जब भाई से चिपट बहन के पंख पखेरू हो गए : कभी मैके वालों को अपनी तंगहाली ज़िन्दगी नहीं बताई ; सबसे गूढ़ सम्बन्ध होता है भाई-बहन का जिसके आगे ब्रह्माण्ड भी नतमस्तक है, और इसे जानने के लिए पश्चिमी सभ्यता को त्याग सनातन को समझना होगा

जब लड़की औरत बन अपने माता-पिता की चौखट से बिदा होने पर अपने सिर पर 3 परिवारों की मान-मर्यादा लेकर निकलती है। 1. अपने मैके, 2. अपने ससुराल और 3. अपने होने वाले परिवार का। ससुराल में भी परिवार की सदस्य बनने वाली की मनःस्थिति पर विचार करना होगा कि बचपन से व्यस्क होने तक जिस वातावरण में रहने वाली से एकदम अपने वातावरण में ढालने का प्रयास नहीं करना चाहिए। समझदार बहु अपने आप ढल कर घर को स्वर्ग बना देगी अन्यथा वह ससुराल को बर्बाद नहीं कर रही बल्कि अपने भावी परिवार को तबाही की ओर लेकर जा रही है। क्योकि विधि का विधान है कि जो बोएगा वही काटेगा।  कभी एक हाथ से ताली बजाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, ऐसा करने वाला पतन का ही कारण बनता/बनती है।          
एक प्रोफ़ेसर क्लास ले रहे थे। क्लास के सभी छात्र बड़ी ही रूचि से उनके लेक्चर को सुन रहे थे। उनके पूछे गये सवालों के जवाब दे रहे थे। लेकिन उन छात्रों के बीच कक्षा में एक छात्र ऐसा भी था, जो चुपचाप और गुमसुम बैठा हुआ था। प्रोफ़ेसर ने पहले ही दिन उस छात्र को नोटिस कर लिया, लेकिन कुछ नहीं बोले। लेकिन जब 4–5 दिन तक ऐसा ही चला, तो उन्होंने उस छात्र को क्लास के बाद अपने कमरे में बुलवाया और पूछा, “तुम हर समय उदास रहते हो। क्लास में अकेले और चुपचाप बैठे रहते हो। लेक्चर पर भी ध्यान नहीं देते। क्या बात है? कुछ परेशानी है क्या?”
“सर, वो…..” छात्र कुछ हिचकिचाते हुए बोला, “….मेरे अतीत में कुछ ऐसा हुआ है, जिसकी वजह से मैं परेशान रहता हूँ। समझ नहीं आता क्या करूं?” प्रोफ़ेसर भले व्यक्ति थे। उन्होंने उस छात्र को शाम को अपने घर पर बुलवाया। शाम को जब छात्र प्रोफ़ेसर के घर पहुँचा, तो प्रोफ़ेसर ने उसे अंदर बुलाकर बैठाया। फिर स्वयं किचन में चले गये और शिकंजी बनाकर लाए। उन्होंने जानबूझकर शिकंजी में ज्यादा नमक डाल दिया। फिर किचन से बाहर आकर शिकंजी का गिलास छात्र को देकर कहा, “ये लो, शिकंजी पियो। ”छात्र ने गिलास हाथ में लेकर जैसे ही एक घूंट लिया, अधिक नमक के स्वाद के कारण उसका मुँह अजीब सा बन गया। यह देख प्रोफ़ेसर ने पूछा, “क्या हुआ? शिकंजी पसंद नहीं आई?” “नहीं सर, ऐसी बात नहीं है। बस शिकंजी में नमक थोड़ा ज्यादा है। ” छात्र बोला। “अरे, अब तो ये बेकार हो गया। लाओ गिलास मुझे दो। मैं इसे फेंक देता हूँ। ” प्रोफ़ेसर ने छात्र से गिलास लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। लेकिन छात्र ने मना करते हुए कहा, “नहीं सर, बस नमक ही तो ज्यादा है। थोड़ी चीनी और मिलायेंगे, तो स्वाद ठीक हो जायेगा।” यह बात सुन प्रोफ़ेसर गंभीर हो गए और बोले, “सही कहा तुमने। अब इसे समझ भी जाओ। ये शिकंजी तुम्हारी जिंदगी है। इसमें घुला अधिक नमक तुम्हारे अतीत के बुरे अनुभव हैं। जैसे नमक को शिकंजी से बाहर नहीं निकाल सकते, वैसे ही उन बुरे अनुभवों को भी जीवन से अलग नहीं कर सकते। वे बुरे अनुभव भी जीवन का हिस्सा ही है। लेकिन जिस तरह हम चीनी घोलकर शिकंजी का स्वाद बदल सकते हैं, वैसे ही बुरे अनुभवों को भूलने के लिए जीवन में मिठास तो घोलनी पड़ेगी ना। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम अब अपने जीवन में मिठास घोलो।” प्रोफ़ेसर की बात छात्र समझ गया और उसने निश्चय किया कि अब वह बीती बातों से परेशान नहीं होगा।
