आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को लेकर आज कई तरह की भ्रांतियां पैदा करने की कोशिश की जा रही हैं। खास तौर पर वामपंथी बीते कई साल से अंबेडकर की विचारधारा को कमजोर करने में जी-जान से जुटे हैं और काफी हद तक उन्होंने इसमें कामयाबी भी पाई है। अंबेडकर की पसंद और नापसंद बिल्कुल शीशे की तरफ साफ है। दरअसल वो इस मामले में बेहद स्पष्टवादी थे। उन्होंने कभी छिपाया नहीं कि किसी खास विचारधारा के लिए वो क्या सोचते हैं। लेकिन आज जो लोग खुद को अंबेडकराइट यानी अंबेडकरवादी बताते हैं, वो इस बात का हमेशा ध्यान रखते हैं कि अंबेडकर की बातों का विश्लेषण करते हुए उसी नजरिए को गायब कर दिया जाए। सबसे खास बात है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर वामपंथी विचारधारा को देश के खिलाफ मानते थे। वो सही अर्थों में एक राष्ट्रवादी थे। ये हैरानी की बात है कि बाबा साहब की इस विचारधारा का उन्हीं के कथित फॉलोअर आज कल मज़ाक उड़ाते हैं।
उन्होंने अपनी जाति के लिए दस वर्ष का आरक्षण माँगा, परन्तु उसका दुरूपयोग होते देख, उसे समाप्त करने के लिए भी कहा, जो नहीं माना गया और वास्तव में आज तक आरक्षण का दुरूपयोग हो रहा है। दुरूपयोगता के प्रमाण देखिए : अब महिला आरक्षण की चर्चा होती रहती है, कोई इन सियासतखोरों से पूछे "क्या बिना आरक्षण के महिलाओं को नौकरी मिल रही है या नहीं?" हम आपको बताते हैं बाबा साहब की विचारधारा की उन बड़ी बातों को जिसे पूरी कोशिश के तहत छिपाया जाता है:
उपनिषद को लोकतंत्र का आधार माना
डॉ. अंबेडकर को हिंदुत्व के विरोधी विचारधारा की तरह दर्शाया जाता है, लेकिन खुद उन्होंने उपनिषदों का व्यापक अध्ययन किया था। एक जगह उन्होंने उपनिषद महावाक्यों को लोकतंत्र का आध्यात्मिक आधार बताया है। जात-पात तोड़क मंडल में अपने मशहूर भाषण में अंबेडकर ने कहा था कि हिंदुओं को स्वतंत्रता और बराबरी का समाज बनाने के लिए कहीं बाहर से कुछ सीखने की जरूरत नहीं है। उन्हें ये सबकुछ अपने उपनिषदों से ही मिल जाएगा। बाद में अपनी पुस्तक रिडल्स ऑफ हिंदुइज़्म (हिंदुत्व की पहेलियां) में उन्होंने इस विचार पर विस्तार से बात की है। इसमें उन्होंने तीन महावाक्यों का जिक्र किया है- सर्वम खिलविद्म ब्रह्मा (सर्वत्र ब्रह्मा ही है), अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) और तत्वमसि (तुम वही हो)। किताब में वो लिखते हैं- हम सभी भगवान की संतान हैं, ये विचार लोकतंत्र के आधार के को कमजोर बनाता है। ऐसी बुनियाद होती है तो लोकतंत्र डगमगाता रहता है। लेकिन अगर लोगों में यह भाव हो कि हम सभी उसी परमपिता का अंश हैं और हममें उतना ही ईश्वर है जितना किसी भी दूसरे प्राणी में तो यह समस्या खत्म हो जाती है। इसके बाद लोकतंत्र एक स्वाभाविक प्रक्रिया बन जाती है।
हिंदू सिविल कोड चाहते थे अंबेडकर
कथित प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी आज समान नागरिक कानून के सबसे बड़े विरोधी हैं। लेकिन वो नहीं चाहते कि किसी को पता चले कि अंबेडकर शुरू से ही एक देश, एक कानून के सबसे बड़े हिमायती थी। उन्होंने तो इससे भी आगे बढ़कर हिंदू सिविल कोड लाने की वकालत की थी। इसे उन्होंने समान नागरिक कानून की दिशा में पहला चरण माना था। इस हिंदू नागरिक संहिता को उन्होंने सामाजिक लोकतंत्र और लैंगिक समानता का आधार माना था। 11 जनवरी 1950 को अपने भाषण में डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि हिंदू नागरिक बिल एक प्रगतिशील व्यवस्था है। यह एक प्रयास है जिससे भारत के संविधान के तहत सभी नागरिकों को एक नागरिक कानून के दायरे में लाया जा सके। यह बिल पूरी तरह हिंदू धार्मिक पुस्तकों के आधार पर तैयार किया गया था। मानते हैं कि डॉ. अंबेडकर इस बिल के जरिए हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर करके उसे उपनिषदों और दूसरे धर्मग्रंथों में कही बातों के आधार पर संचालित करना चाहते थे।
सिंधु जल समझौते के सख्त खिलाफ थे
सिंधु जल समझौता नेहरू की कमजोर कूटनीति की एक और बड़ी मिसाल है। डॉ. अंबेडकर ने खुलकर इसका विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि सिंधु के जल पर पहला अधिकार भारत के किसानों का होना चाहिए। ब्रिटिश इकोनॉमिस्ट हेनरी विंसेंट हडसन ने अपनी किताब द ग्रेट डिवाइड (1969) में लिखा है कि अंबेडकर ने इस समझौते के लिए साफ इनकार कर दिया था। जिसके बाद लार्ड माउंटबेटन को पाकिस्तान की तरफ से बीच-बचाव के लिए आना पड़ा। माउंटबेटन ने नेहरू से बात की और उन्हें इस भेदभावपूर्ण जल संधि के लिए राजी कर दिया। इसी समझौते कारण आज कश्मीर से लेकर पंजाब और गुजरात तक के बड़े इलाके में पानी की समस्या है। डॉ. अंबेडकर ने इस समस्या को पहले से भांप लिया था, लेकिन आज जब भी इस संधि की बात होती है अंबेडकर की राय को छिपा लिया जाता है। 1956 में अंबेडकर के निधन के बाद नेहरू को को छूट मिल गई और 1960 में उन्होंने इस विचित्र संधि पर दस्तखत कर दिए।
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