा कर लिया। लेकिन कांग्रेस समेत कुछ और विपक्षी पार्टियां नादानी कर बैठीं। भूल गईं कि जब चुनाव करीब हो, तो गरीबों से जुड़े ये प्रतीक वोटर होने के नाते देवी-देवताओं से कमतर नहीं होते। इनसे या इनके नाम के साथ कोई भी बदसलूकी भगवान के साथ बदसलूकी मानी जा सकती है। जिस तरह से ‘चौकीदार चोर है’ के जवाब में बीजेपी ने पलटकर कांग्रेस को घेरा है, उससे तो यही लगता है कि विपक्ष ‘चायवाले’ के बाद ‘चौकीदार’ के जाल में फंसा नहीं भी हो, तो कुछ वक्त के लिए उलझ जरूर गया है।
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