जीवन में अक्सर हम अतीत की बुरी यादों और अनुभवों को याद कर दु:खी होते रहते हैं। इस तरह हम अपने वर्तमान पर ध्यान नहीं दे पाते और कहीं न कहीं अपना भविष्य बिगाड़ लेते हैं। जो हो चुका, उसे सुधारा नहीं जा सकता। लेकिन कम से कम उसे भुलाया तो जा सकता है और उन्हें भुलाने के लिए नई मीठी यादें हमें आज बनानी होंगी। जीवन में मीठे और ख़ुशनुमा लम्हों को लाइये, तभी तो जीवन में मिठास आयेगी।
आज हम पश्चिमी सभ्यता में इतने लीन होकर अपनी ही भारतीय संस्कृति को भूल गए। पश्चिमी सभ्यता की तर्ज पर रिश्तों को व्यापार बना दिया है। सनातन में हर त्यौहार का अपना महत्व और पृष्ठभूमि होती है। पश्चिम में गिनती के त्यौहार होते हैं इसलिए व्यापार को देखते हुए कभी Friends' Day, Father's Day, Mother's Day, Sister's Day आदि दिवस मनाने के सभ्यता को तार-तार करते Rose और Kiss Day तक बेशर्मी दिन मनाये जाने लगे। 
लेकिन इन्हे नहीं मालूम की सनातन धर्म में प्रत्येक आरती में माँ और पिता को देवतुल्य ही नहीं भाई बहन के रिश्ते को भी महान बताया गया है। आज हम कहते है कि NASA से धरती और आकाश की दूरी का ज्ञान होता है लेकिन मूर्खों को नहीं मालूम कि NASA से युगो पूर्व रचित हनुमान चालीसा में इसका वर्णन है। दूसरे, सनातन बताता है कि माँ के चरणों में अगर स्वर्ग होता है तो स्वर्ग जाने का मार्ग पिता के चरणों में। "तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो ..." आरती में माता-पिता की महानता को दर्शाया है। सुबह उठकर बड़ों के चरण स्पर्श करना, भाई बहन के किसी भी त्यौहार पर सबसे पहले बहन भाई के तिलक ही नहीं करती हाथ में कलावा भी बांधती है। पश्चिमी सभ्यता में अंधों को नहीं शायद नहीं मालूम कि इन प्रथाओं का गूढ़ रहस्य क्या है? बहन अपने भाई का हित और मंगलकामना करती है। उसके पलटे बहन भाई एक पैसे की भी आस नहीं करती क्योकि बहन को आस होती कि भाई अपनी बहन को भूलेगा नहीं। पश्चिमी सभ्यता में अंधों को नहीं नहीं मालूम आदि युग से लेकर वर्तमान कलयुग तक सनातन क्यों अडिग है उसका कारण है सनातन में महिला को शक्ति मानना। इसको कहते हैं भारतीय हिन्दू संस्कृति।  
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है सोशल मीडिया पर चल रहे दो बहुत ही मार्मिक लेख:-   
रक्षाबंधन का त्यौहार पास आते ही मुझे सबसे ज्यादा जमशेदपुर (झारखण्ड) वाली बुआ जी की राखी के कूरियर का इन्तेज़ार रहता था

कितना बड़ा पार्सल भेजती थी बुआ जी
तरह-तरह के विदेशी ब्रांड वाले चॉकलेट,गेम्स, मेरे लिए कलर फूल ड्रेस, मम्मी के लिए साड़ी, पापाजी के लिए कोई ब्रांडेड शर्ट
इस बार भी बहुत सारा सामान भेजा था उन्होंने
पटना और रामगढ़ वाली दोनों बुआ जी ने भी रंग बिरंगी राखीयों के साथ बहुत सारे गिफ्टस भेजे थे
बस रोहतास वाली जया बुआ की राखी हर साल की तरह एक साधारण से लिफाफे में आयी थी
पांच राखियाँ, कागज के टुकड़े में लपेटे हुए रोली चावल और पचास का एक नोट
मम्मी ने चारों बुआ जी के पैकेट डायनिंग टेबल पर रख दिए थे ताकि पापा ऑफिस से लौटकर एक नजर अपनी बहनों की भेजी राखियां और तोहफे देख लें...
