क्या प्रदुषण के लिए केवल किसान ही जिम्मेदार हैं?

एक्शन में पंजाब सरकार: पराली जलाने पर 196 किसान गिरफ्तार, 327 FIR हुईं दर्जपंजाब सरकार ने नवंबर 5 को पराली जलाने को लेकर उल्लंघन करने के लिए 196 किसानों को गिरफ्तार किया और 327 एफआईआर दर्ज की। एक दिन में पराली जलाने के 6,668 और 5 नवंबर तक कुल 37,935 मामले सामने आए हैं। दिल्ली-NCR में वायु प्रदूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट नवंबर 6 को अहम सुनवाई करेगा। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के चीफ सेकेट्री सुप्रीम कोर्ट में पेश होंगे और पराली जलाने को रोकने को लेकर कदमों के बारे में जानकारी देंगे
पराली जलाने पर 196 किसान गिरफ्तार, 327 FIR हुईं दर्ज
किसानों को जिला प्रशासन के आदेशों का उल्लघंन करने पर आईपीसी की धारा 188 के तहत गिरफ्तार किया गया है। पराली जलाने की कुल संख्या 37,935 हो गई है, जबकि पिछले साल 5 नवंबर तक पराली के 27,224 मामले सामने आए थे। इस साल दर्ज की गई पराली जलाने की संख्या 2017 के 37,298 मामलों से भी अधिक है
पीएमओ ने मंगलवार को दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण को लेकर बैठक की, जिसमें कैबिनेट सचिव ने प्रदूषण कम करने के लिए उठाए गए कदमों का जायज़ा लिया। ये बात सामने आई कि पंजाब और हरियाणा में अब भी पराली जलाई जा रही है। इन राज्यों को निर्देश दिए गए हैं कि निगरानी के लिए ज़मीन पर और टीमें उतारी जाएं ताकि पराली जलाने वालों पर जुर्माना लगाया जा सके
क्या प्रदुषण के लिए केवल किसान ही जिम्मेदार हैं?
दिल्ली में प्रदूषण को लेकर हरियाणा व पंजाब के किसानों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है क्योंकि वो अपने खेतों में धान की पराली जलाते हैं और उसके धुएँ से पूरा एनसीआर एक गैस चैम्बर में तब्दील हो जाता है। सरकार किसी भी राज्य की हो, वो अख़बार में एक इश्तेहार देकर किसानों को पराली न जलाने की सलाह देती है और इतिश्री कर लेती है। बाकी काम केजरीवाल, खट्टर और अमरिंदर सिंह एक-दूसरे पर दोषारोपण कर के पूरा करते हैं। ये तीनों राज्यों में तीन अलग-अलग पार्टियों की सरकारें हैं लेकिन इस समस्या से निपटने में सभी फेल साबित हुए हैं।
कैसे कम होगा प्रदूषण? पराली जलाने पर बैन का असर नहीं
तो फिर उपाय क्या है? क्या किसान ही प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं? टीवी न्यूज़ स्टूडियो से लेकर जिन्होंने कभी खेतों का मुँह भी नहीं देखा ऐसे लोगों तक, सभी किसानों को ही भला-बुरा कहने में लगे हुए हैं। लेकिन, किसान करे तो क्या? अगर किसान पराली नहीं जलाएगा तो दूसरे उपाय क्या हैं? पराली का एक किला बना कर उसे दबाने में 7 हज़ार रुपए ख़र्च हो जाते हैं। क्या सरकार प्रत्येक किसान को इसका भाव देगी? अगर किसान पराली नहीं जलाते हैं तो उन्हें 30 लीटर तेल ख़र्च करने के बाद भी खेत तैयार करने में सफलता नहीं मिलती।
अगर सरकार किसानों से धान के साथ-साथ पराली भी ख़रीदने लगे और उन्हें उचित दाम देने लगे तो शायद किसान पराली जलाना बंद कर दें। अब लोग कहेंगे कि पराली को बाजार में बेचना भी तो एक विकल्प है। अगर पराली बेचने से रुपए मिलते तो भला किसान उसे क्यों जलता? पराली बिक भी जाए तो उसे निकालने के लिए मजदूरों की आवश्यकता पड़ती है और इस काम के लिए मजदूर भी नहीं मिलते। गेहूँ की बुआई को लेकर चिंतित किसान मजदूरों पर 7-8 हज़ार रुपए ख़र्च करने की बजाय पराली को जला डालता है।
Delhi Area: 1484 sq. Km.
1 Smog Tower cleans area: pi×3×3= 28 sq. Km.
Total Smog Tower required: 1484÷28 = 53.
One Smog Tower cost = 2 Crore.
Total One time Cost required to install Smog Towers throughout Delhi = 53×2= 106 Crores Only.
