नरेंद्र मोदी, राजा महमूदाबाद का किला (फोटो साभार: Mind/Jagran)
वक़्फ़ कानून बनाकर मोदी सरकार ने मुस्लिम सियासतखोरों और वक़्फ़ जायदादों पर कब्ज़ा कर ऐश करने वालों पर कुठाराघात करने पर इन सबका बिलबिलाना और चीखना-चिल्लाना तो बनता ही है। वक़्फ़ की जमीन हड़पकर उसका कुछ हज़ार महीना देकर हर महीने हो रही करोड़ों की कमाई पर ताला पड़ गया है। वक़्फ़ बोर्ड के नाम पर हिन्दू ही नहीं मुसलमानों को भी पागल बनाया जाता रहा। अभी तो सिर्फ पियादे ही बिलबिला रहे हैं बड़ी मछलियां के बाहर आने पर देखो क्या होगा? बिहार चुनाव को देखते हुए वक़्फ़ कानून से हुए बेरोजगार हुए लोगों का जमावड़ा होना और मुस्लिम तुष्टिकरण करने वालों का एक मंच पर जमा होना अपने आप ड्रामा का भंडाभोड़ कर दिया। इस ड्रामा में सनसनी मोड़ तेजस्वी यादव द्वारा सत्ता में आने पर कानून को कूड़ेदान में फेंकने की बात बोलकर मुस्लिम वोट लूटने की होड़ लग गयी। यानि मुस्लिमों का डराकर विपक्ष द्वारा उनके वोट लूटने के लिए यह षड़यंत्र रचा गया है।
दरअसल मुस्लिम वोट लेने के लालच में हिन्दू बने कालनेमि हिन्दू सनातन का अपमान करने से नहीं चूक रहे। लेकिन इतिहास से अनपढ़ इन कालनेमियों को नहीं मालूम कोई जयचन्द का सम्मान से नाम नहीं लेता। उसे घृणित दृष्टि से देखा जाता है, इतना ही नहीं कोई इसका नामलेवा भी नहीं। ठीक वही हाल इन सत्ता के भूखे इन पाखंडियों का होने वाला है।
हिन्दुओं को इन पाखंडी हिन्दू सियासतखोरों से पूछना चाहिए कि जिस तरह तुम मुस्लिम वोटों के लिए सनातन को कलंकित करते हो क्या किसी अन्य मजहब के खिलाफ बोलने की हिम्मत है?
उत्तर प्रदेश के बागपत में 2 दिन पहले पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह परवेज मुशर्रफ की जमीन सरकार ने नीलाम कर दी। कुछ दिन पहले उत्तराखंड में राजा महमूदाबाद की संपत्ति को सरकार ने पार्किंग प्लेस में बदल दिया, तो बीते साल दिसंबर में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की संपत्ति (जिसमें 1918 में बनी मस्जिद भी शामिल थी) को कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया।
इस जमीन को लेकर दावा किया गया था कि देश की आजादी से पहले ही इसे वक्फ कर दिया गया था, जो दावा फर्जी निकला। ऐसे में मस्जिद होने और वक्फ के दावे के बावजूद ये जमीन सरकार को मिली, क्योंकि ये जमीन एनिमी प्रॉपर्टी (शत्रु संपत्ति) के दायरे में आती थी।
तीनों मामलों को देखें तो इनमें एक लिंक कॉमन था। वो था शत्रु संपत्ति का होना और अब ऐसी संपत्तियों को भारत सरकार अपने हितों के मुताबिक इस्तेमाल कर सकती है। ऐसा इसलिए हो पाया, क्योंकि साल 2017 में मोदी सरकार एक कानून लाई थी, जिसका नाम शत्रु संपत्ति (संशोधन और सत्यापन) विधेयक 2016 था। इस कानून के मुताबिक, सिर्फ दुश्मन देश में गया व्यक्ति ही नहीं, दुश्मन देश गए व्यक्ति के वारिस भी दुश्मन की श्रेणी में आएँगे और वो दुश्मन संपत्ति यानी शत्रु संपत्ति पर कोई दावा नहीं कर पाएँगे।
मोदी सरकार के इस कदम से देश भर की 13 हजार से अधिक संपत्तियाँ, जिनकी कीमत 1 लाख करोड़ रुपए से अधिक है, वो अब सरकार की होंगी। इस बारे में आगे विस्तार से बताएँगे… फिलहाल ये बता दें कि मोदी सरकार जो वक्फ संसोधन कानून लेकर आई है, जिसमें भी एविक्टी (शत्रु संपत्ति) पर वक्फ के दावों को नकार दिया गया है। इसका असर दूरगामी है।
मोदी सरकार ने दोनों कानून लाकर वो काम किया है, जो कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकारें तमाम वजहों से करने से बचती रही हैं। कांग्रेस का जिक्र आया ही है और शत्रु संपत्ति के मामले में, तो एक अहम जानकारी आपको जो होनी चाहिए- वो दे देते हैं। लेकिन उससे पहले बताते हैं कि आखिर शत्रु संपत्ति है क्या और कैसे मोदी सरकार वो कानून लेकर आई, जिसे न लाकर कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने हजारों करोड़ की संपत्ति देश के दुश्मनों के वारिसों दे दी थी।
शत्रु संपत्ति क्या है?
