कश्मीर पर आवाज उठाने वाले Amnesty International की काली करतूतें

Amnesty, जम्मू-कश्मीर
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार 
वैश्विक स्तर पर मानवाधिकारों, मानवीय मूल्यों और मानवीय स्वतंत्रता के नाम पर चलने वाले अनेकों गैर सरकारी संगठनों का काला सच क्या है? ये किसी से छिपा नहीं है। मानव-हित के नाम पर अपने कुकर्मों को अंजाम देना और अन्य देशों की संप्रभुता से खिलवाड़ कर पश्चिमी ताकतों का उस देश में विस्तार करना… ये इनकी पृष्ठभूमि की कड़वी हकीकत है। ऐसी ही एनजीओ की सूची में एक नाम एमनेस्टी इंटरनेशनल का भी है। जिसकी शुरूआत 1961 में ब्रिटेन से हुई थी और जिसने अपना उद्देश्य मानवीय मूल्यों पर शोध एवं प्रतिरोध करना बताया था और साथ ही जगजाहिर किया था कि वह मानवाधिकारों के लिए लड़ेगा। हालाँकि पिछले कुछ सालों में इस एनजीओ द्वारा की गई करतूतें इसके अस्तित्व की बखिया अपने आप उधेड़ती हैं, जिसके लिए इसे कई देशों से लताड़ भी मिल चुकी है लेकिन फिर भी ये किसी देश के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बाज नहीं आते।
Related imageRelated imageअभी हाल ही में देख लीजिए। भारत तक अपने पैर पसार लेने वाला ये संगठन अब कश्मीर के मुद्दे को वैश्विक पटल पर ले जा रहा है। जिस मुद्दे को अब तक देश का आंतरिक मामला कह कहकर पाकिस्तान को हड़काया जा रहा था, उस मुद्दे को आधार बनाकर अब ये संगठन ग्लोबल कैंपेन शुरू करने जा रहा है, जिसका उद्देश्य प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कश्मीर में जिहाद का संरक्षण करना ही है। ये संगठन जनहानि का हवाला देकर भारत को विश्व के सामने कठोर, बेहरम, निर्मम दिखाने के लिए 5 अगस्त से प्रयासरत है। भारत में इसके हेड आकार पटेल लगातार अपने झूठों पर कायम हैं और लगातार कश्मीर के फैसले का हवाला देकर बोल रहे हैं कि सरकार के फैसले ने अनिश्चित काल के लिए कश्मीर को अंधकार में झोंक दिया है। इनका कहना है कि भले ही कश्मीर में दूरसंचार सेवाएँ दोबारा से बहाल कर दी गई हैं लेकिन फिर भी 80 लाख लोग इससे प्रभावित हुए हैं। इनका कहना (प्रोपेगेंडा) है कि अब सरकार ने सिर्फ़ कश्मीर के संचार तंत्र पर ही शिकंजा नहीं कसा है बल्कि कश्मीरियों के दिल और दिमाग पर भी अपना शिकंजा कस लिया है।
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Image result for कश्मीर में पिटते हिन्दू हालाँकि विरोधियों को एमनेस्टी इंडिया के इस कदम में वाकई मानव-हित दिखाई देगा और देश में मौजूद एक विशेष गिरोह के लोग इसका समर्थन करने से भी पीछे नहीं हटेंगे। लेकिन क्या इस संगठन की करतूत पर ये विमर्श का विषय नहीं है कि आखिर मोदी सरकार ने गलत क्या किया है, जो कश्मीरियों का भविष्य अंधकार में बताया जा रहा है? आखिर आतंकवाद को रोकने की लड़ाई में और कश्मीरियों को उनका अधिकार देने की लड़ाई नें उन्होंने वहाँ से अनुच्छेद 370 का पावर खत्म करने से किसको आहत किया है? घाटी के अलगाववादियों और पत्थरबाजों को छोड़कर वो कौन से कश्मीरी हैं, जो इस फैसले से निराश हैं? सुरक्षा के लिहाज से सुरक्षाबलों की तैनाती से किसे गुरेज है? किसे दिक्कत है कश्मीर के कल को सुधारने के लिए आज लिए गए इस ऐतिहासिक फैसला से? शायद विरोधियों, पाकिस्तानियों, पाकिस्तान-परस्तों और एमनेस्टी जैसे संगठन को छोड़कर किसी को भी नहीं!
