
आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 रहते हिन्दुओं का किस तरह उपहास, बलात्कार एवं मान-मर्यादा की क्षति हो रही थी, उसे जानने के लिए 30 वर्ष पीछे जाना पड़ेगा। जिसे जनहित की बात करने छद्दम धर्म-निरपेक्ष अपने वोटबैंक की खातिर अनदेखा करते रहे। 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद से जिस तरह पत्थरबाजों और आतंकवादियों पर प्रहार हुआ, उससे इन छद्दम धर्म-निरपेक्षों का विचलित होना स्वाभाविक था। शायद इसी कारण सर्जिकल और एयर स्ट्राइक के सबूत मांग अपने वोटबैंक को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया था। परन्तु हिन्दुओं और हिन्दू महिलाओं की लुटती अस्मिता का किसी ने संज्ञान नहीं लिया। यदि स्थिति विपरीत होती, समस्त छद्दम धर्म-निरपेक्षों ने हिन्दुओं पर न जाने कितनी दफाएं लगाकर जेलों में सड़ने के लिए फेंक दिया होता। दुनियां भर के मानवाधिकार कश्मीर पहुँच गए होते, लेकिन ये अत्याचार हिन्दुओं पर हो रहे थे, इसलिए किसी ने सुध नहीं ली, बैठे रहे अफीमचियों की तरह।
शर्म आती हैं, उन हिन्दू नेताओं और कार्यकर्ताओं पर, जो इतना सबकुछ होते हुए भी अपनी पार्टी का विरोध करने का साहस तक नहीं कर पाए, शायद यही कारण है कि कश्मीर में दुष्टों द्वारा हिन्दू अस्मिता को हनन किया जा रहा था।
अत्याचार के 30 साल
कश्मीर घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडित समुदाय के लिए 19 जनवरी प्रलय का दिन माना जाता है, क्योंकि वर्ष 1990 में हालात बिगड़ने के कारण इसी तारीख में कश्मीरी पंडित समुदाय ने कश्मीर घाटी से पलायन करना शुरू कर दिया था। मई 1990 तक करीब पाँच लाख कश्मीरी पंडित जान बचाने के लिए अपनी मातृभूमि को छोड़ कश्मीर से पलायन कर चुके थे, जो स्वतंत्रता के बाद भारत का सबसे बड़ा पलायन माना जाता है। इसी के चलते हर वर्ष 19 जनवरी को जहां कहीं भी कश्मीरी पंडित रहते हैं, वहाँ वह इस तारीख को ‘होलोकॉस्ट/एक्सोडस डे’ (प्रलय/बड़ी संख्या में पलायन की तारीख) के तौर पर मनाते हैं।
90 के दशक में कश्मीरी हिंदुओं पर हुआ हत्याचार एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिसे चाहकर भी भुला पाना असंभव है। रातों-रात खुद को बचाने के लिए कश्मीर में अपना घर, संपत्ति छोड़कर भागे लोगों के मन में आज भी उस रात की टीस बाकी है, जब उन्होंने इस्लामिक कट्टरपंथी का शिकार होते अपनी आँखों के सामने बर्बरता से अपने लोगों को जिंदा जलते-मरते देखा और जिन्हें इंसाफ की लड़ाई लड़ते-लड़ते 30 साल हो गए।
On my way to Washington DC for Congressional hearing on Human Rights organized by Tom Lantos HR Commission. Armed with nothing but truth, I hope to tell the stories that have hitherto been unheard or have been deliberately not told. Satyameva Jayate. https://t.co/hdg16p7gJC— Sunanda Vashisht (@sunandavashisht) November 14, 2019
बीते साल 14 नवंबर 2019 को ऐसी ही अनगिनत कहानियों को अपने दिल में समेट कर भारतीय स्तंभकार सुनंदा वशिष्ठ टॉम लैंटॉस एचआर द्वारा आयोजित यूएस कॉन्ग्रेस की बैठक के लिए वॉशिंगटन डीसी पहुँचीं थीं। हालाँकि वहाँ जाने से पहले ही उन्होंने ट्वीट कर इस बात की जानकारी दे दी थी कि आयोजन में वह सिर्फ़ कश्मीर से जुड़ी उन कहानियों के बारे में बात करने वाली हैं, जिन्हें लोगों ने कभी नहीं सुना होगा या फिर जिन्हें बताने से हमेशा बचा गया। लेकिन जब उन्होंने वहाँ बोलना शुरू किया और कश्मीरी हिंदुओं पर हुए अत्याचारों की आवाज बनीं… तो मानो जैसे सब सिहर गए।