पापा रोज की तरह आते ही टी टेबल पर लंच बॉक्स का थैला और लैपटॉप की बैग रखकर सोफ़े पर पसर गए थे
"चारो दीदी की राखियाँ आ गयी है...
मम्मी ने पापा के लिए किचन में चाय चढ़ाते हुए आवाज लगायी थी...
"जया का लिफाफा दिखाना जरा...
पापा जया बुआ की राखी का सबसे ज्यादा इन्तेज़ार करते थे और सबसे पहले उन्हीं की भेजी राखी कलाई में बांधते थे....
जया बुआ सारे भाई बहनो में सबसे छोटी थी पर एक वही थी जिसने विवाह के बाद से शायद कभी सुख नहीं देखा था
विवाह के तुरंत बाद देवर ने सारा व्यापार हड़प कर घर से बेदखल कर दिया था
तब से फ़ूफा जी की मानसिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी मामूली सी नौकरी कर थोड़ा बहुत कमाते थे
बेहद मुश्किल से बुआ घर चलाती थी
इकलौते बेटे श्याम को भी मोहल्ले के साधारण से स्कूल में डाल रखा था बस एक उम्मीद सी लेकर बुआ जी किसी तरह जिये जा रहीं थीं
जया बुआ के भेजे लिफ़ाफ़े को देखकर पापा कुछ सोचने लगे थे
"गायत्री इस बार रक्षाबंधन के दिन हम सब सुबह वाली पैसेंजर ट्रेन से जया के घर रोहतास (बिहार )उसे बगैर बताए जाएंगे...
"जया दीदी के घर..!!
मम्मी तो पापा की बात पर एकदम से चौंक गयी थी...
"आप को पता है न कि उनके घर मे कितनी तंगी है...
हम तीन लोगों का नास्ता-खाना भी जया दीदी के लिए कितना भारी हो जाएगा....वो कैसे सबकुछ मैनेज कर पाएगी
पर पापा की खामोशी बता रहीं थीं उन्होंने जया बुआ के घर जाने का मन बना लिया है और घर मे ये सब को पता था कि पापा के निश्चय को बदलना बेहद मुश्किल होता है
रक्षाबंधन के दिन सुबह वाली धनबाद टू डेहरी ऑन सोन पैसेंजर से हम सब रोहतास पहुँच गए थे
बुआ घर के बाहर बने बरामदे में लगी नल के नीचे कपड़े धो रहीं थीं....
बुआ उम्र में सबसे छोटी थी पर तंग हाली और रोज की चिंता फिक्र ने उसे सबसे उम्रदराज बना दिया था
एकदम पतली दुबली कमजोर सी काया इतनी कम उम्र में चेहरे की त्वचा पर सिलवटें साफ़ दिख रहीं थीं...
बुआ की शादी का फोटो एल्बम मैंने कई बार देखा था शादी में बुआ की खूबसूरती का कोई ज़वाब नहीं था शादी के बाद के ग्यारह वर्षो की परेशानियों ने बुआ जी को कितना बदल दिया था
बेहद पुरानी घिसी सी साड़ी में बुआ को दूर से ही पापा मम्मी कुछ क्षण देखे जा रहे थे...
