चरक ने हजारों साल पहले चेताया था महामारी से, पर वायरस की जगह आयुर्वेद से लड़ रहा IMA

ईसाई मजहबी गतिविधियों को आगे बढ़ाने वाले JA जयलाल की अध्यक्षता वाले ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA)’ हाथ धो कर बाबा रामदेव के पीछे पड़ा है। मरीजों के इलाज के लिए और लोगों को स्वस्थ रखने के लिए कौन सी पद्धति बेहतर है, ये तो बड़ी चर्चा का विषय है और इस पर सभी की राय अलग-अलग हो सकती है। लेकिन, प्राचीन काल से ही आयुर्वेद करोड़ों लोगों के लिए वरदान बन कर कार्य कर रहा है, इस पर शायद ही किसी को शक हो।
लेकिन भारत ने तुष्टिकरण और पश्चिमी सभ्यता के आगे घुटने टेक हिन्दू शास्त्र, वेद और पुराणों को भुला दिया, जिन्हें बड़ी साधना और तपस्या से रचा गया था। 
जब तक देश में आयुर्वेद का बोलबाला था, वैद्य नब्ज पढ़कर बीमारी बताते थे, आज टेस्टिंग के बिना इलाज आगे ही नहीं बढ़ता, दूसरे अर्थों में कहा जाए कि टेस्टिंग भी एक व्यापार बन गया है। टेस्टिंग भी उसी लैब से जहाँ से डॉक्टर बताए, क्यों? कारण स्पष्ट है कमीशन। नब्ज बिना टेस्टिंग के सबकुछ खुली किताब की तरह खोलकर रख देती है, जिसे कोई अल्ट्रा साउंड, एक्सरे या कोई अन्य टेस्ट नहीं बता सकता। नब्ज का व्यक्तिगत अनुभव लगभग 30 साल पहले लोकनायक जयप्रकाश हॉस्पिटल में हुआ था, जब किसी परिचित को देखने इमरजेंसी में पहुंचा, तभी एक बुजुर्ग हकीम जी अपनी रीढ़ की हड्डी का पानी निकलवाने आए। डॉक्टर उन्हें टेस्टिंग के लिए बोलता रहा, लेकिन हकीम जी अपनी बात। अपनी हकीमियत दिखाने उन्होंने वहां आये एक मरीज की नब्ज पढ़ बीमारी ही नहीं बताई, बल्कि यहाँ तक बता दिया कि जो वह जो  खाकर आया है, नहीं खाना था और जब तक यह बीमारी ख़त्म न हो ये चीजें मत खाना। हकीम जी की डॉक्टरी देख डॉक्टर का हैरानी से मुंह ही खुला रहा गया। हकीम जी ने डॉक्टर को कहा कि "आप मरीज से पूछते हो क्यों आया है, क्या बीमारी है, अरे नब्ज पढ़ो, सब मालूम हो जायेगा, मरीज झूठ नहीं बोल पायेगा।" आखिर में डॉक्टर को हकीम जी की रीढ़ की हड्डी का पानी बिना किसी टेस्टिंग के निकालने के लिए विवश होना पड़ा था। आजतक उन हकीम जी बात भूल नहीं पाया। 
एक और व्यक्तिगत अनुभव, हड्डी टूटने पर एलोपैथ पद्द्ति 2 से 3 महीने का समय लेती हैं, जबकि कटनी में हनुमान मंदिर में जड़ीबूटियों से तुरंत हड्डी जोड़ दी जाती है। यह हनुमान मंदिर हड्डी वाले मंदिर से ज्यादा मशहूर है। बहुत मरीज जाते हैं। सुबह अपनी पूजा एवं हवन के बाद उपस्थित जितने भी मरीज हैं, सब को मंदिर में मूर्ति के चारों तरफ बैठाकर 5/10 