कश्मीर के हालातों की चश्मदीद, उन्होंने आयोजन में बोलना प्रारंभ किया। इस दौरान घाटी में पसरे इस्लामिक कट्टरपंथ के कारण उन्होंने कश्मीर की तुलना सीरिया से की। उन्होंने 30 साल पहले का समय याद करते हुए कहा कि उन लोगों ने ISIS के स्तर की दहशत और बर्बता कश्मीर में झेली है। इसलिए उन्हें खुशी है कि आज इस तरह मानवाधिकारों की बैठक यहाँ हो रही हैं, क्योंकि जब मेरे जैसों ने अपने घर और अपनी जिंदगी सब गँवा दी थी, तब पूरा विश्व शांत था।
अपना गुस्सा जाहिर करते हुए सुनंदा वशिष्ठ ने लोगों से पूछा कि आखिर तब मानवाधिकार के वकील कहाँ थे, जब हमारे अधिकार हमसे छीने गए।
“कहाँ थे वो लोग जब 19 जनवरी 1990 की रात घाटी के हर मस्जिद से एक ही आवाज आ रही थी कि हमें कश्मीर में हिंदू औरतें चाहिए, लेकिन बिना किसी हिंदू मर्द के।”
उस रात की पीड़ा को जाहिर करते हुए सुनंदा ने आगे पूछा, “इंसानियत के रखवाले उस समय कहाँ थे जब मेरे दादाजी रसोई की चाकू और जंग लगी कुल्हाड़ी लेकर हमें मारने के लिए हमारे सामने केवल इसलिए खड़े थे, ताकि वो हमें उस बर्बरता से बचा सकें, जो जिंदा रहने पर हमारा आगे इंतजार कर रही थी।”
बैठक में उन्होंने बताया था कि उनके लोगों को आतंकियों ने उस रात केवल 3 विकल्प दिए थे। या तो वे कश्मीर छोड़कर भाग जाएँ, या फिर धर्मांतरण कर लें या फिर उसी रात मर जाएँ। सुनंदा वशिष्ठ के अनुसार उस रात करीब 4 लाख कश्मीरी हिंदुओं ने दहशत में आकर अपनी घर- संपत्ति सब जस का तस छोड़ दिया और खुद को बचाने के लिए वहाँ से भाग निकले।
जब इस्लाम न कबूलने पर डेनियल पर्ल का सिर कलम कर दिया था
कश्मीर पर बात करते हुए उन्होंने उस अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल को भी याद किया, जिसका मजहब इस्लाम न होने के कारण ISIS ने उसका सिर कलम कर दिया था, लेकिन फिर भी उसके आखिरी शब्द थे- “मेरे पिता एक यहूदी थे, मेरी माता एक यहूदी थी और मैं भी एक यहूदी ही हूँ।”
इस दौरान अपनी तुलना डेनियल पर्ल से करते हुए सुनंदा ने उनके आखिरी शब्दों को अपनी स्थिति बयान करने के लिए इस्तेमाल किया और कहा, “मेरे पिता एक कश्मीरी हैं, मेरी माता कश्मीरी हिंदू हैं और मैं भी एक कश्मीरी हिंदू ही हूँ। ”

इस बैठक में आपबीती सुनाते हुए भारतीय स्तंभकार ने दावा किया कि कश्मीर में उनका और उनके लोगों का पूरा जीवन कट्टरपंथ इस्लाम के कारण बर्बाद कर दिया गया। वे इस दौरान गिरिजा टिक्कू जैसी औरतों का भी जिक्र करती नजर आईं, जिनका अपहरण करके क्रूरता के साथ मार दिया। जिनके साथ सामूहिक बलात्कार हुए और जिन्हें टुकड़ों में काटकर फेंक दिया गया। उन्होंने बीके गंजू जैसे लोगों के बारे में भी बात की। जिन्हें अपने पड़ोसियों पर विश्वास करने के बदले सिर्फ़ विश्वासघात मिला। जिन्हें कंटेनर में ही गोली मार दी गई और उनकी पत्नी को खून से सने चावल (वो भी पति के ही खून से सने) खाने को मजबूर किया गया।
सुनंदा द्वारा यूएस कॉन्ग्रेस की बैठक में कही गई इन बातों के लिए उन्हें खूब सराहा गया था। स्वयं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने उनके वीडियो को शेयर कर उन्हें शाबाशी दी थी। उन्होंने लिखा था कि ये वो आवाज है, जो सुनी जानी चाहिए।
Well done @sunandavashisht. The voice of those who need to be heard. Human rights can not be limited in its coverage. #Article370 #KashmirInUSCongress https://t.co/FPPbIQsDfE— Nirmala Sitharaman (@nsitharaman) November 15, 2019