पापा की आंखे डब डबा सी गयी थी
हम सब पर नजर पड़ते ही बुआ जी एकदम चौंक गयी थी
उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वो कैसे और क्या प्रतिक्रिया दे
अपने बिखरे बालों को सम्भाले या अस्त व्यस्त पड़े घर को दुरुस्त करे। उसके घर तो बर्षों से कोई मेहमान नहीं आया था...
वो तो जैसे जमाने पहले भूल चुकी थी कि मेहमानों को घर के अंदर आने को कैसे कहा जाता है...
बुआ जी के बारे मे सब बताते है कि बचपन से उन्हें साफ सफ़ाई और सजने सँवरने का बेहद शौक रहा था
पर आज दिख रहा था कि अभाव और चिंता कैसे इंसान को अंदर से दीमक की तरह खा जाती है
अक्सर बुआ जी को छोटी मोटी जरुरतों के लिए कभी किसी के सामने तो कभी किसी के सामने हाथ फैलाना होता था
हालात ये हो गए थे कि ज्यादातर रिश्तेदार उनका फोन उठाना बंद कर चुके थे
एक बस पापा ही थे जो अपनी सीमित तनख्वाह के बावजूद कुछ न कुछ बुआ को दिया करते थे
पापा ने आगे बढ़कर सहम सी गयी अपनी बहन को गले से लगा लिया था
"भैया भाभी मन्नू तुम सब अचानक आज?
सब ठीक है न...?
बुआ ने कांपती सी आवाज में पूछा था...
"आज वर्षों बाद मन हुआ राखी में तुम्हारे घर आने का..
तो बस आ गए हम सब...
पापा ने बुआ को सहज करते हुए कहा था.....
"भाभी आओ न अंदर....
मैं चाय नास्ता लेकर आती हूं...
जया बुआ ने मम्मी के हाथों को अपनी ठण्डी हथेलियों में लेते हुए कहा था
"जया तुम बस बैठो मेरे पास चाय नास्ता गायत्री देख लेगी"
हम लोग बुआ जी के घर जाते समय रास्ते मे रूककर बहुत सारी मिठाइयाँ और नमकीन ले गए थे......
मम्मी किचन में जाकर सबके लिए प्लेट लगाने लगी थी
उधर बुआ कमरे में पुरानी फटी चादर बिछे खटिया पर अपने भैया के पास बैठी थीं....
बुआ जी का बेटा श्याम दोड़ कर फ़ूफा जी को बुला लाया था
राखी बांधने का मुहूर्त शाम सात बजे तक का था। मम्मी अपनी ननद को लेकर मॉल चली गयी थी सबके लिए नए ड्रेसेस खरीदने और बुआ जी के घर के लिए किराने का सामान लेने के लिए....
शाम होते होते पूरे घर का हुलिया बदल गया था
नए पर्दे, बिस्तर पर नई चादर, रंग बिरंगे डोर मेट, और सारा परिवार नए ड्रेसेस पहनकर जंच रहा था
न जाने कितने सालों बाद आज जया बुआ की रसोई का भंडार घर लबालब भरा हुआ था....
धीरे धीरे एक आत्म विश्वास सा लौटता दिख रहा था बुआ के चेहरे पर....
पर सच तो ये था कि उसे अभी भी सब कुछ स्वप्न सा लग रहा था....
बुआ जी ने थाली में राखियाँ सज़ा ली थी
मिठाई का डब्बा रख लिया था
जैसे ही पापा को तिलक करने लगी पापा ने बुआ को रुकने को कहा
सभी आश्चर्यचकित थे...
" दस मिनट रुक जाओ तुम्हारी दूसरी बहनें भी बस पहुँचने वाली है"
पापा ने मुस्कुराते हुए कहा तो सभी पापा को देखते रह गए....
तभी बाहर दरवाजे पर गाड़ियां के हॉर्न की आवाज सुनकर बुआ, मम्मी और फ़ूफ़ा जी दोड़ कर बाहर आए तो तीनों बुआ का पूरा परिवार सामने था....
जया बुआ का घर मेहमानों से खचाखच भर गया था
महराजगंज वाली नीलम बुआ बताने लगी कि कुछ समय पहले उन्होंने पापा को कहा था कि क्यों न सब मिलकर चारो धाम की यात्रा पर निकलते है...
