


हमें भ्रमित करने के लिए विदेशी विद्वानों के लेख और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं। जबकि समकालीन भारतीय विद्वानों , लेखकों या कवियों के संदर्भों को सांप्रदायिक कहकर या पूर्वाग्रह ग्रस्त मानकर छोड़ दिया जाता है । पता नहीं यह कौन सी कसौटी है कि हमारे विद्वानों के साथ इतना अन्याय कर उनके तथ्यों को उपेक्षित कर दिया जाता है और विदेशी विद्वानों की मिथ्या धारणाओं को सत्य के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है ।
बीबीसी ने अपनी उपरोक्त समीक्षा में एक विदेशी विद्वान को उदधृत कर ऐसे ही भ्रामक तथ्यों को हम पर थोपने का प्रयास करते हुए लिखा था कि जर्मन-अमरीकी इतिहासकार एंड्रे गंडर फ्रैंक ने 'रीओरिएंट: ग्लोबल इकॉनमी इन द एशियन एज' नाम की किताब 1998 में लिखी थी । फ्रैंक का कहना था कि अठारहवीं शताब्दी के दूसरे हिस्से तक भारत और चीन का आर्थिक रूप से दबदबा था । स्पष्ट है इसी दौर में सारे मुस्लिम शासक भी हुए।"
उन्होंने इस किताब में लिखा है कि पूरे संसार पर दोनों देश हावी थे । यहीं से कई इतिहासकारों ने इस बात को आगे बढ़ाया । ज़्यादातर इतिहासकारों का यही मत है कि 18वीं शताब्दी के दूसरे हिस्से तक भारत और चीन हावी रहे । स्थिति तब बदली जब यूरोप का विस्तार आरम्भ हुआ और कई देशों में उपनिवेश बने । इसी दौरान अंग्रेज़ों का भारत पर क़ब्ज़ा हुआ।"
हमारा मानना है कि 1998 में जिस लेखक ने उपरोक्त पुस्तक लिखी उस पुस्तक को अकबर के समकालीन इतिहासकार और कवियों की अपेक्षा प्राथमिकता देना मूर्खता है। यदि उपरोक्त लेखक बात इतिहास का एक अंग है तो अकबर के विषय में इतिहासकार विंसेंट स्मिथ का यह कथन इतिहास का एक अंग क्यों नहीं हो सकता कि - "अकबर भारत में एक विदेशी शासक था । उसकी धमनियों में भारतीय रक्त की एक बूंद भी नहीं थी।"
अकबर के चरित्र के बारे में स्मिथ हमें बताता है कि "पुनीत ईसाई धर्म प्रचारक अक्वाबीबा ने अकबर को स्त्रियों से उसके कामुक संबंधों के लिए बुरी तरह फटकार लगाने का साहस किया था।"
जो लोग यह मानते हैं कि भारत में राजा के लिए कोई नियमावली या आचार धर्म नहीं था । उन्हें "याज्ञवल्क्य स्मृति" को पढ़ना चाहिए । जिसमें राजा के बारे में लिखा गया है कि - ''राजा को शक्ति संपन्न, दयावान, दानी , दूसरों के कर्मों को जानने वाला, तपस्वी , ज्ञानी एवं अनुभवी लोगों के विचारों को सुनकर निर्णय देने वाला , मन एवं इंद्रियों को अनुशासित रखने वाला , अच्छे एवं बुरे भाग्य में समान स्वभाव रखने वाला, कुलीन , सत्यवादी , मनसा वाचा , कर्मणा पवित्र , शासन कार्य में दक्ष, शारीरिक , मानसिक एवं बौद्धिक दृष्टि से सबल , व्यवहार एवं वाणी में मृदुल , आचार्य आदि प्रतिपादित वर्ण एवं आश्रम धर्मों का पोषक , अकृत्य कर्मों से अलग रहने वाला , मेधावी , साहसी , गंभीर , गुप्त बातों तथा दूतों के संदेशों एवं अपनी कमी की गोपनीयता की रक्षा करने वाला , शत्रुओं पर दृष्टि रखने वाला , भेदनीति का ज्ञाता , दुर्गुणों का रक्षक, तर्क शास्त्र , अर्थशास्त्र एवं शासन शास्त्र में प्रवीण होना चाहिए।"
इसके अतिरिक्त वेदों व अन्य आर्षग्रंथों सहित विदुर नीति , विष्णु नीति , आचार्य चाणक्य का अर्थशास्त्र जैसे अन्य कई ग्रंथ भी राजा के बारे में उसका धर्म निर्धारित करने की बात करते हैं । हमारा मानना है कि भारतवर्ष में मुगलों , अंग्रेजों या किसी भी विदेशी आक्रमणकारी शासक के शासनकाल में राजा के लिए इस प्रकार का एक भी नियम या उसके आचार व्यवहार को निर्धारित करने वाला उसका धर्म प्रतिपादित नहीं किया गया , जैसा भारतवर्ष में किया गया था ।
