पंजाब-हरियाणा के शंभू बॉर्डर पर पिछले 7 दिन से आंदोलन कर रहे किसान अब दिल्ली कूच करने को तत्पर हैं, जिसे मोदी विरोधी विपक्ष, जो अपने कार्यकाल में किसानों को शोषण करने वाले अपना समर्थन दे रहे हैं। तथाकथित किसान नेता और इनको समर्थन देने वाली पार्टियां भूल रही है कि जितना यह आंदोलन उग्र होगा, उतना ही इन सब पर कहर बनकर टूटेगा, यह भी चर्चा है कि कहीं 18वी लोकसभा में विपक्ष केवल नाममात्र ही रह सकता है। जनता जानती है कि ये तथाकथित किसान आंदोलन और इसे उग्र बनाने में संलग्न सियासत पार्टियां जॉर्ज सोरोस की भीख से चल रहा है। जॉर्ज मोदी सरकार को सत्ता मुक्त करने के लिए 1000 करोड़ रूपए खर्च कर रहा है। CAA विरोध से लेकर वर्तमान किसान आंदोलन सब में George Soros की दी भीख पर हो रहा है। जिसका खुलासा इन किसान नेताओं और समर्थन दे रहे नेताओं और पार्टियों के बैंक खातों की गहन जाँच के बाद ही सामने आएगा। देखिए वीडियो :
MRP और MSP का अंतर न जानने वाले भी किसान एक्सपर्ट बने हैं।
MRP का मतलब होता है कि ये मैक्सिम रिटेल प्राइज है, इससे ऊपर आप नही बेच सकते हैं। साथ ही MRP किसी को मजबूर नही करती कि आप वो सामान खरीदें ही खरीदें।
जबकि MSP का मतलब है मिनिमम सपोर्ट प्राइज। जिसपर खरीदना ही खरीदना है फिर वो कितना ही घटिया प्रोडक्ट हो, आपको जरूरत न हो, तब भी आपको मजबूर किया जाए कि उसे खरीदो।
कल को एक ठेली लगाने वाला, एक दुकानदार, अन्य बिजेनस करने वाला भी कह दे कि MSP चाहिए, हम भी "फलांदाता" हैं तो आप क्या करेंगे?
बस इसी तरह की लूट व्यवस्था बनाने के नाम पर उपद्रव किया जा रहा है।
इसे रोकेंगे नहीं तो कल कोई दूसरा आकर खड़ा हो जाएगा कि अब हमारी बारी है। इसलिए बात किसी सरकार की नहीं, हमारी आपकी है क्योंकि पैसा हमारा है।
किसान नेताओं और केंद्र सरकार के बीच 18 जनवरी को चौथे दौर की बैठक हुई। मीटिंग में सरकार ने 4 फसलों पर MSP देने का प्रस्ताव दिया। किसान संगठनों ने इस पर दो दिन विचार करके 20 फरवरी की शाम को अपना फैसला सुनाने की बात कही है। बड़ा सवाल यह है कि जिद पर अड़े किसानों की मांगे कितनी व्यावहारिक हैं? कृषि को आर्थिक रूप से फायदेमंद बनाना तो दूर, आंदोलनकारी किसान नेताओं की मांगें अगर मान ली गई तो पंजाब, हरियाणा और यूपी ही नहीं देश की कृषि अर्थव्यवस्थाएं खस्ताहाल हो जाएगी। किसान संघों अहसास नहीं है कि कि भारत सरकार गंभीर वित्तीय संकट, ग्रामीण बैंकों को क्षति और माइग्रेशन को हतोत्साहित और बाधित किए बिना उनकी मांगों को पूरा नहीं कर सकती है, और ये तीनों ही फैक्टर खेती का आधार हैं। अगर सरकार एमएसपी पर फसलों की खरीद की गारंटी ले लेती है तो एक अनुमान के अनुसार इस पर 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा। 2024-25 के अंतरिम बजट में सरकार ने पूंजीगत निवेश के लिए 11.11 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा है। ऐसे में सरकार अगर सारी फसलें एमएसपी पर खरीदती है तो कर्मचारियों को वेतन और पेंशन कहां से देगी।
मनरेगा के तहत दैनिक मजदूरी बढ़ाकर 700 रूपये करने की कोई तुक नहीं
एक उदाहरण के लिए किसान नेताओं की इस मांग को ही लें कि मनरेगा के तहत दैनिक मजदूरी को बढ़ाकर 700 रु. प्रतिदिन करते हुए वर्तमान के 100 दिनों के बजाय प्रति वर्ष 200 दिनों की गारंटी वाले रोजगार में बदल दिया जाए। उनके द्वारा मांगी गई मजदूरी हरियाणा की मनरेगा मजदूरी से लगभग दोगुनी है और बिहार, यूपी, ओडिशा से तीन गुना से भी अधिक है। ये तीन राज्य ही सबसे अधिक प्रवासी श्रमिकों को पंजाब और हरियाणा भेजते हैं। वास्तव में किसानों को दुआ करनी चाहिए कि सरकार इस मांग को खारिज कर दे। क्योंकि अगर इसे स्वीकार किया जाता है तो बिहार, ओडिशा और यूपी में कृषि श्रमिकों को वर्तमान में मनरेगा के तहत मिलने वाली अधिकतम राशि से छह गुना अधिक राशि मिल सकती है।
सरकारी खजाने पर 5 लाख करोड़ रूपये से ज्यादा का भार आएगा