30 वर्षों से संघर्षरत कश्मीरी पंडित
देश-दुनिया में बसे विस्थापित कश्मीरी पंडितों के संगठन कश्मीर में वापसी के लिए 30 साल से आंदोलनरत हैं। उन्होंने सरकार से इस दिशा में सकारात्मक क़दम उठाने की माँग की। कश्मीर समिति दिल्ली के अध्यक्ष समीर चंगू का कहना है कि हमारा तो सबकुछ लुट गया। परिवार-रिश्तेदार और पड़ोसी सब। पीड़ा तो थी ही ज़बरदस्त गुस्सा भी था। लेकिन, हम उनकी तरह जवाब नहीं दे सकते थे। हमने कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया। हमेशा संविधान के दायरे में रहकर ही बात की।
कश्मीरी समिति दिल्ली का इतिहास कश्मीरी सहायक समिति के तौर पर आज़ादी के कुछ साल बाद का है। एमएन कौल और हृदय नाथ कुंजरू भी इससे जुड़े हुए थे। ऑल इंडिया कश्मीरी समाज इसी संगठन से निकला है। संगठन कोशुर समाचार नाम से मासिक पत्रिका भी निकालता है।
19 जनवरी को जनसंहार के विरोध में हर साल जंतर-मंतर पर होलोकॉस्ट डे मनाया जाता है। दिल्ली-एनसीआर के सैकड़ों कश्मीरी पंडित यहाँ जुटते हैं और अपना दर्द बयाँ करते हैं। वह दुनिया को बताते हैं कि आखिर उस रात धरती का जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ कैसा अत्याचार हुआ।
यह स्मरण रहे कि सन ’65 का युद्ध जम्मू कश्मीर राज्य को पूरी तरह पाकिस्तान में मिलाने के उद्देश्य से लड़ा गया था किंतु पाकिस्तान इस उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया था क्योंकि तब तक कश्मीर में पाकिस्तान परस्ती और अलगाववाद का बीज नहीं बोया जा सका था। इसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अगस्त 1965 में अमानुल्लाह खान और मकबूल बट ने पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर में ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ नामक अलगाववादी आतंकी संगठन बनाया था।
इस संगठन ने जून 1966 में मकबूल बट को ट्रेनिंग देकर नियन्त्रण रेखा के इस पार भेजा। छह सप्ताह बाद ही पुलिस से हुई एक मुठभेड़ में मकबूल बट ने सी० आई० डी० सब इंस्पेक्टर अमर चंद की हत्या कर दी। दो वर्ष बाद अगस्त 1968 में मकबूल बट को तत्कालीन सेशन जज नीलकंठ गंजू ने फाँसी की सजा सुनाई। किन्तु उसी वर्ष दिसम्बर में मकबूल बट अपने एक साथी के साथ जेल तोड़कर नियन्त्रण रेखा के उस पार भाग गया। वह 1976 में लौटा और इस बार उसने कुपवाड़ा में बैंक डकैती का असफल प्रयास किया और पकड़ा गया।
डकैती के प्रयास में उसने बैंक मैनेजर की हत्या की जिसके लिए उसे पुनः फाँसी की सजा हुई। मकबूल बट के पकड़े जाने के बाद उसके साथी आतंकवादी इंग्लैंड चले गये जहाँ उन्होंने 1977 में ‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ (JKLF) नामक संगठन बनाया। इसी संगठन से संबद्ध ‘नेशनल लिबरेशन आर्मी’ ने मकबूल बट को जेल से छुड़ाने के लिए फरवरी 1984 में भारतीय उच्चायुक्त रवीन्द्र म्हात्रे का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी। इस घटना के पश्चात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने तत्काल मकबूल बट को तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी थी।
मक़बूल भट को फांसी के बाद बदलता परिवेश