अकबर सहित प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी शासक के शासनकाल में हिंदुओं पर लगाया जाने वाला जजिया कर ही एक ऐसा प्रमाणिक साक्ष्य है जो इन सारे शासकों को पक्षपाती , अन्यायी और अत्याचारी सिद्ध कर देता है।
अत्याचारी शासकों से मुक्ति प्राप्त करना भारत के लोगों का प्रथम कर्तव्य था और ऐसा होना भी चाहिए कि विदेशी शासकों के शासन से कोई भी देश अपनी मुक्ति की योजना पर काम करे। अकबर भारत के लिए कभी महान नहीं था । पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में उसे महान कह कर संबोधित किया है । जबकि अकबर के बारे में बदायूंनी हमें बहुत अच्छे ढंग से बताता है अकबर में वे सारी कमजोरियां थीं जो इस्लाम को मानने वाले शासक में होनी चाहिए । बदायूनी के उन विवरणों को कहीं पर भी उल्लेखित नहीं किया जाता। हमारे लिए अकबर के बारे में प्रमाणित सूचना देने वाला केवल अबुलफजल जैसा चाटुकार दरबारी ही पर्याप्त है। उसी चाटुकार के विवरणों के आधार पर वर्तमान इतिहास हमें पढ़ाया जाता है और विदेशी विद्वान भी उसी के आधार पर अपनी विद्वता झाड़ लेते हैं।
जब अकबर ने चित्तौड़ को जीता तो उसकी विजय को उसने विशेष महत्व दिया । इस बात का पता इससे चलता है कि अकबर की इस विजय के लिए एक पुस्तक अलग से तैयार की गई थी । जिसका नाम 'फतेहनामा ए चित्तौड़' दिया गया था । इस पुस्तक के अवलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने चित्तौड़ को किस प्रकार 'जिहादी भावना' से प्रेरित होकर जीता था ? 'फतहनामा' में लिखा गया था - अल्लाह की ख्याति बढ़े , जिसने अपने वचन को पूरा किया। अकेले ही संयुक्त शक्ति को पराजित करा दिया और जिसके पश्चात कहीं भी कुछ भी नहीं है , सर्वशक्तिमान जिसने कर्तव्य परायण मुजाहिदों को बदमाश अविश्वासियों को अर्थात हिंदुओं को अपनी बिजली की भांति चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वध कर देने की आज्ञा दी थी । उसने बताया था कि उनसे युद्ध करो । अल्लाह उन्हें तुम्हारे हाथों में दंड देगा और वह नीचे गिरा देगा । वध कर धराशाई कर देगा और तुम्हें उनके ऊपर विजय दिला देगा। (कुरान सूरा 9 आयत 14 ) हमने अपना बहुमूल्य समय अपनी शक्ति से सर्वोत्तम ढंग से जिहाद में ही लगा दिया है और अमर अल्लाह के सहयोग से जो हमारे सदैव बढ़ते जाने वाले साम्राज्य का सहायक है, अविश्वासियों के अधीन बस्तियों , निवासियों , दुर्गों व शहरों को विजय कर अपने अधीन करने में लिप्त हैं । कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और तलवार के प्रयोग द्वारा इस्लाम के स्तर को सर्वत्र बढ़ाते हुए और बहुदेवतावाद के अंधकार और हिंसक पापों को समाप्त करते हुए उन सभी का विनाश कर दे । हमने पूजा स्थलों को उन स्थानों में मूर्तियों को और भारत के अन्य भागों में विध्वंस कर दिया है। अल्लाह की ख्याति बढ़े जिसने हमें इस उद्देश्य के लिए मार्ग न दिखाया होता तो हमें इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मार्ग ही न मिला होता - - -।"
इस तथाकथित महान बादशाह की मृत्यु के पश्चात जब इसका बेटा सलीम जहांगीर के नाम से बादशाह बना तो उसने अपने बाप की महानता को स्पष्ट करते हुए अपनी खुद की किताब में लिखवाया - "अकबर और जहांगीर के शासनकाल में 5 से 6 लाख तक की संख्या में हिंदुओं का वध हुआ था।" ( तारीखे - सलीमशाही अनु. प्राइस - 225 - 226 )
जिसके शासनकाल में लाखों हिंदुओं का वध किया गया हो उसे एक दयालु शासक के रूप में महान कैसे माना जा सकता है ?
