
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
आज मोदी विरोधी जिस तरह जनता को गुमराह कर पत्थरबाज़ी और आगजनी के लिए उकसा रहे हैं, पुलिस कार्यवाही पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं, उसके लिए हमें थोड़ा पीछे मुड़कर देखना होगा, जो नेताओं के दोगलेपन को उजागर करेगा। उन सभी से भारत जवाब मांगता है कि "जब मुलायम सिंह सरकार की उत्तर प्रदेश पुलिस ने निहत्ते रामभक्तों की जान ले ली थी, उस समय कितने नेता मुलायम सिंह और उत्तर प्रदेश की पुलिस का विरोध करने सडकों पर आए थे?" फिर जब उत्तर प्रदेश में मलियाना कांड हुआ था, तब कितने नेता सडकों पर उतरे थे? जबकि इस कांड में तो मुसलमानों के ही खून की होली खिली थी।" अखिलेश यादव के समय हुए मुज़फ्फर नगर दंगों में किसका हाथ था? किसी ने आवाज़ उठाई? उठा भी नहीं सकते थे, क्योकि ये दंगा हिन्दुओं के विरुद्ध था।" तब किसी को संविधान खतरे में नज़र नहीं आया, वाह, मेरे अंधे नेताओं।
अब चलिए 2002 में हुए गोधरा कांड की ओर, जिसमें 56 निर्दोष रामभक्तों को गाड़ी में जिन्दा जला दिया जाने के कारण हुआ था। उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे नरेन्द्र मोदी। भड़की आग पर काबू पाने मोदी ने केन्द्र के अलावा अपने पडोसी राज्यों तक से पुलिस सहायता मांगी, क्या किसी ने मदद की? क्यों नहीं कोई मदद के लिए आगे आया। क्योकि मरने वाला हिन्दू था, इनका वोटबैंक यानि मुस्लिम नहीं। क्यों? क्या हिन्दू तुम्हे वोट नहीं देता? दूसरे, इस कांड के मोदी को "मौत का सौदागर" आदि तक कहा गया, क्यों? क्योकि मोदी ने केवल दोषियों को ही पकड़ा, किसी बेकसूर को नहीं। कांग्रेस सरकार की तरह आतंकवादियों को बचाने के बेकसूर हिन्दू, साधु, संत और साध्वियों को "हिन्दू आतंकवाद" और "भगवा आतंकवाद" के नाम पर जेलों में डाला। यही कारण है कि मोदी विरोधी आज तक मुसलमानों में मोदी के विरुद्ध जहर फैलाते रहते हैं।
फिर जब जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में देश विरोधी नारे लग रहे थे, उस समय उनके साथ खड़े होने वाले नेता क्या कभी देशहित के बारे में सोंच सकते हैं? दरअसल, नागरिकता कानून आने से जो अब तक हिन्दू-मुसलमान दंगे करवा अपनी तिजोरियां भरते थे, वह खेल समाप्त होने की कगार पर है और जिस कारण अपनी दुकानें बंद होती देख बेकसूरों के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।
हिन्दू के नाम पर साम्प्रदायिकता क्यों?
जब कभी हिन्दूहित की बात होती है, तुष्टिकरण पुजारियों को साम्प्रदायिकता क्यों नजर आने लगती है? क्या हिन्दू साम्प्रदायिक है? इस ज्वलन्त प्रश्न का हर हिन्दू को अपने उन नेताओं से उत्तर मांगना होगा, जिनका ये आंख मींच कर समर्थन कर रहे हैं। भारत में मुग़ल आये जयचन्दों के कारण, ब्रिटिश आए जयचन्दों के कारण। लेकिन इतिहास में किसी भी जयचन्द का नाम आदर से नहीं लिया जाता। फिर किस कारण हिन्दू इन हिन्दू-विरोधियों की ढाल बन रहे हैं। क्या हिन्दू भूल गया कि 2014 में मोदी सरकार से पूर्व कांग्रेस समर्थित युपीए सरकार द्वारा "हिन्दू आतंकवाद", "भगवा आतंकवाद", हिन्दू त्यौहारों पर पाबंदियां(दिवाली पर आतिशबाज़ी से प्रदुषण समस्या और होली पर पानी की बर्बादी), शिव पर दूध चढ़ाने से अच्छा है किसी गरीब को दूध दे दो, करवाचौथ पर भूखा रहना मूर्खता आदि आदि से हिन्दू धर्म पर प्रहार होते थे।
संविधान और कानून को ठेंगा
बिजनौर के 22 साल के सुलेमान की पीठ पर किसने हाथ रखा होगा कि उसने कॉन्स्टेबल मोहित के पेट में गोली मार दी? मेरठ की उस गली में लड़कों को किसने इशारा किया कि वे सिटी SP अखिलेश नारायण सिंह के सामने भी देश विरोधी नारे लगाने से नहीं डरे? वह कौन है जिसके कहने पर आतंकियों की आपा लदीदा फरज़ाना और आयशा रेना को विरोध का चेहरा बनाने की साजिश रची गई ? जामिया और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ‘हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी’ से लेकर ‘ला इलाहा इल्लल्लाह’ के नारों का हुक्म किसका था? किसकी शह पर आपके चुने हुए प्रधानमंत्री को वह हिटलर कह निकल जाता है? देश के गृह मंत्री को तड़ीपार कह आपके साथ खड़े रहने की हिमाकत वह कैसे कर लेता है? आगजनी, पथराव, हिंसा का हथियार उसके हाथ कौन थमाता है? राम मंदिर में अड़ंगा डालने वाला कथित इतिहासकार संवैधानिक पद पर बैठे गवर्नर को बोलने से रोकने की ढिठाई कैसे कर लेता है?
