‘मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं’ : नजमा हेपतुल्ला

Image result for najma heptullaआजादी के बाद से ही भारत में मुस्लिम और कथित बुद्धिजीवी अक्सर अल्पसंख्यकों के अधिकारों का रोना रोते रहे हैं। हालाँकि, संविधान कभी धार्मिक आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव की इजाजत नहीं देता। संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े जाने के बाद तो किसी के धार्मिक अधिकारों पर चर्चा होनी ही नहीं चाहिए, लेकिन फिर भी यह समय-समय पर चर्चा का विषय बन ही जाता है।
संविधान में अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समता का आश्वासन देता है। लेकिन हम यह देखते आए हैं कि विधि की समता के सामने हर समय कई प्रकार के धार्मिक दुराग्रह खड़े हो जाते हैं। सवाल मुस्लिमों की अल्पसंख्यक बने रहने में रूचि को लेकर है। इसका एक कारण कांग्रेस और वामपंथियों की तुष्टिकरण की नीति रही है। साथ ही अल्पसंख्यक बने रहने में वास्तविक मारा-मारी पीड़ित और शोषित के भाव की है। किसी देश में अल्पसंख्यक होना, उस देश की कृपा और मेहरबानी पर आश्रित होने जैसा भाव देता है। बावजूद इसके भारत में अल्पसंख्यक होना एक अवसर माना जाता रहा है।
पहला सवाल तो देश के मुस्लिमों को खुद से ही करना चाहिए कि क्या वो संविधान लिखे जाने के इतने वर्ष बाद भी स्वयं को संविधान की शर्तों से मंजूर मानते हैं? आज़ादी माँगने वाले मुस्लिम क्या 21वीं सदी के आज़ादी के विचारों से सहमत हैं? हाल ही में नागरिकता संशोधन कानून के बहाने शाहीन बाग़ एवं भारत के अन्य मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जो कुछ चल रहा है, वह किसी से भी छुपा नहीं है। इतना ही नहीं, मुस्लिम बच्चों के दिमाग तक में इतना जहर घोल दिया गया है कि दिन में मोदी के विरुद्ध इतने अभद्र भाषा में नारे लगाते रहते हैं, जिन्हे शब्दों के व्यक्त करना पत्रकारिता के विरुद्ध है। इससे एक बात और स्पष्ट होती है कि इनके दिल-ओ-दिमाग को कितना संकुचित कर दिया गया है। 
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जब धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मौलिक हिस्सा माना गया, तब सुप्रीम कोर्ट ने ये तय किया कि संसद इसे किसी भी तरह से कमजोर करने में सक्षम नहीं है, बल्कि इसे मजबूत बनाने के लिए जरूरी कदम उठा सकती है। लेकिन धर्मनिरपेक्षता शब्द के बावजूद भी भारत का मुसलमान आज भी मुख्यधारा से जुड़ने में इतना असहज क्यों रहता है? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत का मुसलमान आज भी कई आधारभूत क्षेत्रों में अन्य धर्म के लोगों की तुलना में पिछड़े हुए हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि ऐसे उदाहरण हैं, जिसमें मुसलमान आज भी समय से बहुत पीछे खड़ा है। क्यों? 
जब तक स्वयं मुस्लिम अपनी मजहबी कट्टरता के आवरण को नहीं त्याग देते, तब तक इस समाज के पुनर्जागरण की उम्मीद करनी फिजूल है। मुस्लिम समाज को खुद अपनी बुनियादी बदलावों के लिए लक्ष्य बनाने होंगे और समय सीमा तय करनी होगी। इसका सबसे ताजा और सटीक उदाहरण तीन तलाक का गैर कानूनी होना है। सरकार को इस कानून को पारित करने के लिए एक बड़े वोट बैंक से खिलाफत का जोखिम उठाना पड़ा। हाल ही में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) ने नागरिकता संशोधन कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन है।
मुस्लिमों के पिछड़ेपन में सबसे बड़ा हाथ अगर धार्मिक कट्टरता के बाद किसी का रहा है तो वो कॉन्ग्रेस जैसे विपक्षी दल ही हैं। नागरिकता संशोधन कानून, यानी CAA और NRC ने एक नई बहस को भी छेड़ दिया है। यह बहस है पूरे देशभर में संविधान के ही भाग-4, अनुच्छेद- 44 (DPSP) में वर्णित यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने की बात। इसमें संविधान निर्माताओं द्वारा नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून (UCC) लागू करना हमारा लक्ष्य होगा।
लेकिन भारत जैसी विविधता वाले देश में UCC को लागू करना कितना आसान हो सकता है? महज तीन तलाक को ही गैर कानूनी घोषित करने पर कई तरह के फतवे और विरोध देखने को मिले। मुस्लिमों के ‘नए राजनीतिक धर्म गुरु’ और AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी जैसे पढ़े-लिखे लोग भी यह कहते हुए देखे गए कि तीन तलाक उनके धर्म का विषय है और सरकार को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
जबकि समाज और सभ्यता, दोनों ही राजनीति और धर्म से बाहर आना चाह रही है, ऐसे में अगर धार्मिक अधिकार ही आपके मूल अधिकारों पर भारी पड़ जाए तो आप किसे चुनेंगे? सत्य अपाच्य जरूर है, लेकिन मुस्लिम आज भी खुद को अल्पसंख्यक कहकर अलग किस्म के नशे में मशगूल है। लेकिन बहुत ही कम लोग इस बात से वाकिफ़ हैं कि अल्पसंख्यक होने का मतलब मुस्लिम होने से नहीं है।
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आर.बी. एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार एक तरफ कांग्रेस और इसके समर्थक दल देश नागरिक संशोधन कानून के विरुद्ध मुसलमानों में ज....
वर्ष 2014 में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का प्रभार संभालने के तुरंत बाद नजमा हेपतुल्ला ने मुसलमानों के अल्पसंख्यक दर्ज़े को लेकर बयान दिया था कि यह मुस्लिम मामलों का मंत्रालय नहीं बल्कि यह अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय है। नजमा हेपतुल्ला ने जोर देते हुए कहा था कि मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं।
इस बयान के पीछे देश में परम्परागत चली आ रही ‘हिन्दू बहुसंख्यक बनाम मुस्लिम अल्पसंख्यक’ चर्चा की पोल खुल जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि भारत के संविधान में अल्पसंख्यक वर्ग की परिकल्पना एक खुली श्रेणी के रूप में धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट विभिन्न वर्गों के हितों की रक्षा के उद्देश्य से की गई है। इसलिए स्पष्ट है कि भारत के संविधान में एक स्थाई अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में सिर्फ मुसलमानों के होने की ही संभावना शून्य है। संविधान में ‘धार्मिक अल्पसंख्यक’ भी कोई नहीं है।
भारत के एक मुसलमान के सामने भी जब गांधी जी ने लगा दिया था पाकिस्तान के सारे हिंदू और सिखों की जान को दांव पर
लियोनार्ड मोसले के अनुसार भारत विभाजन के दौरान बड़े पैमाने पर हुई हिंसा के उपरांत भी महात्मा गांधी ने कहा था- "चाहे पाकिस्तान में समस्त हिन्दू व सिख मार दिए जाएं, पर भारत के एक कमज़ोर मुसलमान बालक की भी रक्षा होगी ।"
स्रोत-(पुस्तक- भारत का राष्ट्रीय आंदोलन: एक विहंगावलोकन, लेखक-मुकेश बरनवाल, डॉ. भावना चौहान)
कांग्रेस का इतिहास मुस्लिम तुष्टीकरण के तमाम उदाहरणों से भरा हुआ है। आज देश में सीएए व एनआरसी की आड़ में जिन मंचों से मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों को शह दी जा रही है, उन तमाम मंचों के पीछे जिस बेशर्मी के साथ कांग्रेस पार्टी और उसके तमाम नेता खड़े हैं, वह कोई नई बात नहीं है। आज जिस तरह की भाषा मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर सहित तमाम कांग्रेसी नेता बोल रहे हैं, यह कांग्रेस के पाठ्यक्रम का एक हिस्सा हैं। वह कांग्रेस ही थी जिसने धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलिरिज्म) शब्द को संविधान में जगह दी, औऱ हमेशा उसकी आड़ में मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों को प्रश्रय दिया। जिसका खामियाजा आज तक यह देश भुगत रहा है।
डॉ. अम्बेडकर अपनी पुस्तक "पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया" में लिखते हैं कि "कांग्रेस ने मुसलमानों को राजनीतिक और अन्य रियायतें देकर उन्हें सहन करने और खुश रखने की नीति अपनाई है। क्योंकि वे समझते हैं कि मुसलमानों के समर्थन के बिना वे अपने मनोवांछित लक्ष्य को नहीं पा सकते। मुझे लगता है कि कांग्रेस ने दो बातें समझीं नहीं हैं। पहली बात यह है कि तुष्टीकरण और समझौते में अंतर होता है, और यह एक महत्वपूर्ण अंतर है। "तुष्टीकरण" का अर्थ है, एक आक्रामक व्यक्ति या समुदाय को मूल्य देकर अपनी ओर करना ; और यह मूल्य होता है उस आक्रमणकारी द्वारा किये गए, निर्दोष लोगों पर, जिनसे वह किसी कारण से अप्रसन्न हो, हत्या, बलात्कार, लूटपाट और आगजनी जैसे अत्याचारों को अनदेखा करना। दूसरी ओर, "समझौता" होता है दो पक्षों के बीच कुछ मर्यादाएं निश्चित कर देना जिनका उल्लंघन कोई भी पक्ष नहीं कर सकता। तुष्टीकरण से आक्रांता की मांगों और आकांक्षाओं पर कोई अंकुश नहीं लगता, समझौते से लगता है।