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2018-19 Kejriwal Govt subsidy for Votes:
Electricity: 1800 Crores
Water: 400 Crores
Free Bus Ticket for Women: 280 Crores
Free Mask Distribution: 10 Crores
TV, Newspaper and Radio Ads for Subsidy and Mask distribution: 80 Crores.
Total Money spent: 2600+ Crores.
2600+ Crores worth One year Subsidy drama  is very much costlier than long term   clean air solution worth just 106 Crores
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पराली दबाना विकल्प नहीं है। पराली को बेचना विकल्प नहीं है। कम से कम ये दोनों तब तक तो विकल्प नहीं ही हैं जब तक किसानों को इसका ख़र्च मिले। लेकिन, इस पूरे प्रकरण में कुछ और लोग भी दोषी हैं, जो शक्तिशाली हैं। सरकार और नेताओं की तो यहाँ चर्चा करना ही बेकार है क्योंकि अगर वो सुनने वाले होते तो ये समस्या आती ही नहीं या फिर कब की ख़त्म हो गई होती। इसीलिए यहाँ अन्य कई विकल्पों पर बात करते हैं। मसला इतना गंभीर हो चुका है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसे देखने का फ़ैसला लिया है और कहा है कि लोग मरते रहें, ऐसा नहीं चलेगा। कोर्ट ने कहा कि पराली जलाया जाना रुकना चाहिए।
कुख्यात कंपनी मोंसैंटो भी ज़िम्मेदार 
इस कम्पनी के बारे में बात करने से पहले दक्षिण अमेरिका में स्थित ब्राजील के उदाहरण से शुरू करते हैं। 120 साल पुरानी दुनियाँ की सबसे बड़ी इस बीज कम्पनी का मकसद सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना व्यापार बढ़ाना ही है। जो किसान इसके ख़रीददार हैं, उन्हीं किसानों से इसका टकराव भी चलता है। ब्राजील में किसान बीज बचा कर उसे रीप्लान्ट करने के लिए रख लेते थे, जिस कारण मोंसेंटो ने उन पर केस कर दिया। इस केस का परिणाम ये निकला कि शक्तिशाली मोंसेंटो की जीत हुई और 7.7 बिलियन डॉलर के इस लॉशूट को कम्पनी ने जीत लिया। 9 सदस्यीय पीठ ने किसानों के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाया।
अब वापस भारत आते हैं। पंजाब में पानी बचाने के लिए ऐसा अभियान चलाया गया कि उसका नकारात्मक असर ही हो गया। पानी बचाने के क्रम में न सिर्फ़ पंजाब सरकार बल्कि कई वैज्ञानिकों ने भी धान की बुआई कम करने की अपील की। लेकिन फिर प्रश्न आया कि किसान धान नहीं उपजाएगा तो फिर खेत खाली छोड़ कर करेगा ही क्या? सरकार ने इसका निदान मक्के की खेती के रूप में निकाला। एक अभियान चला- धान की खेती का क्षेत्रफल घटाओ और मक्के की खेती को बढ़ाते चलो। पंजाब सरकार का कहना था कि किसानों को धान और गेहूँ के चक्कर से निकालने के लिए ‘क्रॉप डायवर्सिफिकेशन’ ज़रूरी है।
‘क्रॉप डायवर्सिफिकेशन’ के इस भूत ने अब अपना असली रंग दिखाना शुरू किया है। पंजाब सरकार ने इसके लिए मोंसेंटो के साथ मिल कर काम करना शुरू किया। मक्के के बीज के लिए मोंसेंटो को बादल सरकार ने एक रिसर्च सेंटर स्थापित करने को कहा। पंजाब सरकार और मोंसेंटो ने मिल कर धान की बुआई को 45% तक कम करने का लक्ष्य रख कर हाइब्रिड मक्के के बीज पर काम करना शुरू किया। अमेरिकी कम्पनी ने इसके बाद धान के विकल्प के रूप में खरीफ सीजन में मक्के की खेती पर जोर दिया। पंजाब सरकार का लक्ष्य था कि धान की खेती का एरिया 28 लाख हेक्टेयर से कम कर के 16 लाख हेक्टेयर किया जाए और 4 लाख हेक्टेयर में मक्का उगाया जाए।