बस पापा ने उस दिन तीनों बहनो को फोन किया कि अब चार धाम की यात्रा का समय आ गया है..
पापा की बात पर तीनों बुआ सहमत थी और सबने तय किया था कि इस बार जया के घर सब जमा होंगे और थोड़े थोड़े पैसे मिलाकर उसकी सहायता करेंगे
जया बुआ तो बस एकटक अपनी बहनों और भाई के परिवार को देखे जा रहीं थीं....
कितना बड़ा सरप्राइस दिया था आज सबने उसे...
सारी बहनो से वो गले मिलती जा रहीं थीं...
सबने पापा को राखी बांधी....
ऐसा रक्षाबन्धन शायद पहली बार था सबके लिए...
रात एक बड़े रेस्त्रां में हम सभी ने डिनर किया....
फिर गप्पे करते जाने कब काफी रात हो चुकी थी....
अभी भी जया बुआ ज्यादा बोल नहीं रहीं थीं
वो तो बस बीच बीच में छलक आते अपने आंसू पोंछ लेती थी
बीच आंगन में ही सब चादर बिछा कर लेट गए थे...
जया बुआ पापा से किसी छोटी बच्ची की तरह चिपकी हुई थी...
मानो इस प्यार और दुलार का उसे वर्षों से इन्तेज़ार था
बातें करते करते अचानक पापा को बुआ का शरीर एकदम ठंडा सा लगा तो पापा घबरा गए थे...
सारे लोग जाग गए पर जया बुआ हमेशा के लिए सो गयी थी....
पापा की गोद में एक बच्ची की तरह लेटे लेटे वो विदा हो चुकी ..
पता नही कितने दिनों से बीमार थीं....
और आज तक किसी से कही भी नही थीं...
आज सबसे मिलने का ही आशा लिये जिन्दा थीं शायद...!

जब ससुर के दुनिया से जाने के बाद बहु को ससुर की महानता का बोध हुआ
यह कटु सत्य है कि बच्चा संस्कार गर्भ से ही सीख कर आता है। कुछ वह दुनिया में आकर वातावरण को सीखता है। इसीलिए कहते है गर्भ धारण महिला को अपने व्यवहार में मधुरता और संसारिक बातों पर ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए। दूसरे लड़की को बिदा के समय माता-पिता को पारिवारिक शिक्षा देकर बिदा करना चाहिए। क्योकि वही शिक्षा लड़की के जीवन को संवारती है। मेरे अपने पिताश्री ने शादी के बाद मेरी बहन को कहा था कि "शशि शादी से पहले तक तेरे माँ-बाप हम थे अब शादी के बाद तेरे माँ-बाप तेरे सास-ससुर हैं। अगर हमें कुछ अपशब्द भी कहे फूल समझ अपने आंचल में ले लेना, कभी हमें भी मत बताना।" शायद यही कारण था कि दोनों समधी समधी नहीं बल्कि एक भाई और मित्र से बढ़कर रहे। परिवार की हर समस्या दोनों समधी बैठ निस्संकोच सुलझाते थे। किसी भी तरह का कोई पर्दा नहीं था। यही स्थिति मेरे अपने समधी की भी है।
दूसरे यह भी कटु सत्य है कि बहु, दामाद और नारियल प्रयोग करने पर ही पता चलता है। प्रयत्न करना चाहिए कि बहु के व्यवहार में शालीनता ही रख परमपिता परमेश्वर पर छोड़ अपना जीवन यापन करे। उसी में घर की भलाई है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जहाँ चार बर्तन होते है आवाज़ होती है, लेकिन आवाज़ को इतना तेज नहीं करनी चाहिए घर की चौखट से बाहर नहीं जाए ताकि परिवार की शांति में कोई बाधा आए।
मैं घर की नई बहू थी और एक प्राइवेट बैंक में एक अच्छे ओहदे पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर और पति के अलावा कोई और नहीं था। पति का अपना कारोबार था, जिससे उनकी व्यस्तता भी काफी रहती थी। और कभी कभी ही हमारे बीच संबंध बनता, लेकिन जब बनाने लगे तो उसमें भी आफत क्यों की घर में एक बुजुर्ग पिता जी थे कभी भी आवाज देके बुला लेते
