इतिहास हमेशा सिखाता है। इतिहास दोहराने के लिए नहीं बल्कि भूतकाल में की गई भूलों को सुधारने, उनसे सीखने और समझने के लिए होता है। यूं तो तोते भी इतिहास पढ़ लेते हैं।
हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमने वामपंथी और कांग्रेसी इतिहासकारों द्वारा परोसे गए इतिहास को तोते की तरह रट लिया।
कश्मीर, केरल, हैदराबाद, पंजाब, असम, दिल्ली और अब पश्चिम बंगाल में जो कुछ हो रहा है, उससे भी हम कुछ सीखना नहीं चाहते। क्योंकि वामपंथी इतिहासकारों ने हमें सिखाया कि हम तो बहुत पिछड़े हुए, दकियानूसी विचारधारा और जातिपाँति में बंटे हुए लोग थे। मुगलों और अंग्रेजों ने हमें योग्य और आधुनिक बनाया। लेकिन किस प्रकार से हमारी संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों को पैरों तले रौंदा गया, कैसे हमने अपना आत्मसम्मान और प्रतिकार करने की शक्ति को खो दिया, यह जानने की न तो हमने कभी कोशिश की और न ही वामपंथी इतिहासकारों ने हमें यह समझाने का कोई प्रयास ही किया।
अखंड भारत किस तरह और कब खण्ड-खण्ड हो गया, हमें कुछ मालूम ही नहीं। चंद लोगों की सियासी धूर्तता और स्वार्थ के चलते कैसे हमारे अपने लाखों लोगों की लाशों पर पाकिस्तान की नींव रखी गई, हम समझ ही नहीं सके।
किस प्रकार से एक हठी इंसान ने सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे योग्य व्यक्ति को नकार कर एक चाटूकार के सर पर ताज रखवा दिया, यह हमें कभी मालूम ही नहीं हुआ। किस चालाकी और धूर्तता के साथ वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, गुरु गोवलकर, भगत सिंह, पंडित बिस्मिल, ऊधम सिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस सरीखे नायकों के बलिदानों को किनारे कर मात्र चरखे और चश्मे को स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बना दिया गया, इसपर कभी हमारी नज़र गई ही नहीं।
महाराणा प्रताप से लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज तक और मंगल पांडे से लेकर सावरकर तक हमने सदैव अपने नायकों की छवि को खलनायक के रूप में देखा और समझा।
आज फिर एक नायक हमारे बीच आया है, जिसने हमें हमारा खोया हुआ आत्मसम्मान और आत्मविश्वास दिलाने का हरसम्भव प्रयास किया है और कर रहा है, परन्तु हम मूर्खों और कृतघ्नों की भांति उसका अपमान कर उसे खलनायक सिद्ध करने का हरसम्भव प्रयास कर रहे हैं। आख़िर हम इतिहास से कब सीखेंगे?
🖋️ मनोज चतुर्वेदी "शास्त्री"
समाचार सम्पादक- उगता भारत हिंदी समाचार-पत्र
(नोएडा से प्रकाशित एक राष्ट्रवादी समाचार-पत्र)
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