इनके लिए न तो संविधान का कोई मतलब है और न वे इस देश के कानून को मानते हैं। उन्हें पता है कि उनके पीछे एक पूरा गिरोह है। लंपट कांग्रेसियों, वामपंथियों, वहाबियों, ईसाई मिशनरियों, भीमटों का गिरोह। सीमा पार से समर्थन। ये जानते हैं कि अलग-अलग वेश, नारों और झंडों से यह गिरोह बहुसंख्यकों को छलेगा। सत्ता में लौटेगा। तब उनकी पीठ सहलाई जाएगी, हर उस मौके के लिए जब उन्होंने संविधान और कानून को ठेंगा दिखाया होगा।
झारखंड में रविवार (29 दिसंबर 2019) को हेमंत सोरेन के नेतृत्व में नई सरकार बनी। कैबिनेट का पहला फैसला था- पत्थलगड़ी में शामिल लोगों पर दर्ज FIR वापस होगा। वैसे तो पत्थलगड़ी आदिवासियों की एक प्राचीन परंपरा है। अमूमन इसके जरिए मौजा, सीमा, ग्रामसभा और अधिकार की जानकारी दी जाती है। वंशावली, पुरखों और शहीदों की याद में भी पत्थलगड़ी की जाती रही है। लेकिन, 2017 में आदिवासियों की इस परंपरा की आड़ में देश के संविधान और कानून को चुनौती देने का सिलसिला झारखंड से शुरू हुआ था जो पड़ोसी छत्तीसगढ़ तक भी पहुॅंचा। इस दौरान हिंसा, हत्या, रेप, अपहरण जैसी घटनाएँ अंजाम दी गई। एक चुनी हुई सरकार को, देश के कानून को सीधे-सीधे चुनौती दी गई। जॉंच से यह तथ्य भी सामने आए कि इसके पीछे पूरा गिरोह, खासकर ईसाई मिशनरियॉं थी। कायदे से तो इस मामले की सुनवाई अदालतों में होनी चाहिए थी। अदालतों को तय करना चाहिए था कि जिन पर एफआईआर दर्ज हैं, वे दोषी हैं या निर्दोष। लेकिन, एक सरकार ने हिंसा के सारे सूत्रों को झटके में बेदाग कर दिया।
ऐसे में ताज्जुब नहीं होता है कि नतीजों के तुरंत बाद भावी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन रांची के पुरुलिया रोड स्थित कार्डिनल हाउस पहुॅंचते हैं। आर्च बिशप फेलिक्स टोप्पो से आशीर्वाद लेते हैं। आर्च बिशप फेलिक्स टोप्पो खुलकर कहते हैं- हम सब भाजपा से डरे हुए थे। नई सरकार क्रिसमस गिफ्ट है। यहॉं तक कि सत्ता से भाजपा की विदाई के लिए बीते पॉंच साल से चर्चों में एक विशेष प्रेयर तक हो रहा था। एक धर्मगुरु और गैर कानूनी धर्मांतरण का धंधा चलानी वाली मिशनरीज यह सब करने और कहने की हिम्मत केवल इसलिए जुटा पाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि एक सरकार आएगी और उनके हर गुनाह दफ़न कर देगी।
फरवरी 2016 में जेएनयू में राष्ट्रविरोधी नारे लगते हैं। इस मामले में 14 जनवरी 2019 को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल 1,200 पन्नों की चार्जशीट दायर करती है। जेएनयू छात्र संघ का पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उमर खालिद मुख्य आरोपित है। शेहला रशीद, वामपंथी नेता डी राजा की बेटी अपराजिता, आकिब हुसैन, मुजीब हुसैन, मुनीब हुसैन सहित 36 छात्र आरोपित हैं। लेकिन, दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार इस मामले में केस चलाने की इजाजत ही नहीं दे रही है। सुरक्षा की यही गारंटी कन्हैया कुमार से लेकर शेहला रशीद तक को देश भर में घूम-घूमकर प्रोपेगेंडा फैलाने की इजाजत देता है। कभी सेना के नाम पर झूठे आरोप लगाने तो कभी आपके चुने हुए प्रधानमंत्री को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी करने की आजादी देता है। इन्हें पता है कि पीठ पर हाथ सहलाने के लिए गिरोह पीछे खड़ा है। मौका मिलते ही उनके दाग भी धो देगा।