मिनट राम-हनुमान भजन के बाद आंखें बंद कर बैठने को कहा जाता है, फिर एक महंत बाल्टी में जड़ीबूटियां लाकर अपने हाथों से सबके मुंह में डाल उन्हें चबाकर उनका रस पीने और शेष जड़ीबूटियों को सटकने के लिए कहा जाता है। जब मरीजों को आंखें खोलने के लिए कहने के साथ ही साथ यह भी कहा जाता है, जिनके प्लास्टर चढ़ा है, जाकर एक्सरे कर लो, हड्डी जुड़ गयी है। बस शायद महीना भर लाल मिर्च और खटाई का परहेज करना पड़ता है। 
ऐसे अनेकों उदाहरण हैं, जिनका उपचार हर रसोई में मौजूद है। महिलाओं को अपनी सुंदरता की ज्यादा चिंता रहती है, किसी फेस पाउडर, क्रीम या अन्य चीजों को अपनाने की बजाए सुबह उठकर एक चाय का चम्मच दूध अपने चेहरे पर मल लें, महीने भर बाद उन पर ऐसा निखार आना शुरू हो जायेगा किसी क्रीम अथवा पाउडर को भूल जाएंगी।    
टूलकिट या तो भगवान है या टूलकिट वाले हैं :- “ मौत के सौदागर "
टूलकिट के सामने आते ही, केवल सामने आते ही दवाइयों का अभाव समाप्त हो गया, कालाबाजारी समाप्त हो गयी, रेमडिसिविर की माँग समाप्त हो गयी; यही नहीं, WHO को भी ज्ञान प्राप्त हो गया और WHO ने रेमडिसिविर को कोरोना के इलाज से ही हटा दिया। उल्लेखनीय है कि रेमडिसिविर पहले भी कोरोना की दवाई नहीं थी, फिर ऐसा क्या किया गया कि रेमडिसिविर की लाखों, करोड़ों डोज मुँहमाँगी कीमत पर बिकीं और इसी रेमडिसिविर के कारण अनेकानेक लोग मृत्यु को प्राप्त हुए।
टूलकिट के सामने आते ही, केवल सामने आते ही.. ..पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी दूर हो गयी। अब ऑक्सीजन की कोई पूंछ ही नहीं रही ।
टूलकिट के सामने आते ही , केवल सामने आते ही.. देश में लगभग 50% ICU बेड खाली हो गये। अभी दस दिन पहले देश में ऐसे 10,000 से अधिक बेड की कमी थी।
टूलकिट के सामने आते ही, केवल सामने आते ही गंगा में लाशें बहनी बंद हो गयीं ; जलती चिता की चर्चा पर विराम लग गया ; श्मशान से हो रही पत्रकारिता खो गयी ; कोरोना से हुई मौत का दिन-रात का प्रसारण बन्द हो गया ; मौत पर अनवरत चल रही राजनीति शांत हो गयी।
टूलकिट के सामने आते ही, केवल सामने आते ही.. देश की लगभग सभी मीडिया -संस्थानों की रुचियाँ बदल गयीं, उनके लक्ष्य बदल गये; वैक्सीन पर ज्ञान देने वाले कोप भवन में चले गये ; लगातार नकारात्मक संदेश देने वाले छिप गये ; सारे आमी, वामी, कामी बिल में चले गये।
एक बात तो स्पष्ट है कि जब तक टूलकिट सामने न था , संकट चरम पर था ; टूलकिट के सामने आते ही संकट नियंत्रण में है।
अब टूलकिट या तो भगवान है या टूलकिट वाले हैं :- “ मौत के सौदागर "