देश के हिंदू समाज को जागना पड़ेगा । यदि नहीं जागे तो इन पर विदेशी शासकों के इतिहास को इस प्रकार थोप दिया जाएगा की फिर उसे ये चाह कर भी अपने कंधे से उतार नहीं पाएंगे। एक समय ऐसा आएगा जब हमें अपने महान क्रांतिकारियों के आजादी मांगने के विचार तक से भी घृणा हो जाएगी। यह लगेगा कि जब यहां पर सब कुछ अंग्रेजों व मुगलों ने ही किया है तो फिर उनसे आजादी लेने के लिए हमारे क्रांतिकारियों ने मूर्खतापूर्ण कार्य क्यों किया ?

हमारी दृष्टि में जावेद अख्तर के इस प्रश्न का उत्तर यही है कि डॉक्टर विंसेंट स्मिथ और बदायूँनी जैसे लेखकों को समझकर अकबर का 'सच' अब न केवल भारत अपितु सारे संसार की समझ में आने लगा है। उसके हृदय में हिंदुओं के प्रति वैसी ही घृणा का भाव था जैसा भाव अन्य मुस्लिम शासकों के भीतर मिलता है।
दूसरे , जावेद साहब को यह भी समझना चाहिए था कि पराधीनता चाहे कैसी भी हो , उसका विरोध होना चाहिए । ऐसे विरोध को करने का अधिकार प्रत्येक समाज और प्रत्येक राष्ट्र के पास सुरक्षित रहता है। यह एक सर्वमान्य सत्य है कि अकबर और उसके पूर्वज सभी विदेशी थे ।जिन्होंने यहाँ पर आकर जबरन अपना राज्य स्थापित किया और लोगों पर अत्याचार किए । उन अत्याचारों का सही निरूपण करना और ऐसे अत्याचारी शासकों का विरोध करना आज इतिहासकार का धर्म है तो उस समय अत्याचारों को झेल रहे हमारे तत्कालीन पूर्वजों का धर्म था । जिसे उन्होंने बहुत उत्तमता से निर्वाह किया था । यदि उन्होंने अपने धर्म का समय उत्तमता से निर्वाह किया तो उस उत्तमता को इतिहास में उत्तम स्थान देना हमारा राष्ट्रीय दायित्व है । अतः अकबर कभी भी महान नहीं कहा जा सकता । क्योंकि उसका विरोध करने के लिए उसके सामने महाराणा प्रताप हमारे इतिहासनायक के रूप में उपलब्ध हैं । ऐसा कभी नहीं हो सकता कि अत्याचारी भी महान हो और अत्याचारी का विरोध करने वाला भी महान हो । दोनों में से कोई एक ही महान हो सकता है । निश्चित रूप से जो राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग हैं उनके लिए महाराणा प्रताप ही महान हैं और जो दोगली मानसिकता के लोग हैं या भारत के सम्मान के साथ धोखा करने वाले लोग हैं उनके लिए अकबर महान हो सकता है।जावेद अख़्तर ने आगे लिखा , ''संगीत सोम द्वारा इतिहास की उपेक्षा हैरान करने वाला है। क्या उन्हें कोई छठी क्लास के स्तर के इतिहास की किताब देगा ? सर थॉमस रो जहांगीर के वक़्त में आए थे ? उन्होंने लिखा है कि हम भारतीयों का जीवन स्तर औसत अंग्रेज़ों से अच्छा था।''इस पर भी जावेद अख्तर साहब को समझना चाहिए था कि भारत ज्ञान में , धन में और सांस्कृतिक समृद्धि में अर्थात प्रत्येक क्षेत्र में अंग्रेजों से ही नहीं मुगलों से भी श्रेष्ठ था । उस समय तक मुगलों से पूर्व के तुर्कों द्वारा मचाई गई भरपूर लूट के उपरान्त भी भारत की आर्थिक समृद्धि समाप्त नहीं हुई थी। यही स्थिति मुगलों के समय में भी बनी रही । अपनी आर्थिक समृद्धि के कारण ही लोग अपना जीवन व्यापार चलाते रहे और समय-समय पर विदेशी शासकों का विरोध करने के लिए अपने लोगों की आर्थिक सहायता भी करते रहे । साथ ही यदि अवसर मिला तो बड़ी-बड़ी सेनाएं एकत्र कर विदेशी शासकों का क्रांतिकारी विरोध भी किया । इतिहास के उस सच को छुपा देना सचमुच भारत के लिए दुख का विषय है। जब जावेद अख्तर 'उपेक्षा' शब्द का प्रयोग करते हैं तो उनसे यह भी अपेक्षा की जाती है कि इतिहास के इस सच की वह भी 'उपेक्षा' न करें।
जब भारत के 'सच' की की गई 'उपेक्षा' उनकी समझ में आ जाएगी तो मुगलों या उनके अपने चहेते अकबर की 'उपेक्षा' होना कितना स्वाभाविक है ?- यह भी उनकी समझ में आ जाएगा।