शत्रु संपत्ति वो संपत्तियाँ हैं, जो उन लोगों के पास थीं, जिन्होंने 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान या 1962 (चीन के साथ युद्ध), 1965 और 1971 (पाकिस्तान के साथ युद्ध) के बाद भारत छोड़कर पाकिस्तान या चीन की नागरिकता ले ली। भारत सरकार ने इन्हें ‘शत्रु’ माना, क्योंकि ये लोग उन देशों के साथ चले गए, जो भारत के खिलाफ युद्ध में थे। ऐसी संपत्तियों को जब्त करने का मकसद था कि इनका इस्तेमाल देश की सुरक्षा और विकास के लिए हो।
शत्रु संपत्ति अधिनियम 1968 के तहत इन संपत्तियों की देखरेख के लिए कस्टोडियन ऑफ एनिमी प्रॉपर्टी फॉर इंडिया (CEPI) बनाया गया, जो गृह मंत्रालय के अधीन काम करता है। देश भर में ऐसी 13,252 संपत्तियाँ हैं, जिनमें से 12,485 पाकिस्तानी नागरिकों और 126 चीनी नागरिकों की हैं। इनकी कुल कीमत 1.04 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। इसमें भी सबसे ज्यादा संपत्तियाँ उत्तर प्रदेश (6,255) और पश्चिम बंगाल (4,088) में हैं।
उदाहरण के लिए, मुजफ्फरनगर में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की आठ बिसवा जमीन थी, जिस पर मस्जिद और दुकानें बनी थीं। जाँच में पाया गया कि ये शत्रु संपत्ति थी। इसी तरह भोपाल में नवाब हमीदुल्लाह खान की बेटी आबिदा सुल्तान (जो 1950 में पाकिस्तान चली गई थीं) की संपत्तियाँ- जैसे फ्लैग स्टाफ हाउस और नूर-उस-सबाह पैलेस (कीमत 15,000 करोड़ रुपये से ज्यादा) भी शत्रु संपत्ति घोषित हुईं। परवेज मुशर्रफ की बागपत में 13 बीघा जमीन को 2024 में 1.38 करोड़ रुपये में नीलाम किया गया। ये सारी संपत्तियाँ भारत सरकार के कब्जे में हैं, ताकि इनका दुरुपयोग न हो।
शत्रु संपत्ति और वक्फ का टकराव
अब सवाल ये है कि शत्रु संपत्ति और वक्फ संपत्ति का आपस में क्या झगड़ा है? दरअसल, कई बार ऐसा हुआ कि जो संपत्तियाँ शत्रु संपत्ति थीं, उन्हें वक्फ बोर्ड ने अपने कब्जे में लेने की कोशिश की। इसका सबसे बड़ा कारण 1984 और 1995 के वक्फ कानूनों में कुछ खामियाँ थीं।
1984 में इंदिरा गाँधी सरकार ने वक्फ कानून में एक संशोधन किया, जिसके तहत ‘इवैक्यूई प्रॉपर्टी’ (यानी वो संपत्तियाँ जो विभाजन के दौरान छोड़ी गई थीं) को वक्फ घोषित करने की छूट दी गई। अगर कोई संपत्ति पहले वक्फ थी, लेकिन बाद में शत्रु संपत्ति बन गई, तो उसे फिर से वक्फ में बदला जा सकता था। इसका मतलब ये हुआ कि जो संपत्तियाँ देश छोड़कर गए लोगों की थीं, उन्हें वक्फ बोर्ड अपने नाम कर सकता था।
मोदी सरकार ने साल 2017 में कानून में किया संशोधन: 2017 में शत्रु संपत्ति (संशोधन और सत्यापन) अधिनियम लाया गया, जिसने इस कानून को और सख्त किया। इस संशोधन ने कई अहम बदलाव किए-
शत्रु की परिभाषा का विस्तार: अब शत्रु के वारिस, भले ही वे भारत के नागरिक हों, इन संपत्तियों पर दावा नहीं कर सकते।
कस्टोडियन का मालिकाना हक: शत्रु संपत्ति का मालिक अब कस्टोडियन (भारत सरकार) है।
सिविल कोर्ट की भूमिका खत्म: शत्रु संपत्ति से जुड़े मामले अब सिविल कोर्ट में नहीं, बल्कि खास ट्रिब्यूनल में सुने जाएँगे।
बिक्री की अनुमति: सरकार अब ऐसी संपत्तियों को बेच सकती है, और इसका पैसा देश के खजाने (Consolidated Fund of India) में जाएगा।
राजा महमूदाबाद की हजारों करोड़ की संपत्तियों का मामला
