क्या किसी अपराधी से अपराध रोकने या नहीं करने के बारे में सोंचा जा सकता है? ऐसे सोंचने वालों से बड़ा महामूर्ख कोई नहीं।
वर्ष 1975, 12 जून को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव भ्रष्ट आचरण के आधार पर रद्द कर राजनारायण की याचिका स्वीकार कर ली। इंदिरा गांधी ने 25 जून को आपातकाल लगा कर देश के संविधान को ताला लगा दिया। हर विरोध करने वाले को जेल में डाल दिया गया। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो था नहीं, प्रिंट मीडिया के सभी अख़बारों पर सरकार का नियंत्रण हो गया। अंग्रेजी दैनिक Motherland को बंद कर दिया। सरकार के खिलाफ लिखने वाले इक्का दुक्का पत्रकार ही थे।
समूचे विपक्ष के नेताओं को जेल में डाल दिया गया, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी जी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस समेत कोई नेता ऐसा नहीं था जो जेल के बाहर हो, अलबत्ता वामपंथी जरूर इंदिरा के साथ थे। RSS पर बैन लगा दिया गया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को धत्ता बता कर नया concept लाया गया Committed Judiciary का और अपनी मर्जी से जजों को नियुक्त किया जाने लगा। चीफ जस्टिस के 3 जजों की वरीयता को भुला कर उनसे नीचे के जूनियर को नियुक्त कर दिया गया। प्रशासन का कोई ऐसा विभाग नहीं था जहां इंदिरा गांधी की पकड़ न हो। संजय गाँधी के मुंह से निकली बात को कानून माना जाता था। लेखक
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शादियों में आये मेहमानों को चाय और पकोड़े खाने पड़ते थे। क्योकि लड़के की शादी में 100 और लड़की की शादी में 200 से ज्यादा लोगों के खाने पर पाबन्दी, मुंडन या अन्य पारिवारिक समारोह में 50 से ज्यादा के भोजन(दावत) पर पाबन्दी थी।
चारो तरफ भय का माहौल था, आम लोग कुछ बोलने से डरते थे कि न जाने कब पुलिस उठा कर ले जाए। अनेक लोग तो फर्जी मुक़दमे दायर करके जेल भेज दिए गए। इंदिरा गांधी के चापलूसों की बटालियन काम करती थी। लोकसभा और राज्यसभा के विपक्ष के नेताओ को जेल में डाल कर इंदिरा गांधी ने संविधान में “Socialist, Secular” शब्द घुसा दिए जबकि 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि संविधान की मूल संरचना में कोई बदलाव नहीं हो सकता लेकिन इंदिरा ने किया और सुप्रीम कोर्ट खामोश रहा।
आज कांग्रेस और इंदिरा गांधी का पोता राहुल गांधी संविधान की “लाल किताब” हाथ में लिए चीखता फिर रहा है कि संविधान खतरे में है, लोगो को बोलने की आज़ादी नहीं है, संवैधानिक संस्थाओं पर सरकार का कब्ज़ा है। जबकि अपनी पार्टी में ही अपने लोगों की आवाज़ दबा दी जाती है। राहुल और कांग्रेस को याद नहीं कि इमरजेंसी में बोलने की आज़ादी कैसे खतरे में, कैसे संवैधानिक संस्थाएं इंदिरा गांधी के हाथ में थी, सुप्रीम कोर्ट कठपुतली बन गया था और मीडिया के पत्रकार चापलूसी में नंबर कमाने के चक्कर में रहते थे। जो आज भी बदस्तूर जारी है।
आज वो पत्रकार सरकार के खिलाफ मीडिया की स्वतंत्रता के लिए मोदी के खिलाफ लामबंद हुए खड़े हैं जबकि वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं। न्यायपालिका पूरी तरह स्वतंत्र होने के बाद भी सरकार पर दखल का आरोप लगाती है। उसने कॉलेजियम को देश पर थोप दिया और भूल गई इंदिरा गांधी कैसे जज बनाती थी?
आज इस न्यायपालिका को NJAC में एक सरकार के मंत्री होने से भी स्वतंत्रता खतरे में दिखाई देने लगी लेकिन इंदिरा गांधी के सामने मुँह भींच कर रहते थे। आज उन्हें पता है मोदी न्यायपालिका का सम्मान करता है और वह उसे इंदिरा गांधी के दौर में नहीं ले जाएगा, इसलिए सरकार का विरोध करना अपना अधिकार समझने लगे हैं। यह न्यायपालिका किस हद को पार कर गई कि राष्ट्रपति को भी आदेश देने लगी।
देश की जनता इमरजेंसी की सारी यातनाएं भूल गई और 1980 में इंदिरा गांधी को फिर सत्ता में ले आई। आज बहुत लोग कहते हैं कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी को जेल में क्यों नहीं डालते लेकिन उन्हें पता नहीं कि जनता फिर मोदी की 11 साल की तपस्या को भुला कर चोरों को सत्ता में ले आएगी। इसलिए मोदी जी उनके मुकदमों को अपनी ही रफ़्तार से चलने दे रहे हैं।
देश को इमरजेंसी के काले अध्याय को याद रखना चाहिए।
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