सन 1984 में जिस दिन मकबूल बट को फाँसी दी गई थी उस दिन कश्मीर घाटी के लोगों पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की स्थापना को अभी एक दशक भी पूरा नहीं हुआ था। इस संगठन को अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते घाटी के लोगों में अपनी पैठ बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। मकबूल बट को फाँसी दिए जाने के दो वर्ष पश्चात् सन 1986 में फारुख अब्दुल्लाह को हटाकर गुलाम मोहम्मद शाह जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बनाये गए।
शाह ने अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाते हुए जम्मू स्थित न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक प्राचीन मन्दिर परिसर के भीतर मस्जिद बनाने की अनुमति दे दी ताकि मुस्लिम कर्मचारी नमाज पढ़ सकें। इस विचित्र निर्णय के विरुद्ध जम्मू के लोग सड़क पर उतर आये जिसके फलस्वरूप दंगे भड़क गये। अनंतनाग में पंडितों पर भीषण अत्याचार किया गया, उन्हें बेरहमी से मारा गया, महिलाओं से बलात्कार किया गया और उनकी संपत्ति व मकान तोड़ डाले गये। सन 1987 से जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की गतिविधियों में तेजी आई।
बाद के सालों में अलगाववादियों की दुष्प्रचार मशीनरी ने एक सुनियोजित षड्यंत्र रचकर पंडितों के विरुद्ध वैमनस्य फैलाना प्रारंभ कर दिया। यही कारण था कि जिस मकबूल बट को 1984 में कोई जानता नहीं था फरवरी 1989 में उसका ‘शहादत दिवस’ मनाने के लिए लोग सड़कों पर उतर आये थे। विश्वभर में सलमान रुश्दी की पुस्तक ‘सैटेनिक वर्सेज़’ का विरोध चरम पर था जिसकी आग कश्मीर तक भी पहुँची। परिणामस्वरूप 13 फरवरी को श्रीनगर में दंगे हुए जिसमें कश्मीरी पंडितों को बेरहमी से मारा गया।
पंडित टिकालाल टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या
पं० टिकालाल टपलू पेशे से वकील और जम्मू कश्मीर बीजेपी के अध्यक्ष थे। पं० टपलू आरंभ से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे तथा उदारमना व्यक्ति थे। पं० टपलू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की थी परंतु पैसे कमाने के लिए उन्होंने इस पेशे का कभी दुरुपयोग नहीं किया। वकालत से वे जो कुछ भी कमाते उसे विधवाओं और उनके बच्चों के कल्याण हेतु दान दे देते थे। उन्होंने कई मुस्लिम लड़कियों की शादियाँ भी करवाई थीं। पूरे हब्बाकदल निर्वाचन क्षेत्र में हिन्दू मुसलमान सभी पं टपलू का सम्मान करते थे तथा उन्हें ‘लाला’ अर्थात बड़ा भाई कह कर सम्बोधित करते थे।
उनकी यह छवि अलगाववादी गुटों की आँखों का काँटा थी क्योंकि पं० टिकालाल टपलू उस समय कश्मीरी पंडितों के सर्वमान्य और सबसे बड़े नेता थे। वास्तव में अलगाववादियों को घाटी में अपनी राजनैतिक पैठ बनाने के लिए कश्मीरी पंडितों के समुदाय को हटाना जरुरी था जो किसी भी कीमत पर पाकिस्तान का समर्थन नहीं करते। इसीलिए जम्मू कश्मीर लिबेरशन फ्रंट ने पंडितों के विरुद्ध दुष्प्रचार के विविध हथकंडे अपनाये। कश्मीर घाटी के कुछ लोकल अखबारों ने पंडित टिकालाल टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू समेत कई प्रतिष्ठित पंडितों के विरुद्ध दुष्प्रचार सामग्री प्रकाशित करना आरंभ कर दिया था।
आतंकियों ने पं० टपलू और जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या की रणनीति बनाई। पं० टपलू को आभास हो चुका था कि उनकी हत्या का प्रयास हो सकता है इसीलिए उन्होंने अपने परिवार को सुरक्षित दिल्ली पहुँचा दिया और 8 सितम्बर 1989 को कश्मीर लौट आये। चार दिन बाद चिंक्राल मोहल्ले में स्थित उनके आवास पर हमला किया गया। यह हमला उन्हें सचेत करने के लिए था किंतु वे भागे नहीं और डटे रहे। महज दो दिन बाद 14 सितम्बर को सुबह पं० टिकालाल टपलू अपने आवास से बाहर निकले तो उन्होंने पड़ोसी की बच्ची को रोते हुए देखा। पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि स्कूल में कोई फंक्शन है और बच्ची के पास पैसे नहीं हैं।