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Related imageRelated imageएमनेस्टी को मानवाधिकारों का हनन उस समय दिखाई नहीं दिया, जब कश्मीर में हिन्दू महिलाओं का बलात्कार हो रहा था, जब हिन्दुओं को वहाँ से जाने के लिए मस्जिदों से एलान होता था, जब वहां हिन्दुओं का कत्लेआम हो रहा था, जब शंकराचार्य हिल्स का नाम सुलेमान हिल्स किया गया था? उस समय एमनेस्टी कहाँ थी, जब आतंकवादी कश्मीर और भारत के अन्य भागों को बेगुनाहों के खून से लाल कर रहे थे? उस समय ये एमनेस्टी कहाँ थी, जब पत्थरबाज सुरक्षाकर्मियों पर पत्थरबाज़ी कर रहे थे? कश्मीर को लेकर ऐसी हज़ारों समस्याएँ हैं, जिन पर सौहार्द बिगाड़ने वाली एमनेस्टी खामोश रही। आखिर मानवाधिकार के नाम पर कब तक ये एनजीओ साम्प्रदायिकता का नंगा नाच करता रहेगा? राज्य और केन्द्र सरकारों को एमनेस्टी द्वारा देश का सौहार्द बिगाड़ने के दुष्प्रचार को इंटरनेशनल स्तर पर उठाकर इसको प्रतिबन्ध करने की मांग उठानी चाहिए। ऐसे एनजीओस केवल भारत ही नहीं विश्व के लिए एक सिरदर्द हैं। जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को विश्व में बेनकाब किया है, उसी तर्ज़ पर ऐसे एनजीओस को भी बेनकाब करने की जरुरत है। इनको आर्थिक मदद करने वाले देशों को भी बेनकाब करने की जरुरत है।   
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Related imageदेश की सुरक्षा और उस देश के नागरिकों के उत्थान की जिम्मेदारी सरकार पर होती है। सरकार के छोटे से छोटे फैसले में या तो देशहित छिपा होता है या फिर मानव-हित। मुमकिन है इस समय कश्मीर पर लिए गए फैसले से कई लोग परेशान हो रहे हों, लेकिन ये भी सच है कि जिन्हें परेशानी हो रही है वो लोग वही हैं जो कश्मीर में अराजकता फैलाने के लिए उतावले हैं, जिन्हें चाहिए कि कश्मीर में दिन पर दिन आतंकवादी घटनाएँ घटती रहें, कश्मीरी पंडितों को उनके अधिकारों से वंचित रखा जाए, पत्थरबाजी की घटनाएँ बढ़ती रहें, नौजवान रोजगार ढूँढने की बजाए घाटी तक सीमित रह जाएँ। अब ऐसे में अगर सरकार ने इन लोगों को कुछ दिनों के लिए घर में बंद रखा है या फिर सुरक्षा के लिहाज से क्षेत्र में कुछ पाबंदिया लगाईं हैं तो क्या गलत है? 10 हजार लोगों की जान बचाने के लिए अगर 5 या 10 लोगों को काबू कर लिया जाए तो मुझे नहीं लगता इसका इतना बड़ा बवाल बनाया जाना चाहिए।
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जब पाकिस्तान की गुहार पर विश्व के बड़े-बड़े देश इस फैसले को भारत के अधिकार क्षेत्र में आने वाला फैसला बता चुके हैं तो अब एमनेस्टी जैसी विदेशी संस्था को दिकक्त क्या है?