अब आते हैं, असली मुद्दे पर, ज्ञात रहे, बाबा रामदेव उत्पादनों के आने से पहले तक मंजन और पेस्ट बनाने वाली कंपनियां विज्ञापनों के माध्यम से दांतों को नमक, कोयला और न जाने कितनी चीजों से दूर रखने के कहा करती थीं, दूसरे शब्दों में डराती थीं, लेकिन जब से बाबा रामदेव ने अपना पेस्ट बाजार में लाने के बाद से सबकी बोलियां बदल गयीं, अब कोई वेदशक्ति के नाम से तो कोई किसी अन्य नाम से रामदेव के नुक्से पर आधारित पेस्ट बना रहे हैं।  

एलोपैथी और आयुर्वेदिक के बीच जो लड़ाई हैं,उसका कारण ये है,जब बाबा रामदेव बोलते थे,डेंगू बुखार में पपीते के पते का जूस पियो तो ये एलोपैथी डॉक्टर बोलते थे,नीम हकीम खतराय जान ,ये खुद पपीते के पते का 15  कैप्सूल 520 रुपये में बेच रहे हैं।

एलोपैथी शब्द का ही इस्तेमाल 19वीं शताब्दी (सन् 1852) में शुरू हुआ, जबकि आयुर्वेद भारत में पिछले कई हजार वर्षों से सफलतापूर्वक लोगों का इलाज कर रहा है। IMA को चाहिए कि वह आयुर्वेद व एलोपैथी साथ कैसे कार्य कर सकते हैं, इस पर आगे बढ़े। उसे उन सवालों के जवाब भी देने चाहिए जो ईसाई धर्मांतरण को लेकर उसके अध्यक्ष पर लगे हैं। साथ ही यह भी जगजाहिर है कि लोगों के बीच यह धारणा गहरे तक है कि डॉक्टर फार्मा कंपनियों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं।

आयुर्वेद को खारिज करने की जगह आईएमए को इन धारणाओं को तोड़ने के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए। IMA ये भी बताए कि उसके अध्यक्ष के बयान मानें या मेडिकल दिशा-निर्देशों को? वे कोरोना के प्रकोप के कम होने के लिए भी जीसस को ही क्रेडिट देते हैं। उन्होंने कहा था कि जीसस की कृपा से ही लोग सुरक्षित हैं और इस महामारी में उन्होंने ही सभी की रक्षा की है। क्या IMA भी दवाओं, इंजेक्शन, सर्जरी, ऑक्सीजन सिलिंडर्स इत्यादि को त्याग यही इच्छा रखता है?

इस विवाद पर बात करेंगे लेकिन उससे पहले ये बताना आवश्यक है कि जब एलोपैथी का जन्म भी नहीं हुआ था और एलोपैथी दवा बनाने वालों के पूर्वज भी जंगलों में रहते थे, तब चरक और सुश्रुत जैसे विद्वानों ने संक्रामक रोगों के बारे में न सिर्फ बताया था, बल्कि इससे बचाव के उपायों पर भी चर्चा की थी। आज जब ये चर्चा हो रही है कि कोरोना वायरस को चीन के वुहान स्थित लैब में बनाया गया था, ये मानव निर्मित है, ऐसे में हमें आयुर्वेद के जनकों की बातें जाननी चाहिए।

                                                        नारद पुराण में पहले ही उल्लेख था 

कई हज़ार वर्ष पूर्व ही आयुर्वेद ने संक्रामक बीमारी से सचेत कर दिया था 

BHU और उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय के विद्वानों ने अप्रैल 2020 में एक रिसर्च पेपर तैयार किया था, जिसमें प्राचीन काल के आयुर्वेदिक साहित्य में संक्रामक रोगों का जिक्र होने की बात कही गई थी। संक्रामक रोग, अर्थात सूक्ष्म जीवों द्वारा फैलाए जाने वाले रोग। वे रोग, जो एक जीव से दूसरे जीव में जा सकता है। ये वातावरण के जरिए जानवरों या पेड़-पौधों के माध्यम से इंसान के शरीर में प्रवेश कर सकता है।

स्वच्छ जल का न उपलब्ध होना, शौचालय न होना या मल-मूत्र जैसे अवशिष्ट पदार्थों को ठिकाने लगाने की उचित व्यवस्था न होना, भोजन-पानी में हाइजीन न होना और आसपास का वातावरण प्रदूषित होने से संक्रामक रोग जन्म ले सकते हैं। बाढ़ और सूखे जैसी स्थिति में ये रोग आ सकते हैं या फिर युद्ध या औद्योगिक दुर्घटनाओं की स्थिति में ये मानव निर्मित भी हो सकता है। इसी को आयुर्वेद में जनपदोध्वंस कहा गया है।

इसमें एक पूरे इलाके के लोग किसी रोग से ग्रसित हो जाते हैं, जो संभवतः संक्रामक स्वभाव का होता है। कोरोना वायरस ठीक उसी तरह है। जनपदोध्वंस में रोग वायु, जल और मिट्टी से फ़ैल सकता है। काल, अर्थात मौसम के हिसाब से इसके खतरे बढ़-घट सकते हैं। इतिहासकार कहते हैं कि चरक संहिता 200 BCE की पुस्तक है, लेकिन हिन्दुओं का मानना है कि ये इससे भी कहीं अधिक प्राचीन है।