मनरेगा के तहत उनकी दैनिक कमाई पंजाब या हरियाणा में औसत कुशल मजदूरी से कम से कम -50% अधिक होगी। इसलिए दूर-दराज के राज्यों में जाकर काम करने के लिए बहुत कम प्रोत्साहन होगा, जिसमें अक्सर अपने परिवारों से दूर झोपड़ियों में रहना होता है। प्रवासी श्रमिकों के बिना, इन राज्यों में कृषि और यहां तक कि गैर-कृषि क्षेत्रों में भी अधिकांश आर्थिक गतिविधियां रुक जाएंगी। फिर मनरेगा पर खर्च बढ़ाने का सरकारी खजाने पर भी असर पड़ेगा। 2024-25 में मनरेगा आवंटन का बजट अनुमान 86,000 करोड़ रुपये है। किसानों की मांग है कि इसे छह गुना बढ़ाया जाए। लेकिन चूंकि यह एक गारंटी देने वाला कार्यक्रम है, इसलिए कहीं अधिक श्रमिक निजी क्षेत्र में काम करने के बजाय विस्तारित मनरेगा में काम करना पसंद करेंगे। किसान संघ जिस विस्तारित मनरेगा की मांग कर रहे हैं, उससे सरकारी खजाने पर 5 लाख करोड़ से 8 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा।
मोदी सरकार मक्का, कपास, अरहर और उड़द पर MSP देने को तैयार
न्यूनतम समर्थन मूल्य में खरीद पर गारंटी समेत तमाम मांगों को लेकर किसान एक बार फिर आंदोलित हैं। सरकार और किसान नेताओं के बीच चौथे राउंड की बातचीत हुई। इसमें सरकार की तरफ से किसानों से बात करने पहुंचे केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि सरकार मक्का, कपास, अरहर और उड़द पर MSP देने को तैयार है। अगले 5 साल तक चारों फसलों की खरीद सहकारी सभाओं के जरिए होगी। नैफेड और NCCF से 5 साल के लिए कॉन्ट्रैक्ट होगा। किसान सभी फसलों को MSP पर खरीद के लिए कानून की मांग कर रहे हैं। उनकी मांग है कि फसलों की कीमतें स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर तय की जाएं। इसके अलावा किसानों ने मिर्च, हल्दी और दूसरे मसालों के लिए राष्ट्रीय आयोग के गठन की मांग भी की है। किसान नेता सरवन सिंह पंधेर ने कहा कि सभी जत्थेबंदियों से 19 और 20 फरवरी को विचार-विमर्श करेंगे। इसके बाद 20 की शाम को अपना फैसला बता देंगे। यदि बात न बनी तो 21 की सुबह 11 बजे तक दिल्ली कूच को स्टैंडबाय पर रखा है।
कृषि श्रमिकों को दस हजार रूपये की पेंशन देने की मांग ही अव्यावहारिक
दिलचस्प यह भी है कि किसान यूनियनें 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र के सभी किसानों और कृषि श्रमिकों को 10,000 रु. प्रतिमाह या 1.2 लाख रु. प्रति वर्ष की पेंशन देने की मांग भी कर रही हैं। इसकी तुलना गरीबों के लिए मौजूदा सार्वजनिक पेंशन योजना से करें तो 60-79 वर्ष की आयु वालों को 300 रु. और 80 से अधिक वालों को 500 रु. की पेंशन मिलती है। गरीबों के लिए सार्वजनिक पेंशन बढ़ाने के तर्क जायज हैं। यहां पर मुद्दा यह है कि सरकार को किसानों के लिए एक ऐसी सार्वजनिक पेंशन योजना क्यों बनानी चाहिए, जो गरीबों के लिए मौजूदा सार्वजनिक पेंशन योजना से 30 गुना अधिक हो? भारत में 60 या उससे अधिक उम्र के 15 करोड़ लोग हैं और उनमें से 71% या लगभग 11 करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। इस प्रकार, प्रस्तावित पेंशन योजना की वार्षिक लागत 12 लाख करोड़ रु. के करीब होगी। केवल ये दोनों मांगें ही सरकारी बजट में 20 लाख करोड़ रुपए का गड्डा करने के लिए काफी हैं। इस संख्या को अगर परिप्रेक्ष्य में रखकर देखें तो 2023-24 में, सरकार का कुल व्यय ही 48 लाख करोड़ रुपए था और कुल राजस्व संग्रह 31 करोड़ रुपए का है।
कांग्रेस पहले यह बताए कि वह 10 लाख करोड़ रुपये का इंतजाम कैसे करेगी
अगर सरकार एमएसपी पर फसलों की खरीद की गारंटी ले लेती है तो एक अनुमान के अनुसार इस पर 10 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा। वहीं 2024-25 के अंतरिम बजट में सरकार ने पूंजीगत निवेश के लिए 11.11 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा है। ऐसे में सरकार अगर सारी फसलें एमएसपी पर खरीदती है तो कर्मचारियों को वेतन और पेंशन कहां से देगी। विकास कार्यों के लिए संसाधन कहां से आएंगे। अगर ऐसा होता है तो पूरा सरकारी तंत्र और व्यवस्था ही चरमरा जाएगी। वहीं विपक्षी दल कांग्रेस ने कहा है कि वह सत्ता में आने पर एमएसपी की गारंटी देगी। हालांकि केंद्र में सत्ता में रहते हुए कांग्रेस ने स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करने को लेकर कभी गंभीरता नहीं दिखाई। ऐसे में कांग्रेस की जिम्मेदारी बनती है कि वह देश को बताए कि वह 10 लाख करोड़ रुपये का इंतजाम कैसे करेगी। ऐसे में यह पड़ताल का अहम मुद्दा है कि एमएसपी की गारंटी की मांग कितनी व्यावहारिक है और क्या कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियां किसान आंदोलन के जरिए अपनी राजनीतिक मंशा पूरी करने का प्रयास नहीं कर रही हैं?
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