शनिदेव का हनुमान और शिव जी के साथ सम्बन्ध


शनिदेव निष्पक्ष दण्डाधिकारी है। चाहे देव हों या असुर, मनुष्य हो या पशु सबको उनके कर्मो के आधार पर यह दण्ड देते हैं।
एक बार शनि ने शिव को भी नहीं छोड़ा :
कैलाश पर्वत पर एक दिन शिवजी विराजमान थे तभी शनिदेव उनके दर्शन करने आ गये।
अपने गुरु को प्रणाम करके शनिदेव ने बताया कि महादेव मुझे क्षमा करें , कल मैं आपकी राशि में प्रवेश करने वाला हूँ और मेरी वक्र दृष्टि से आप बच नहीं पायेंगे।
शिवजी जानकर हैरान हो गये कि उनका शिष्य अपने कर्म दंड के लिये उन्हें भी नहीं छोड़ रहा।
शिव जी ने शनिदेव से पूछा कि कितने समय तक उनको शनिदेव की वक्र दृष्टि का सामना करना पड़ेगा।
शनिदेव बोले कि उनकी दृष्टि कल सवा पहर तक रहेगी।
अगले दिन चिंतित महादेव सुबह ही धरती लोक पर चले गये और शनि से बचने के लिये हाथी का वेश बनाकर इधर उधर छिपते रहे।
जब दिन ढला गया तो पुनः शिव वेश में कैलाश आ गये। शिवजी मन ही मन खुश हो रहे थे कि उन्होंने आज शनिदेव को अच्छे से चकमा दे दिया।
शाम को शनि देव उनसे पुनः मिलने कैलाश आये।
शिवजी ने शनिदेव से कहा कि आज आपकी वक्र दृष्टि से तो बच गये हैं।
यह सुनकर शनि मुस्कुराये और बोले कि यह मेरी ही दृष्टि का प्रभाव था कि आज पूरे दिन आप हाथी बनकर धरती पर फिर रहे थे। आपको पशु योनि झेलनी पड़ी यह भी मेरा ही प्रभाव था।
यह सुनकर महादेव को शनि और भी प्यारे लगने लगे और कैलाश पर शनि देव के जयकारे लगने लगे।
हम मनुष्यों में शनिदेव का भय है क्योंकि यह मनुष्यों के अच्छे बुरे कर्मो का फल देते हैं।
कलियुग में पाप चरम पर है अत: हमारे द्वारा पाप भी अधिक होते है और शनिदेव इसका भुगतान करने आ जाते है। पर ऐसे शनिदेव भी ऐसे दो व्यक्तियों से भय खाते हैं।
धार्मिक शस्त्रों के अनुसार शनिदेव एक तो शिव के ग्यारवें अवतार हनुमानजी से डरते हैं और दूसरे ऋषि पिप्लाद से।
हनुमानजी की तरह ही ऋषि पिप्लाद को भी भगवान शिव का अवतार माना जाता है। ऋषि पिप्लाद के जन्म लेते ही शनिदेव की उन पर दशा पड़ गयी और इसी कारण उन्हें बचपन में ही अनाथ होना पड़ा।
यह बात उन्हें जब पता चली तो उन्हें शनिदेव पर अत्यधिक क्रोध आया और उन्होंने प्रतिशोध लेने की भावना से ब्रह्मा जी की पूजा और तपस्या की। उनकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा ।
पिप्लाद ने शनि को सबक सिखाने के लिये ब्रह्मदंड मांग लिया और शनिदेव को खोजने लगे।
एक पीपल के पेड़ पर उन्हें शनिदेव दिखाई दिये और उन्होंने आव देखा ना ताव सीधे उन्हें पैर पर हमला कर दिया। इसकी कारण शनि अपंग हो गये। उन्होंने शनि को ही उनकी करनी का दंड दे दिया। इसी कारण शनि आज भी पिप्लाद से भय खाते हैं।
पिप्लाद का जन्म पीपल के वृक्ष के नीचे हुआ था और उन्होंने इसी पीपल के पेड़ के नीचे ब्रह्माजी की तपस्या की और इसी पीपल के पत्ते भी खाये।
अत: उनके जीवन पर पीपल के वृक्ष का अधिक प्रभाव रहा है। शनिवार शनि और हनुमान जो दोनों का वार है और पीपल का वृक्ष पिप्लाद की याद दिलाता है अत: इस दिन पीपल की पूजा करने से शनि का प्रकोप कम हो जाता है ।
सार

इस कथा का सार है कि मनुष्य को बुरे कर्मों से डरना चाहिए, लेकिन लोग बुरे कर्मों का त्याग न करके दंडाधिकारी का डर मन में रखते हैं और उस डर के कारण वे डर और पाप दोनों का फल भोगते हैं। 

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