संक्रामक रोगों के विषय में ये क्या कहता है, आइए जानते हैं। इसमें इसका कारण ‘अधर्म’ को बताया गया है, अर्थात ईमानदारी के साथ प्रकृति और राष्ट्र के नियमों का पालन न करना। आज के जमाने के हिसाब से समझिए तो प्रदूषण से लेकर ग्लोबल वॉर्मिंग तक जैसी चीजें मानव निर्मित कारणों से ही हैं। इसी तरह 800 BCE के माने जाने वाले सर्जरी के जनक सुश्रुत ने इन्हें ‘औपसर्गिक रोग’ नाम दिया है।

आज डॉक्टर से लेकर कई वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि कोरोना वायरस या तो चीन का ‘बॉयो हथियार’ है या फिर वुहान के लैब से गलती से लीक हुआ है और इसे ढकने के लिए उसने अपना प्रोपेगेंडा चलाया। चरक जिस ‘अधर्म’ की बात कर रहे थे, कहीं ये वही तो नहीं? उन्होंने ऐसे संक्रामक रोगों के लिए मानव निर्मित कारणों को यूँ ही नहीं जिम्मेदार ठहराया था, जो पूरी की पूरी जनसंख्या को निगल सकते हैं।

वो लिखते हैं कि कुष्ट रोग, ज्वर और शोष (एक प्रकार की निर्बलता) इस तरह की बीमारियाँ हो सकती हैं। फिर उन्होंने बताया है कि कैसे लोगों के एक-दूसरे से संपर्क में आने, आसपास उसी हवा में साँस लेने, एक ही भोजन को अलग-अलग लोगों द्वारा खाने, साथ में सट कर सोने, बैठने, कपड़ों या माल्यार्पण और एक ही चंदन का लेप लगाने (अब इसे साबुन समझिए) से ये रोग फ़ैल सकता है। इसमें स्पष्ट लिखा है कि आसपास की चीजें गंदी होने से ये रोग फैलते हैं, जो आज भी वैज्ञानिक मानते हैं।

घर, बिस्तर अथवा गाड़ी जैसे चीजों की उचित साफ़-सफाई न करने से ऐसे रोग फैलते हैं। आज भी हमें यही कहा जा रहा है कि आसपास की हर चीज को सैनिटाइज कर के रखें। ‘चरक संहिता’ में भी स्पष्ट लिखा है कि भोजन या एक-दूसरे को छूने के जरिए फैसले वाले खतरनाक रोग किसी क्षेत्र में पूरी जनसंख्या की जान ले सकते हैं। दूषित पौधों या जल से होने वाले रोगों को तब ‘मारक’ नाम दिया गया था।

इसी तरह ईसा के जन्म से 100 वर्ष पूर्व के माने जाने वाले महर्षि भेला ने अपनी संहिता में ऐसे रोगों के बचने के लिए पंचकर्म की बात की है – मुँह के द्वारा उलटी कर के अवांछित पदार्थों को बाहर निकालना, शरीर से अवांछित पदार्थों को अन्य मार्गों से बाहर निकालना, नाक की सफाई या नाक के मार्ग से दवा लेना, वस्तिकर्म (Enema) और अचार-विचार का पालन करना। इसमें साफ़-सफाई के अलावा ज्वर में गर्म पानी पीने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है, जिसकी सलाह आज हमें आधुनिक विज्ञान भी दे रहा है।

यही कारण है कि आयुर्वेद में दिनचर्या और रात्रिचर्या के अलावा ऋतुचर्या की भी बात की गई है। विद्वानों का मानना है कि ‘अष्टांग आयुर्वेद’ की विधियों में से 3 तो विशेषतः महामारी से निपटने के लिए ही बनाए गए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) भी आयुर्वेद को मान्यता देता है और मानता है कि वैदिक उपचार व्यवस्था विश्व की सबसे प्राचीनतम विधा में से एक है। WHO इसे 3000 वर्ष पुराना मानता है। तक्षशिला विश्वविद्यालय में आयुर्वेद के लिए एक अलग विभाग ही था।

आयुर्वेद जीवन जीने की पद्धति भी सिखाता है। विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद में भी पेड़-पौधों के सही उपयोग को लेकर कई चीजें लिखी हुई हैं। आत्रेय और धन्वन्तरि जैसे वैद्यों ने 3000 से भी अधिक वर्ष पूर्व आयुर्वेदिक पद्धतियों को आगे बढ़ाया। WHO आयुर्वेदिक पद्धति में प्रशिक्षण की भी व्यवस्था कर रहा है। ‘ट्रेडिशनल मेडिसिन’ का मुख्य सेंटर भारत में संस्था द्वारा खोला जा रहा है। WHO ने आयुर्वेद व इसके प्रशिक्षण की जानकारी देते हुए एक पेपर भी प्रकाशित किया था।