अर्बन नक्सलों को क्लीनचिट
महाराष्ट्र में भी अर्बन नक्सलों को क्लीनचिट देने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। महाविकास अघाड़ी की सरकार बनते ही एनसीपी विधायक जितेंद्र आव्हाड ने सुधीर धावले को जेल से रिहा करने की सिफारिश मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से की। भीमा-कोरेगाँव मामले में दर्ज मामले वापस लेने की मॉंग की। जनवरी 2018 को भीमा-कोरेगाँव में हुई हिंसा का धावले मास्टरमाइंड माना जाता है। यदि आने वाले दिनों में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर धावले से लेकर सुधा भारद्वाज तक देश के किसी कोने में फिर से चुनी हुई सरकार के खिलाफ हिंसा की साजिश रचते दिखें तो चौंकिएगा मत।
नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध के नाम पर हिंसा करने वालों को भी बचाने का खेल पहले दिन से ही चल रहा है। छात्रों का हवाला दे सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया गया। प्रियंका गॉंधी सार्वजनिक तौर पर उस पुलिस को अराजक बता रही हैं जो दंगाइयों के निशाने पर थे। उस पर धर्म विशेष के लोगों को प्रताड़ित करने का आरोप लगा रही हैं।
छलना ही आपकी नियति है
प्रियंका गॉंधी ने ऐसे ही नहीं कह दिया कि यह भगवा आपका नहीं है। जब वे ऐसा कह रही होती हैं, तब उन्हें पता होता है कि छलना ही आपकी नियति है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब उनके सामने ही हेमंत सोरेन ने कहा था- गेरुआ पहन बहू-बेटियों की इज्जत लूटने का काम करते हैं। उनकी आँखों ने उस भीड़ में बैठकर इस बात पर आपको भी ताली पीटते देखा था। जबरन धर्मांतरण रुकवाने वाली सरकार को सत्ता से बेदखल करते भी उन्होंने आपको देखा है। वे जानती हैं जब वे लौटेंगी तो भगवा आतंकवाद गढ़कर हिंसक भीड़ का मजहब छिपा लेंगी और आप लिबरल दिखने के लिए ताली पीटते रहेंगे।
वक़्त है चेत जाने का। अपनी आवाज खुद बनने का। मीडिया के भरोसे आप बैठे नहीं रह सकते। यह मीडिया उनका ही पाला-पोसा है। यह मीडिया ‘मेरा गला दबाया’ के उनके झूठे आरोपों पर बवाल काटता है। लेकिन, आपको नहीं बताता कि झूठ बोल रही नेता की सुरक्षा में लगी लेडी अफसर के साथ बदतमीजी हुई थी। वह कौन था/थी जिसने उस महिला अधिकारी के साथ बदतमीजी की थी?वह नहीं बताता है कि वह अधिकारी इतनी कत्वर्यनिष्ठ है कि भाई की मौत होने के बाद भी अपनी ड्यूटी निभा रही थी। यह मीडिया प्राइम टाइम में चुन-चुन कर आपको फ्रेम दिखाता है ताकि मजहबी भीड़ पीड़ित दिख सके। वह सुलेमान के यूपीएसएसी की तैयारी करने की स्टोरी बुनता है ताकि उसके हाथ का कट्टा छिप जाए।
अगर समय रहते नहीं चेते तो 2020 भी किसी 20-20 मैच की तरह हाथ से फिसल जाएगा। वक्त ड्रेसिंग रूम में बैठकर अफसोस करने का नहीं, खुद की आवाज बनने का है।
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