हनुमान् का आध्यात्मिक अर्थ तैत्तिरीय उपनिषद् में दिया है-दोनों हनु के बीच का भाग ज्ञान और कर्म की 5-5 इन्द्रियों का मिलन बिन्दु है। जो इन 10 इन्द्रियों का उभयात्मक मन द्वारा समन्वय करता है, वह हनुमान् है। शरीर के भीतर नाभि का मणिपूर चक्र सूर्य केन्द्र (solar plexus) है। वहां से वाणी का जन्म होता है। कण्ठ तक बाल्य अवस्था में रहती है। वही बन्द कर दिया जाय तो ज्ञान बाहर नहीं प्रकट होगा, अन्धकार हो जायेगा। हनुमान् की तरह ज्ञान-कर्म का जिसने संयोग कर रखा है, उसके द्वारा यह सूर्य तेज बाहर निकलने पर प्रकाश होगा। साधक ब्राह्मण की वाणी से ही प्रकाश होता है।अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्वरूपम्। उत्तरा हनुरुत्तररूपम्। वाक् सन्धिः। जिह्वा सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्। (तैत्तिरीय उपनिषद्, 1/3/5)
आधिभौतिक रूप में पृथ्वी सतह पर सूर्य की गति 2 प्रकार दिखती है, वार्षिक गति मकर से कर्क रेखा तक है जिनको नेमि कहते हैं उत्तर में इसकी सीमा नैमिषारण्य है, दक्षिण विन्दु अरिष्टनेमि है)। दैनिक गति में पूर्व क्षितिज पर उदय तथा पश्चिम क्षितिज पर अस्त होता है। ये दोनों क्षितिज हनु या हारियोजन हैं।
अथ हारियोजनं गृह्णाति । छन्दांसि वै हारियोजनश्छ्न्दांस्येवैतत् सन्तर्पयति तस्माद्धारियोजनं गृह्णाति (शतपथ ब्राह्मण, 4/4/3/2) एवा ते हारियोजना सुवृक्ति ऋक् 1/61/16, अथर्व 20/35/16)
जब सूर्य पूर्व क्षितिज पर आता है, तो क्षितिज से 2000 योजन (युग-सहस्र योजन पर भानू) नीचे रहने पर ही वह प्रकाश के वलन (वायुमण्डल में किरण मुड़ने से) दिखने लगता है। सूर्य सिद्धान्त में सूर्य व्यास 6500 योजन (यहां योजन = 214किमी) है। अर्थात् प्राय्ः 30% भाग क्षितिज से नीचे रहने पर दिखता है। उस समय काल का सूर्य बाल सूर्य है जो हनु के भीतर रहता है।
आकाश में 49 मरुत् की सीमा ब्रह्माण्ड है। उसकी सन्तान या बाहरी आवरण हनुमान् है जिसके भीतर ब्रह्माण्ड या सूर्य का परम पद है (जहां तक वह विन्दु रूप में दिख सकता है) सौर मण्डल में भी वायु 22 अहर्गण तक अर्थात् यूरेनस कक्षा तक है। उसका आवरण भी हनुमान् है जिसके भीतर सूर्य रूप विष्णु है।
No comments:
Post a Comment