आयुर्वेद को हर कदम पर अग्नि परीक्षा के लिए कहा जाता है। लेकिन एलोपैथी को सौ गलतियाँ माफ।" ये एक फैक्ट है, या सिर्फ मेरे दिमाग का भ्रम ?... कहना मुश्किल है।

ताज़ा वायरस के मामले में... पहले हाईड्रॉक्सिक्लोरोक्विन को अचूक माना... दुनिया में भगदड़ मची उसको लेने की। फिर उसका नाम हटा लिया, कहा कि वो प्रभावी नहीं। सैनिटाइजर को हर वक़्त जेब में रखने की सलाह के बाद उसके ज़्यादा उपयोग के खतरे भी बता दिए गए। 

फिर बारी आई प्लाज़्मा थैरेपी की। पूरा माहौल बनाया, रिसर्च रिपोर्ट्स आईं, लोग फिर उसमें जी जान से जुट गए। प्लाज्मा लेने, अरेंज और मैनेज करने और प्लाज़्मा डोनेट करने में भी। और फिर बहुत सफाई से हाथ झाड़ लिया, ये कहते हुए... कि भाई ये इफेक्टिव नहीं है।

स्टेरॉयड थैरेपी तो क्या कमाल थी भाई साहब। कोई और विकल्प ही नहीं था। कई अवतार मार्केट में पैदा हुए। कालाबाज़ारी हो गई, बेचारी जनता ने भाग दौड़ करते हुए, मुंहमांगे पैसे दे कर किसी तरह उनका इंतज़ाम किया। अब कहा गया कि ब्लैक फंगस तो स्टेरॉयड के प्रयोग का नतीजा है।

रेमडेसीवीर इंजेक्शन तो 'जीवनरक्षक' अलंकार के साथ मार्केट में अवतरित हुआ। इसको ले कर जो मानसिक, शारीरिक और आर्थिक फ्रंट पर युद्ध लड़े जाते उनकी महिमा तो मीडिया में लगभग हर दिन गायी जाती। लेकिन अरबों-खरबों बेचने कमाने के बाद अब उसको भी 'अप्रभावी' कह कर चुपचाप साइड में बैठा दिया।

दूसरी तरफ 400 रुपये के मासिक खर्च वाले कोरोनिल, 20 रुपए के काढ़े और 10 रुपए की अमृतधारा को हर दिन कठघरे में जा कर अपने सच्चे और कारगर होने का रोज प्रमाण देना पड़ता है।

क्लीनिकल रिसर्च ही अगर मेडिकल सायन्स का आधार है तो फिर इतने यू टर्न क्यों? टेस्ट अगर जनता पर ही करने हैं और फिर रिसर्च से पलटी मारना है तो फिर हिमालयन जड़ी बूटी वाला खानदानी शफाखाना क्या बुरा है !

जनता को मूर्ख बनाने का फॉर्मूला शायद बहुत सीधा है: "महंगा है, अंग्रेजी नाम है... तो असर ज़रूर करेगा। साइड इफ़ेक्ट? वो तो हर चीज में होते हैं।" 

और आयुर्वेद: आपको अभी पीआर के फ्रंट पर बहुत सीखना है। रिसर्च प्रमाण होते हुए भी मान्य नही। इसलिये अपना eco system तैयार करो। नहीं तो, किसी दिन संजीवनी बूटी आई तो उसको भी ये लोग नकार देंगे। 

ऐसे में जब बाबा रामदेव कई रोगों के स्थायी समाधान को लेकर एलोपैथी के ठेकेदारों से सवाल पूछते हैं तो इसमें दम लगता है। उनका सवाल बस इतना है कि है BP, डायबिलिज टाइप-1,2, थायराइड, अर्थराइटिस, अस्थमा, हार्ट ब्लॉकेज अनिद्रा, कब्ज, पायरिया जैसे कई रोगों के लिए क्या कोई दवा है? उनका कहना है कि कई बीमारियों में तो सर्जरी ही एकमात्र उपाय है। IMA को चाहिए कि वो मिशनरी चंगुल से बाहर निकले और आयुर्वेद व एलोपैथी साथ कैसे कार्य कर सकते हैं, इस पर आगे बढ़े।

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