दूसरी बात, जो कांग्रेस समझ नहीं पाई है, वह यह है कि छूट देने की नीति ने मुस्लिम आक्रामकता को बढ़ावा दिया है; और, अधिक शोचनीय बात यह है कि मुसलमान इन रियायतों का अर्थ लगाते हैं हिंदुओं की पराजित मानसिकता और सामना करने की इच्छा-शक्ति का अभाव। तुष्टीकरण की यह नीति हिंदुओं को उसी भयावह स्थिति में फंसा देगी जिसमें मित्र देश (द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन, फ्रांस आदि) हिटलर के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाकर स्वयं को पाते थे".
ये केजरीवाल , ये ममता बनर्जी , ये मायावती , ये अखिलेश , ये राहुल गांधी और यह सारे छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी नेता क्या आज वैसा ही आचरण नहीं कर रहे हैं , जैसा कभी गांधी ने 1947 में देश के बंटवारे के समय किया था ? इन्हें देश को चोट पहुंचाने के लिए दाखिल हुए उस एक घुसपैठिए की अपेक्षा सारे हिंदू सिक्ख शरणार्थी नामंजूर हैं जो अपने प्राण बचाकर किसी प्रकार इस देश को अपना घर समझकर यहां आए हैं।
स्रोत-(पुस्तक-डॉ. अम्बेडकर की दृष्टि में मुस्लिम कट्टरवाद, लेखक- एस के अग्रवाल : शास्त्री संदेश )

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