मिट्टी में पानी की मात्रा को नियंत्रित रखने और उसे बढ़ाने के लिए मोंसेंटो किसानों को धान के बदले अपना जीएमओ क्रॉप्स उगाने को कहता है और इसके लिए ऑफर देता है। पाँच नदियों की सबसे उपजाऊभूमि को सिर्फ़ केमिकल कंपनियों और बाद में बीज कंपनियों का एक बाजार बना कर रख दिया गया। केमिकल खाद का प्रयोग किया जाता है। अर्थवर्म और फंगी न होने के कारण ह्यूमस पैदा नहीं होता और मिटटी की उपजाऊ क्षमता जाती रहती है। मिट्टी को ज्यादा पानी की ज़रूरत होती है। इससे फसल की सिंचाई भी ज्यादा करनी पड़ती है। एक तरह से पंजाब की मिट्टी को मारने की इस प्रक्रिया में ‘केमिकल कृषि’ का योगदान रहा।
किसानों को जब मक्का उगाने के लिए मजबूर किया जाने लगा तो उन्होंने ‘क्रॉप डायवर्सिफिकेशन’ का नया ही तरीका चुन लिया। अभी तक आप सोच रहे होंगे कि उपर्युक्त बातों का दिल्ली के प्रदूषण से क्या लेना-देना है। दरअसल, किसानों ने धान की ही अलग-अलग प्रजातियाँ उगानी शुरू की, जिनमें से कई ऐसी हैं जो कम समय में पूरी हो जाती हैं। उन्होंने धान उगाने के समय को बढ़ा दिया, अर्थात धान की खेती को कुछेक महीने आगे सरका दिया। इससे घाटा ये हुआ कि सामान्यतः सितम्बर के महीने में होने वाली कटाई नवम्बर तक पहुँचने लगी और पराली जलाने के सिलसिले से दिल्ली एक गैस चैंबर में तब्दील हो गया।
चूँकि, किसानों को भी धान उगाने के लिए एक निश्चित समयावधि दी गई थी, उन्होंने इससे निजात पाने के लिए अलग-अलग उपाय करने शुरू कर दिए। मोंसेंटो के जीएमओ प्रोडक्ट्स के कारण मधुमक्खियाँ मर जाती हैं। जैसा कि हम जानते हैं, प्याज जैसी कई फसलें पॉलिनेशन की प्रक्रिया के लिए जिन जीवों की मोहताज होती हैं, उनके मर जाने से उन फसलों को खासा नुकसान होता है। यूरोप की कई कंपनियों ने मोंसेंटो ब्रांड की मक्के की बीज को प्रतिबंधित कर रखा है। इससे मधुमक्खियों की पूरी की पूरी कॉलोनी ही मारी जाती हैं। इसके जीएमओ मक्के को मुर्गियों को खिलाया जाने लगा है जबकि गेंहूँ जानवरों को दिया जाता है।
2009 के वाटर एक्ट्स को कूड़े के डब्बे में फेंका जाए 
जैसा कि ऊपर बताया गया, पंजाब और हरियाणा में किसान अक्टूबर-नवंबर में खेत खाली करने के लिए पराली जलाने लगे, जिसके कारण ये समस्याएँ उत्पन्न हुईं। इस देरी का कारण भी किसान नहीं हैं बल्कि सरकार ने ही उन्हें इसके लिए मजबूर किया है। इसके कारण सबसॉइल वाटर एक्ट्स हैं, जिन्हें पंजाब और हरियाणा की सरकारों ने 2009 में पारित किया था। यही वो क़ानून है जो किसानों को इस बात के लिए मजबूर करता है कि वो अप्रैल में धान की बुआई न कर के आधा जून बीतने तक इंतजार करें।
धान के अंकुरण और इसकी कटाई के बीच की समयावधि को देखें तो लगभग 4 महीने लग ही जाते हैं और इसका सीधा मतलब है कि अक्टूबर बीतते-बीतते और नवंबर आते-आते किसान खेतों से पराली की सफाई का कार्यक्रम शुरू करेंगे। बस दिल्ली में प्रदूषण हद से ज्यादा बढ़ने का कारण भी यही हो जाता है। यही वो समय होता है जब हवा की दिशा भी बदलती है और दिल्ली की जनता को आकाश में बादल न होने के बावजूद सूर्य का दर्शन करना भी नसीब नहीं होता। अभी भी ख़बर आई है कि नवम्बर का पहला हफ्ता बीतने के बाद ही हवा की दिशा में बदलाव आने की उम्मीद है और तब तक स्थिति भयावह बनी रहेगी।
हवा की गति काफ़ी धीमी होती है और वातावरण में नमी की अधिकता होती है, जो इस प्रदूषण की समस्या को और ज्यादा बढ़ाता है। इसीलिए, सरकारों को चाहिए कि पानी बचाने के नाम पर किसानों को तबाह न करे और रेन वाटर हार्वेस्टिंग जैसे उपाय करे। लेकिन सरकारें इसके लिए किसानों का ही दम घोंटने में लगी है। किसानों को इस बात की छूट मिलनी चाहिए कि वे अप्रैल-मई में ही धान की बुआई करें, ताकि सितम्बर ख़त्म होते-होते खेतों से धान की कटाई हो जाए और खेत खाली करने की प्रक्रिया भी पूरी कर ली जाए। सरकार को सभी किसानों को इसके लिए मशीन उपलब्ध कराने की व्यवस्था करनी चाहिए।