पं० टपलू ने बच्ची को गोद में उठाया, उसे पाँच रुपये दिए और पुचकार कर चुप करा दिया। इसके बाद उन्होंने सड़क पर कुछ कदम ही आगे बढ़ाये होंगे कि आतंकवादियों ने उनकी छाती कलाशनिकोव की गोलियों से छलनी कर दी। सन 1989-90 के दौरान कश्मीरी पंडितों को घाटी से पलायन करने पर मजबूर करने के लिए की गयी यह पहली हत्या थी। पंडितों के सर्वमान्य नेता को मार कर अलगाववादियों ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि अब कश्मीर घाटी में ‘निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा’ ही चलेगा।
टिकालाल टपलू की हत्या के बाद काशीनाथ पंडिता ने कश्मीर टाइम्स में एक लेख लिखा और अलगाववादियों से पूछा कि वे आखिर चाहते क्या हैं। अगले दिन इसका जवाब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने यह लिख कर दिया कि या तो कश्मीरी पंडित भारत राज्य को समर्थन देना बंद करें और अलगाववादी आन्दोलन का साथ दें अथवा कश्मीर छोड़ दें।
पं टपलू की हत्या के मात्र सात सप्ताह बाद जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गयी। सन 1989 तक पं० नीलकंठ गंजू- जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी- हाई कोर्ट के जज बन चुके थे। वे 4 नवंबर 1989 को दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी थी। इस वारदात से डर कर आसपास के दूकानदार और पुलिसकर्मी भाग खड़े हुए और खून से लथपथ जस्टिस गंजू के पास दो घंटे तक कोई नहीं आया।
कुछ दिनों बाद अमिराकदल के पास स्थानीय लड़के जस्टिस गंजू की हत्या का जश्न मनाते दिखाई दिए। आतंकियों ने जस्टिस गंजू से मकबूल बट की फाँसी का प्रतिशोध लिया था। साथ ही मस्जिदों से लगते नारों ने कश्मीर के लोगों को यह भी बता दिया था कि ‘ज़लज़ला आ गया है कुफ़्र के मैदान में, लो मुजाहिद आ गये हैं मैदान में।’ अर्थात अब अलगाववादियों के अंदर भारतीय न्याय, शासन और दंड प्रणाली का भय नहीं रह गया था।
पं० टिकालाल टपलू और जस्टिस गंजू की हत्या के बाद भी कई कश्मीरी पंडितों को मारा गया परन्तु तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्लाह कोरा दिलासा मात्र देते रहे और मार्तण्ड सूर्य मन्दिर के भग्नावशेष पर सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते रहे।
मुहम्मद सईद की बेटी रुबैया का कथित अपहरण
दिसंबर 8, 1989 को मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण के बाद पंद्रह दिनों तक ड्रामा चला था जिसके बाद वी पी सिंह सरकार द्वारा अब्दुल हमीद शेख़, शेर खान, नूर मोहम्मद कलवल, अल्ताफ अहमद और जावेद अहमद जरगर नामक आतंकियों को जेल से छोड़ा गया था। चौदह साल बाद जेकेएलएफ के जावेद मीर ने रुबैया सईद के अपहरण की बात कबूल की थी।अगले साल जनवरी 25 जनवरी 1990 को जेकेएलएफ ने भारतीय वायु सेना के पाँच अधिकारियों की हत्या कर दी थी। खुद यासीन मलिक ने भी बीबीसी को दिए इंटरव्यू में यह स्वीकार किया था कि उसने ड्यूटी पर जा रहे 40 वायुसैनिकों पर गोलियाँ चलाई थीं। यासीन मलिक और जेकेएलएफ को आज भी उनके किए की सज़ा नहीं मिल पाई है। हाँ, आज यह खबर आई कि सीबीआई ने वो केस फिर से खोला है।
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