‘चर्बी वाले कारतूस’ को मंगल पांडे ने बनाया 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का हथियार, डरे अंग्रेजों ने क्रान्तिकारी को 10 दिन पहले ही दे दी फाँसी: बैरकपुर से निकली चिंगारी ने हिलाई ब्रितानी हुकूमत, खत्म हो गया ‘कंपनी राज’

                     अमर बलिदानी मंगल पांडे 

जिस तरह आज पाठ्य पुस्तकों में देश के गौरवशाली इतिहास का शंखनाद हुआ है, वह दिन अब ज्यादा दिन दूर नहीं जब देश के उन महान क्रांतिकारियों के जीवन से देश को अवगत करवाया जायेगा जिनको सत्ता के लालचियों ने भुलाकर अपनी ढपली अपना राग कर रहे थे। इन बेशर्म नेताओं, उनकी पार्टियों और इन पखड़ियों को समर्थन करने वाली जनता ने हर क्षेत्र में भारत के गौरवशाली क्रांतिकारियों को भी दरकिनार कर दिया था। देश को आज़ादी कांग्रेस की लल्लोचप्पो से नहीं मंगल पांडे से लेकर चंद्रशेखर आज़ाद और नेताजी सुभाषचंद्र बोस आदि हज़ारों क्रांतिकारियों की भयानक क्रांति की वजह से मिली है। मंगल पांडे का इतना डर था कि 10 दिन पहले फांसी दे दी। इसी तरह भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को भी एक दिन पहले फांसी दी गयी थी।  

कांग्रेस जनता को बताये कि चंद्रशेखर आज़ाद के खिलाफ मुखबिरी किसने की थी? महात्मा गाँधी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी रुकवाने के लिए ब्रिटिश सरकार से बातकर लोगों की मांग को ठुकरा दी थी? फिर महात्मा गाँधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं ने नेताजी सुभाषचंद्र को ब्रिटिश सरकार के हवाले करने वाले एग्रीमेंट पर किस हैसियत से साइन किये थे। देश की आज़ादी के लिए सबकुछ बलिदान करने वाले बलिदानियों के खिलाफ दुश्मन से हाथ मिलाते शर्म नहीं आयी? यही वजह थी कि नेताजी आज़ादी मिलने के बाद भी खुलकर सामने नहीं आये। जिस से पता चलता है कि इन लोगों को आज़ादी नहीं ब्रिटिश सरकार की गुलामी कर मालपुए खाना पसंद था।  

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायक मंगल पांडे की जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की है। पीएम मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “महान स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे को उनकी जयंती पर आदरपूर्ण श्रद्धांजलि। वे ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देने वाले देश के अग्रणी योद्धा थे। उनके साहस और पराक्रम की कहानी देशवासियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी रहेगी।”

इस ट्वीट के जरिए पीएम ने न सिर्फ मंगल पांडे की बहादुरी को याद किया, बल्कि देशवासियों को उनके बलिदान से प्रेरणा लेने का आह्वान भी किया। मंगल पांडे के बलिदान ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ पहले बड़े विद्रोह की चिंगारी जलाई थी, जिसे आज हम भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं। आइए, इस खास रिपोर्ट में जानते हैं मंगल पांडे के जीवन, उनके विद्रोह की कहानी, कैसे अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ा, क्यों 10 दिन पहले दी गई फाँसी और अंग्रेजों को क्या डर सता रहा था।

मंगल पांडे: एक साधारण सिपाही से क्रांतिवीर तक

मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई 1827 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा गाँव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, उनका जन्म अयोध्या के पास सुरुरपुर गाँव में हुआ, लेकिन उनका परिवार बलिया से ही था। उनके पिता का नाम दिवाकर पांडे था और परिवार की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी। फिर भी मंगल में बचपन से ही देशभक्ति और अन्याय के खिलाफ लड़ने का जज्बा था।

साल 1849 में सिर्फ 18 साल की उम्र में वे ईस्ट इंडिया कंपनी की 34वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री में सिपाही बन गए। उस समय ब्रिटिश सेना में भारतीय सिपाहियों की संख्या ज्यादा थी, लेकिन उन्हें हमेशा कमतर आँका जाता था। कम वेतन, भेदभाव और अंग्रेजों की मनमानी से सिपाही नाराज थे। मंगल पांडे भी इस गुस्से का हिस्सा थे, जो बाद में उनके विद्रोह का कारण बना।

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और मंगल पांडे की भूमिका

1857 का विद्रोह जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, कोई एक दिन की घटना नहीं थी। यह सालों से जमा हुए गुस्से का विस्फोट था। अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं की रियासतें छीन लीं, किसानों पर भारी टैक्स लाद दिए और भारतीय सिपाहियों के साथ बुरा बर्ताव किया। लेकिन विद्रोह की असली चिंगारी थी नई एनफील्ड राइफल के कारतूस।

