
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
भोपाल, मध्य प्रदेश की राजधानी है। इस क्षेत्र का पुराना नाम भोजपाल था। भोपाल की स्थापना परमार राजा भोजपाल ने की थी। यहां पर अफगान सिपाही दोस्त मोहम्मद का भी शासन रहा। शायद तभी से भोजपाल भोपाल के नाम से जाने लगा और इसको को नवाबी शहर भी कहा जाता है। इसे झीलों की नगरी कहा जाता है, क्योंकि यहां पर कई छोटे-बड़े ताल हैं। 1984 में भोपाल गैस कांड यहां की सबसे बड़ी त्रासदी रही है। गैस रिसाव में लगभग बीस हजार लोगों की जान चली गई थी।
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भोपाल से कांग्रेस ने वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मैदान में उतारा है। दिग्विजय सिंह की भोपाल से उम्मीदवारी के साथ ही यह सीट चर्चा में आई थी। लेकिन भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा को टिकट देकर इस सीट को और ही चर्चा में ला दिया है। वैसे तो भोपाल लोकसभा सीट भाजपा के लिए काफी सुरक्षित मानी जाती है। यह सीट पिछले तीस साल से भाजपा के कब्जे में रही है। 1989 के बाद से यहां भाजपा के अलावा किसी और पार्टी का उम्मीदवार जीत हासिल नहीं कर पाया है। इस सीट से कांग्रेस के नवाब मंसूर अली खान पटौदी और सुरेश पचौरी भी चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन इस सीट पर कांग्रेस को जीत नहीं दिला पाए। 1984 तक यह सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी। भोपाल लोकसभा सीट के अंतर्गत 8 विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें से 3 पर कांग्रेस और 5 पर भाजपा का कब्जा है। भोपाल लोकसभा सीट पर 19, 57, 241 मतदाता हैं, जिसमें 1,039,153 पुरुष और 918,021 महिला मतदाता हैं। इस क्षेत्र में मुसलमान मतदाता की संख्या लगभग 4 लाख है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के आलोक संजार को 714,178 मत मिले थे। उनके मुकाबले कांग्रेस के पीसी शर्मा को 343,482 वोट हासिल हुए थे। आम आदमी पार्टी ने भी इस सीट से अपना प्रत्याशी उतारा था। आम आदमी पार्टी की रचना धींगरा को महज 21, 298 मत मिले थे। रचना धींगरा अपनी जमानत भी नहीं बचा पाई थी।
2014 के लोकसभा चुनाव में भोपाल में कुल 57.75 फीसदी मतदान हुआ था। भाजपा के आलोक संजर को 36 प्रतिशत, कांग्रेस के पीसी शर्मा 17 प्रतिशत और आम आदमी पार्टी की रचना धींगरा को महज एक प्रतिशत वोट मिले थे। यहां की 23.71 प्रतिशत आबादी ग्रमीण क्षेत्रों में रहती है, जबकि 76.29 प्रतिशत शहरी इलाके में रहती है। भोपाल की 15.38 प्रतिशत जनसंख्या अनुसूचित जाति की है और 2.79 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं।
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| काश कसाब ज़िन्दा न पकड़ा गया होता, निश्चित रूप हिन्दू आतंकी सिद्ध हो गया होता। देखिए आतंकी कसाब हाथ में मुसलमान होते हुए कलावा बांधे हुए है, जो इस्लाम में वर्जित है। |
लगातार तीस साल के कांग्रेस को मिल रही हार का कारण गैस त्रासदी है। 1984 में आम चुनावों के लगभग एक माह बाद ही भोपाल गैस त्रासदी हुई थी, उसके बाद 1989 के चुनावों से कांग्रेस लगातार इस सीट से हारती रही है।