हर सुबह जब मैं जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाकर ऑफिस के लिए निकलने की तैयारी करती, ठीक उसी वक़्त मेरे ससुर मुझे आवाज़ देकर कहते, "बहू, मेरा चश्मा साफ़ कर मुझे देती जा।" यह रोज़ का सिलसिला था। ऑफिस की देरी और काम के दबाव की वजह से कभी-कभी मैं मन ही मन झल्ला जाती थी, लेकिन फिर भी अपने ससुर को कुछ कह नहीं पाती।
एक दिन, मैंने इस बारे में अपने पति से बात की। उन्हें भी यह जानकर हैरानी हुई, लेकिन उन्होंने पिता से कुछ नहीं कहा। उन्होंने मुझे सलाह दी कि सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ करके उनके कमरे में रख दिया करो ताकि ऑफिस जाते समय कोई परेशानी न हो।
अगले दिन मैंने वैसा ही किया, पर फिर भी ऑफिस के लिए निकलते समय वही बात हुई। ससुर ने मुझे फिर बुलाकर कहा कि "बहू, मेरा चश्मा साफ़ कर दे।" मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। धीरे-धीरे मैंने उनकी बातों को अनसुना करना शुरू कर दिया, और कुछ समय बाद तो मैंने बिल्कुल ध्यान देना ही बंद कर दिया।
ससुर के कुछ बोलने पर मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं देती औऱ बिलकुल ख़ामोशी से अपने काम में मस्त रहती ।
गुज़रते वक़्त के साथ ही एक दिन ससुर जी भी गुज़र गए ।
समय का पहिया कहाँ रुकने वाला था,वो घूमता रहा घूमता रहा ।
छुट्टी का एक दिन था। अचानक मेरे के मन में घर की साफ़ सफाई का ख़याल आया । मैं अपने घर की सफ़ाई में जुट गई । तभी सफाई के दौरान मृत ससुर की डायरी मेरे हाथ लग गई ।
मैने ने जब अपने ससुर की डायरी को पलटना शुरू किया तो उसके एक पन्ने पर लिखा था-"दिनांक 26.10.2019.... " मेरी प्यारी बहू.....आज के इस भागदौड़ औऱ बेहद तनाव व संघर्ष भरी ज़िंदगी में घर से निकलते समय बच्चे अक़्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं , जबकि बुजुर्गों का यही आशीर्वाद मुश्किल समय में उनके लिए ढाल का काम करता है । बस इसीलिए जब तुम प्रतिदिन मेरा चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती थी तो मैं मन ही मन अपना हाथ तुम्हारे सिर पर रख देता था , क्योंकि मरने से पहले तुम्हारी सास ने मुझसे कहा था कि बहू को अपनी बेटी की तरह प्यार से रखना औऱ उसे ये कभी भी मत महसूस होने देना कि वो अपने ससुराल में है औऱ हम उसके माँ बाप नहीं है ।उसकी छोटी मोटी गलतियों को उसकी नादानी समझकर माफ़ कर देना । वैसे मैं रहूं या न रहूं मेरा आशीष सदा तुम्हारे साथ है बेटा...सदा खुश रहो।"
अपने ससुर की डायरी को पढ़कर मुझे रोना आने लगा लगा
आज मेरे ससुर को गुजरे ठीक 2 साल से ज़्यादा समय बीत चुके हैं , लेकिन फ़िर भी मैं रोज घर से बाहर निकलते समय अपने ससुर का चश्मा अच्छी तरह साफ़ कर , उनके टेबल पर रख दिया करती हूं....... उनके अनदेखे हाथ से मिले आशीष की लालसा में.....।
अक़्सर हम जीवन में रिश्तों का महत्व महसूस नहीं कर पाते , चाहे वो किसी से भी हो, कैसा भी हो.......और जब तक महसूस करते हैं तब तक वह हमसे बहुत दूर जा चुका होता है ......!!
प्रत्येक रिश्तों की अहमियत औऱ उनका भावनात्मक कद्र बेहद जरूरी है , अन्यथा ये जीवन व्यर्थ है ।

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