इन दोनों क़ानूनों को पास करने के पीछे का कारण यही था कि सरकारें किसानों को ही पानी की खपत के लिए जिम्मेदार ठहराती है। अर्थात, पंजाब-हरियाणा में किसान पानी पी जाते हैं और दिल्ली में प्रदूषण फैलाते हैं- सरकारों का यही सोचना है। धान की फसल में पानी की खपत ज्यादा होती है और इसीलिए पानी बचाने के लिए न सिर्फ़ धन की बल्कि किसानों के गले में भी लगाम लगा दी गई। किसानों की माँग है कि उन्हें सरकार की तरफ से 200 रुपए प्रति क्विंटल तो चाहिए ही चाहिए, जिससे पराली को जलाने की बजाय अन्य विकल्पों का इस्तेमाल किया जा सके।
ये उम्मीद करना बेमानी है कि 10 कट्ठा ज़मीन पर खेती करने वाला 14 लाख रुपए ख़र्च कर के किसान कम्बाइनर हार्वेस्टर ख़रीदे और मात्र 9-10 दिन चलने वाली कटाई में इसका इस्तेमाल करे। 10 दिन के काम के लिए छोटे किसान लाखों ख़र्च नहीं कर सकते। ये उम्मीद करना भी बेमानी है कि छोटे किसान हार्वेस्टर के मालिकों को रेंट देकर कटाई कराएँ क्योंकि जिनके पास ये मशीन है वो इसके प्रयोग के एवज में ज्यादा से ज्यादा रुपए वसूलते हैं। सरकार ऐसी मशीन ख़रीद कर प्रत्येक ग्राम पंचायत को जनसंख्या के हिसाब से दे ताकि किसान उनका प्रयोग कर सकें।
अगर सरकार को पानी का लेवल ही बढ़ाना है तो इसके लिए न सिर्फ़ रेन वाटर हार्वेस्टिंग को बढ़ावा देना पड़ेगा बल्कि कई कुएँ और तालाब भी खुदवाने होंगे। मोंसेंटो जैसी कंपनियों से वसूला जाना चाहिए और यह भी समझना चाहिए कि आखिर दुनिया के किसी भी हिस्से में किसानों से इस कम्पनी की क्यों नहीं बनती? इस रक़म को देशभर के किसानों को मशीनें उपलब्ध कराने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। बिहार-झारखण्ड में सबसॉइल वाटर एक्ट्स नाम की कोई चीज नहीं है और इससे किसानों को पराली हटाने के लिए ज्यादा समय मिलता है। खेत खाली करने में ज्यादा समय मिलने का मतलब है कि गेंहूँ की बुआई के लिए पर्याप्त समय। इसी बीच दिवाली और छठ जैसे त्यौहार भी आते हैं लेकिन बात नहीं बिगड़ती।
एलपीजी गैस कनेक्शन देने के अभियान को और तेज़ किया जाना चाहिए। इस दिशा में केंद्र सरकार ने काफ़ी प्रयास किया है और राज्यों में इसके परिणाम भी देखने को मिले हैं। जिन बच्चों की माँएँ मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाती थीं, उस घर के बच्चों के फेंफड़े काले पाए गए। सिर्फ़ किसानों को जिम्मेदार ठहराने की बजाय ऐसी छोटी-छोटी समस्याओं पर भी ध्यान देना पड़ेगा। जब पराली जलाने का मौसम नहीं होता है, तब भी दिल्ली में एयर क्वालिटी खतरनाक ही रहती है। अब इसके लिए किसानों को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? पावर प्लांट्स को सही इमिशन सिस्टम पर काम करने के अलावा गाड़ियों की इंजनों को नए मानकों पर परखना होगा।
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आर.बी.एल. निगम, वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के कारण हवा बेहद जहरीली हो गई है। आलम यह है कि लोगों के लिए घ...

इसके लिए कमोबेश वो लोग भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने दिवाली के पटाखों के विरोध में अभियान चलाया और प्रदूषण के बड़े और असली कारणों को छिपाने में अपना योगदान दिया। सरकार से लेकर अदालतें तक पटाखों में उलझी रह गईं और अब जब मामला गंभीर हो चुका है, सुप्रीम कोर्ट इसे देख रही है। हंगामा इस तरह मचाया गया जैसे दिवाली के पटाखों के कारण ही सालों भर दिल्ली में प्रदूषण रहता है। पटाखे प्रतिबंधित किए गए और पुलिस ने सख्ती से इसका पालन कराया। कई लोग गिरफ़्तार हुए। लेकिन हाँ, प्रदूषण की स्थिति जस की तस रही। 24 घंटे के भीतर केजरीवाल ‘दिल्ली ने कर दिखाया’ से ‘पंजाब-हरियाणा की ग़लती है’ पर आ गए।

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