सम्भव है इस बिंदु तक आते-आते किसी को ये लगने लगे कि यहाँ पर एकतरफा होकर बात हो रही है। लेकिन एमनेस्टी के अजेंडे और प्रोपेगेंडा को उजागर करने के लिए जरूरी है कि उसकी पृष्ठभूमि पर गौर किया जाए और जाना जाए कि अब तक ये संगठन अपनी किन ओछी हरकतों से देश को विभाजित करने की नीतियों पर चलता रहा है और देश का एक तथाकथित पढ़ा-लिखा तबका इसका लगातार अनुसरण करता रहा है।
  • साल 2018 में नसरुद्दीन शाह का मुद्दा जब देश में गर्माया तो इस संस्था ने कुछ दिन बाद उनका इंटरव्यू लिया जिसमें वह अर्बन नक्सलियों के हित के बारे में बात करते नजर आए और उनको गरीबों का रखवाला तक बता दिया।
  • इस वीडियो के जरिए बाद में एमनेस्टी ने गंदा खेल खेला और मानवाधिकारों का हवाला देकर पूरे विश्व को ये बताने की कोशिश की कि भारत में मानवाधिकारों को खतरा है। लोकतंत्र की बात करने वाले जेल में डाले जा रहे हैं और संवैधानिक मूल्यों का कोई पर्याय नहीं रह गया है, इसलिए अब भारत सरकार को बताने की जरूरत है कि उनका ये रवैया नहीं चलेगा।
  • इसके बाद अरुण फेरैरा (Arun Ferreira) की गिरफ्तारी पर भी इस संस्था ने बढ़ चढ़कर हस्तक्षेप किया था। बिना ये तथ्य दिखाए कि उनकी गिरफ्तारी अर्बन नक्सल होने को लेकर नहीं हुई बल्कि भीम कोरेगाँव में हिंसा के संबंध में हुई है।
  • अपने आप को मानवाधिकारों का संरक्षक कहने वाला ये संगठन एफसीआरए के कानूनों के उल्लंघन करने का आरोपित भी करार दिया जा चुका है। जिसके संबंध में पिछले वर्ष अक्टूबर महीने में ईडी ने इनके बंगलुरू दफ्तर पर रेड भी मारी थी।
  • इसके अलावा इस संगठन का एक कार्यकर्ता सोशल मीडिया पर ब्राहमणों के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने का दोषी भी पाया जा चुका है। और इस संस्था के 2 कर्मचारी यहाँ के माहौल से परेशान होकर आत्महत्या का रास्ता तक अपना चुके हैं।
  • बहुत सी ऐसी रिपोर्ट्स भी मौजूद है, जिसमें यहाँ के प्रबंधक के ख़िलाफ़ शिकायत है कि वो अपने कर्मचारियों को हमेशा दुत्कार के ही बात करता है। जैसे- ‘तुम एकदम बेकार हो’, तुम्हें ये छोड़ देना चाहिए, अगर तुम यहाँ रहे तो तुम्हारी जिंदगी नर्क बन जाएगी।
  • लोगों ने ये भी कहा कि यहाँ होना सम्मान की बात हो सकती है लेकिन यहाँ काम करना बहुत मुश्किल है।
  • इस संस्थान पर बीते दिनों तालिबान से संबंध होने के भी आरोप लगे थे। जहाँ अमनेस्टी इंटरनेशनल की जेंडर ईकाई की पूर्व मुखिया ने अपने बयान में खुद कहा था कि उन्हें लगता एनमेस्टी इंटरनेशनल मोज्जम बेग के साथ जुड़कर अपने लिए खतरा मोल ले रहा है।
एक ऐसी संस्था जिसका लक्ष्य केवल एक अजेंडे के तहत काम करना है, जिसका उद्देश्य मानवाधिकारों की आड़ में प्रोपेगेंडा साधना है, जिसकी कार्यनीतियों का खुद उसके कर्मचारी खुलासा करते हैं, जिसका तालिबान से संपर्क है, जो सोशल मीडिया पर एक समुदाय के खिलाफ़ माहौल बनाने में जुटा है। वो संस्था जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी गई सरकार पर, उसके फैसले पर, उसकी कार्यनीतियों पर सवाल उठाती है तो ये बेहद हास्यास्पद लगता है। और ऐसा भी लगता है जैसे कश्मीर मुद्दे को उछालना और नसरुद्दीन शाह की कवरेज करना सब एक खुन्नस है। क्योंकि एक बात तो सबको मालूम है कि नरेंद्र मोदी सरकार की सख्ती के कारण पिछले चार सालों में ऐसे कई एनजीओ हैं, जिन्हें विदेश से मिलने वाले चंदे में 40 फीसद की कमी आई है और कई के तो लाइसेंसों को भी रद्द कर दिया गया है।

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