दिग्विजय सिंह के खिलाफ साध्वी प्रज्ञा को मैदान में उतारकर भाजपा ने एक बड़ा दांव चला है। साध्वी प्रज्ञा की छवि कट्टर हिन्दुवादी है। वहीं, साध्वी प्रज्ञा के साथ जो कुछ भी हुआ है, उसके लिए वे दिग्विजय सिंह और पी चिदंबरम को जिम्मेदारी ठहराती रही हैं। ऐसे में यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा कि भोपाल में किस तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं और उसका मतदाताओं पर कितना असर होता है। क्या मतदाता गैस त्रासदी को भूलकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह को अपनाते हैं या साध्वी प्रज्ञा को अपना वोट देकर संसद में भेजते हैं। इसका फैसला अंतिम नतीजों के बाद होगा। भोपाल में 12 मई को चुनाव होंगे।
सम्भव है, साध्वी प्रज्ञा के चुनाव में उतरने से हिन्दू-मुस्लिम आतंकवाद का खूब प्रचार होगा, जिसे रोकने में चुनाव आयोग भी असमर्थ रहेगा। क्योंकि प्रज्ञा "हिन्दू-भगवा आतंकवाद" की भोगी है। जिन्हे इस्लामिक आतंकवाद को बचाने के ही कारण झूठे आरोप में इतने वर्ष जेल में रख जो यातनाएं दी गयीं थीं, उन्हें सुन रोंगटे खड़े होते हैं और प्रज्ञा तो भोगी हैं। निश्चित रूप से अपने चुनाव प्रचार में उन यातनाओं की चर्चा अवश्य करेंगी, और चुनाव आयोग को अपनी दर्दभरी यातनाओं को जगजाहिर करने में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करना चाहिए, यदि किसी भी स्तर पर उन यातनाओं को उजागर करने से रोका जाता है, उसे निश्चितरूप से आतंकवाद समर्थक ही माना जाना चाहिए।
क्योकि कांग्रेस ने अपने यूपीए के 10 वर्षों के कार्यकाल में हिन्दू धर्म को कलंकित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। केवल इस्लामिक आतंकवाद और पाकिस्तान को बचाने के लिए बेकसूर हिन्दू साधु/संत और साध्विओं को जेलों में डाल क्या-क्या अमानवीय यातनाएँ दी गयीं थीं। यदि उसका...0000001 प्रतिशत भी जेलों में बंद किसी भी मुस्लिम आतंकवादी के साथ की होती, समस्त छद्दम धर्म-निरपेक्षों ने सड़क से संसद तक आसमान सिर पर उठा लिया होता, सारे मानवाधिकार और पता नहीं कौन-कौन विधवा-विलाप कर उन पुलिस वालों पर ही कार्यवाही के लिए भूख हड़ताल, जगह-जगह प्रदर्शन और आधी रात को सुप्रीम कोर्ट खुलवा देते, लेकिन स्वामी असीमानन्द, साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित पर जो अमानवीय यातनाएं हुई, किसी को परवाह नहीं, पता नहीं समस्त छद्दम धर्म-निरपेक्ष और मानवाधिकार की दुहाई किस शोक में डूबे थे। अवलोकन करें:-
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2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर समस्त हिन्दुओं को चिन्तन करना चाहिए कि "इतने वर्षों में हमें क्या मिला?" गूढ़ मन्थन की भी जरुरत नहीं, बस पिछली सरकार के 10 वर्षों में हिन्दुओं पर लगाए जा रहे कलंक, उदाहरणार्थ : दीपावली के शुभावसर पर शंकराचार्य की गिरफ़्तारी, आसाराम की गिरफ़्तारी, झूठे आरोपों में इस्लामिक आतंकवाद को संरक्षण देते हुए साधु, संतों और साध्वियों की गिरफ़्तारी आदि आदि। और आसाराम को बलात्कार आरोप में गिरफ्तार करने के लिए पीड़ित के कमला मार्केट थाना, दिल्ली में रिपोर्ट लिखवाने से लगभग एक घंटे पहले मीडिया थाने पर मौजूद, किस साज़िश की ओर इशारा करती है? आज मोदी-मोदी चीखने वाली मीडिया ही इन काल्पनिक घटनाओं को बढ़ाचढ़ा कर खूब TRP बढ़ा रहे थे। उस समय किसी भी निर्भीक और खोजी पत्रकार कहे जाने वाले ने यह तक पूछने का साहस नहीं किया कि पीड़ित के आने से पूर्व कमला मार्केट थाने पर मीडिया का जमावड़ा क्यों? मुंबई 26/11 घटना के बाद "हिन्दू आतंकवाद" और "भगवा आतंकवाद" के नाम से हिन्दू समाज को कलंकित किया जा रहा था। लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने उपरान्त कहाँ है "हिन्दू आतंकवादी" और "भगवा आतंकी"? 


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