राजा महमूदाबाद, यानी मोहम्मद अमीर अहमद खान एक प्रमुख शिया मुस्लिम परिवार से थे। महमूदाबाद एस्टेट के तहत उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विशाल साम्राज्य था। उनके अब्बू महाराजा सर मोहम्मद अली मोहम्मद खान ने 1931 में अपनी मृत्यु के बाद विशाल संपत्ति छोड़ी, जिसमें लखनऊ का बटलर पैलेस, हजरतगंज में महमूदाबाद मेंशन, नैनिताल में मेट्रोपोल होटल और सीतापुर में 956 एकड़ जमीन, एक चीनी मिल, पॉलिटेक्निक संस्थान और डिग्री कॉलेज शामिल थे।
मोहम्मद अमीर अहमद खान 1945 में इराक चले गए और 1957 में पाकिस्तानी नागरिकता ले ली। वे मुस्लिम लीग के कोषाध्यक्ष और मोहम्मद अली जिन्ना के करीबी सहयोगी थे, जिन्होंने पाकिस्तान आंदोलन को वित्तीय और राजनीतिक समर्थन दिया। खास बात ये है कि अमीर अहमद खान ने अपनी सारी संपत्तियाँ पाकिस्तान को दान दे दी थी, जो उनके पास थी। लेकिन भारत में उनकी संपत्तियाँ छूटी हुई थी। ऐसे में भारत सरकार ने उनकी संपत्तियों को शत्रु संपत्ति अधिनियम 1968 के तहत जब्त कर लिया।
उनके बेटे मोहम्मद अमीर मोहम्मद खान (जिन्हें सुलैमान मियाँ भी कहा जाता था) भारतीय नागरिक थे और उन्होंने 1974 से अपनी पैतृक संपत्तियों को वापस पाने के लिए कानूनी लड़ाई शुरू की। यह लड़ाई 37 साल तक चली, जिसमें जिला अदालत, बॉम्बे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट शामिल थे। साल 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला दिया, जिसमें कहा गया कि सुलैमान मियाँ भारतीय नागरिक हैं और ‘शत्रु’ नहीं हैं। कोर्ट ने उनकी सभी संपत्तियों को वापस करने का आदेश दिया, जिनकी कीमत उस समय 20,000 से 50,000 करोड़ रुपये बताई गई। इनमें लखनऊ का बटलर पैलेस, हजरतगंज की प्राइम रियल एस्टेट, महमूदाबाद का किला और सीतापुर की विशाल जमीनें शामिल थीं।
संपत्तियाँ लौटाने के खेल में कांग्रेस सरकार की भूमिका
साल 2005 में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया, तब केंद्र में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार थी। इस फैसले ने सरकार को असहज स्थिति में डाल दिया, क्योंकि इतनी विशाल संपत्तियाँ एक ऐसे परिवार को लौटाना, जिसके अब्बा ने पाकिस्तान आंदोलन का समर्थन किया था, राष्ट्रीय सुरक्षा और जनभावना के लिए संवेदनशील मुद्दा था। लेकिन यूपीए सरकार ने इस फैसले को प्रभावी ढंग से लागू करने की दिशा में कदम उठाए। लखनऊ जिला प्रशासन ने 21 दिसंबर 2005 को बटलर पैलेस की चाबी और छह अन्य संपत्तियों के दस्तावेज सुलैमान मियाँ को सौंप दिए।
कांग्रेस सरकार की इस कार्रवाई की कई वजहें थीं। जिनमें…
- सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू करना कानूनी रूप से जरूरी था।
- सुलैमान मियाँ खुद 1985 और 1989 में कांग्रेस के टिकट पर महमूदाबाद से विधायक रह चुके थे, जिससे उनका पार्टी के साथ गहरा रिश्ता था।
- उस समय कांग्रेस की राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक को मजबूत करने की रणनीति थी।
सलमान खुर्शीद की पर्दे के पीछे की भूमिका
- सलमान खुर्शीद का कांग्रेस में मजबूत प्रभाव और उनकी मुस्लिम समुदाय के बीच लोकप्रियता।
- राजा महमूदाबाद का कांग्रेस से पुराना रिश्ता, क्योंकि सुलैमान मियाँ दो बार कॉन्ग्रेस विधायक रह चुके थे।
- यूपीए सरकार की वह रणनीति, जिसमें वह मुस्लिम वोट बैंक को खुश रखना चाहती थी।

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