जावेद अख़्तर ने अगले ट्वीट में लिखा , ''मेरे लिए हैरान करने वाली बात यह है कि जो अकबर से नफ़रत करते हैं, उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव से समस्या नहीं है। जो जहांगीर से नफ़रत करते हैं उन्हें वॉरेन हेस्टिंग से दिक़्क़त नहीं है जबकि वो वास्तविक लुटेरे थे।''
इस पर भी जावेद अख्तर साहब को भ्रान्ति रही। वास्तव में भारतवर्ष में राष्ट्रवादी चिंतन के लोग जितनी अकबर से घृणा करते हैं उतनी ही लॉर्ड क्लाइव से घृणा करते हैं और जितनी जहांगीर से घृणा करते हैं उतनी ही वारेन हेस्टिंग से भी करते हैं । भारत के इतिहास में यह सारे ही लुटेरे थे । उन्होंने भारत के सम्मान को लूटा और सबसे बड़ी लूट किसी देश , समाज और राष्ट्र के सम्मान की लूट ही होती है । यदि अकबर और जहांगीर वास्तव में मानवीय दृष्टिकोण रखने वाले शासक थे तो उन्हें भारतीय समाज की परंपराओं का ध्यान रखते हुए और भारत के वेदों , उपनिषदों , गीता आदि का सम्मान करने वाली राजाज्ञा जारी करनी चाहिए थीं । इसके अतिरिक्त भारत में आकर भारत से ही सीखकर भारत को भारत की आत्मा के अनुसार चलाने का प्रयास करते ना कि शरीयत के अनुसार जजिया लगाकर।
जावेद अख्तर जैसे लोगों को यह पता होना चाहिए कि हमारे वेद शास्त्र और रामायण आदि ग्रंथ हमें प्रारंभ से ही स्वतंत्रता प्रेमी और लोकतंत्र प्रिय बनाकर रखने में सफल रहे हैं । इनमें दिए हुए विचारों से प्रेरित होकर हमने कभी किसी भी विदेशी को अपना शासक स्वीकार नहीं किया । वीर सावरकर जी ने रामायण की ऐसी ही विशेषता से प्रेरित होकर लिखा है - ''अगर मैं देश का डिक्टेटर होता तो सबसे पहला काम यह करता कि महर्षि बाल्मीकि रामायण को जब्त करता । जब तक यह ग्रंथ भारतवासी हिंदुओं के हाथों में रहेगा तब तक न तो हिंदू किसी दूसरे ईश्वर या सम्राट के सामने सर झुका सकते हैं और न उनकी नस्ल का ही अंत हो सकता है ।
अंततः क्या है रामायण में ऐसा कि वह गंगा की भांति भारतवासियों के अंतः करण में आज तक बहती ही आ रही है ? - मेरी सम्मति में रामायण लोकतंत्र का आदी शास्त्र है , ऐसा शास्त्र जो लोकतंत्र की कहानी ही नहीं लोकतंत्र का प्रहरी , प्रेरक और निर्माता भी है । इसीलिए तो मैं कहता हूं कि अगर मैं इस देश का डिक्टेटर होता तो सबसे पहले रामायण पर प्रतिबंध लगाता ।
जब तक रामायण यहां है तब तक इस देश में कोई भी डिक्टेटर पनप नहीं सकता । रामायण की शक्ति कौन कहे ? क्या काही नजर आता है ऐसा सम्राट ? साम्राज्य , अवतार या पैगंबर जो राम की तुलना में ठहर सके । सबके खंडहर आर्त्तनाद कर रहे हैं , किंतु रामायण का राजा , उसका धर्म , उसके द्वारा स्थापित रामराज्य , भारतवासियों के मानस में आज तक भी ज्यों का त्यों जीवंत है ? चक्रवर्ती राज्य को त्याग वल्कल वेश में भी प्रसन्न वदन , राजपुत्र किंतु वनवासी शबरी के बेर , अहिल्या का उद्धार कर लंका जीती । मगर फूल की तरह उसे विभीषण को अर्पण कर दिया । जिसने अपने भाई का विरोध कर प्रजातंत्र का ध्वज फहराया था । ऐसे थे रामायण के राम । जिनकी जीवन गाथा रामायण में अजर अमर है। इस देश को मिटाने के लिए बड़ी बड़ी ताकतें आयीं । मुगल , शक , हूण आये , किन्तु इसे वे मिटा ना सके। कैसे मिटाते ? - पहले उन्हें रामायण को मिटाना चाहिए था । "( विनायक दामोदर सावरकर : पृष्ठ 22 )
जावेद अख्तर जैसे लोगों को यह पता होना चाहिए कि हमारी मौलिक चेतना सदैव वेदों और रामायण जैसे ग्रंथों से चेतनित रही। यही संस्कृति बोध ब। हमें आज भी अकबर को विदेशी आक्रमणकारी और महाराणा प्रताप को महान हिंदू योद्धा कहने के लिए प्रेरित करता है।
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