1850 के दशक में अंग्रेजों ने यह राइफल भारतीय सिपाहियों को दी, लेकिन इसके कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी होने की अफवाह फैल गई। इन कारतूसों को मुँह से काटकर राइफल में लोड करना पड़ता था, जो हिंदू और मुस्लिम सिपाहियों की धार्मिक भावनाओं के खिलाफ था। यह बात जंगल की आग की तरह फैली और सिपाहियों में बेचैनी बढ़ गई।

मंगल पांडे ने इस बेचैनी को आवाज दी। 29 मार्च 1857 को जब वे पश्चिम बंगाल के बैरकपुर छावनी में तैनात थे, उन्होंने विद्रोह का बिगुल बजा दिया। मंगल ने कारतूस इस्तेमाल करने से मना कर दिया और अपने साथी सिपाहियों को भी अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा होने को कहा। उन्होंने जोरदार नारा लगाया, “मारो फिरंगी को!” और दो ब्रिटिश अफसरों लेफ्टिनेंट बौघ और सार्जेंट-मेजर ह्यूसन पर हमला कर दिया।

मंगल ने बौघ को घायल किया और ह्यूसन को मार डाला। यह घटना पूरे देश में क्रांति की शुरुआत बन गई। मंगल पांडे की इस हिम्मत ने सिपाहियों और आम लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा भड़का दिया। इतिहासकार मानते हैं कि मंगल पांडे का यह कदम 1857 के संग्राम का पहला बड़ा कदम था, जिसने अंग्रेजों को डरा दिया।

अंग्रेजों ने कैसे पकड़ा मंगल पांडे को?

मंगल पांडे का विद्रोह देखकर बैरकपुर छावनी में हड़कंप मच गया। उनके हमले के बाद कुछ सिपाहियों ने उनका साथ दिया, लेकिन पूरी रेजिमेंट एकजुट नहीं हो सकी। मंगल ने खुद को गोली मारने की कोशिश की ताकि अंग्रेजों के हाथ न लगें। उन्होंने अपनी बंदूक की नाल छाती पर रखी और पैर से ट्रिगर दबाया, लेकिन गोली सिर्फ उन्हें घायल कर सकी। इसके बाद ब्रिटिश जनरल जॉन हर्सी ने स्थिति को संभाला।
हर्सी ने सिपाहियों को धमकी दी कि जो मंगल को नहीं रोकेगा, उसे गोली मार दी जाएगी। आखिरकार एक सिपाही ने मंगल पांडे को पकड़ लिया। मंगल को गिरफ्तार कर लिया गया और उनके खिलाफ कोर्ट मार्शल में मुकदमा चला। मंगल ने खुलकर कबूल किया कि उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। कोर्ट ने उन्हें फाँसी की सजा सुनाई और तारीख तय की 18 अप्रैल 1857।

10 दिन पहले फाँसी क्यों?

अंग्रेजों ने तय तारीख से 10 दिन पहले यानी 8 अप्रैल 1857 को बैरकपुर में चुपके से मंगल पांडे को फाँसी दे दी। इसका कारण था अंग्रेजों का डर। मंगल पांडे की बहादुरी की खबर तेजी से फैल रही थी। बैरकपुर के सिपाही ही नहीं, आसपास की छावनियों में भी विद्रोह की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। अंग्रेजों को डर था कि अगर मंगल को जिंदा रखा गया या फाँसी में देरी हुई, तो उनकी चिंगारी पूरे देश में आग लगा देगी। इसलिए उन्होंने जल्दबाजी में 8 अप्रैल को फाँसी दे दी ताकि विद्रोह को कुचला जा सके। लेकिन यह उनकी भूल थी। मंगल पांडे के बलिदान ने उल्टा विद्रोह को और भड़का दिया।

अंग्रेजों को क्या डर था?

अंग्रेजों का सबसे बड़ा डर था कि मंगल पांडे का विद्रोह एक बड़े स्वतंत्रता आंदोलन में बदल जाएगा। उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज में लाखों भारतीय सिपाही थे और अगर वे एकजुट हो जाते, तो अंग्रेजों का राज खत्म हो सकता था। मंगल की कार्रवाई के बाद मेरठ, दिल्ली, कानपुर, लखनऊ जैसे शहरों में विद्रोह की चिंगारी फैल गई। 20 अप्रैल को हिमाचल प्रदेश के कसौली में सिपाहियों ने एक पुलिस चौकी जला दी। 10 मई 1857 को मेरठ में सिपाहियों ने ब्रिटिश अफसरों को मार डाला और दिल्ली की ओर कूच किया।
वहाँ उन्होंने मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित किया। लखनऊ में 30 मई को चिनहट और इस्माइलगंज में किसानों, मजदूरों और सिपाहियों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाए। कानपुर में नाना साहब, झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई और लखनऊ में बेगम हजरत महल ने विद्रोह की कमान संभाली। अंग्रेजों को डर था कि अगर मंगल पांडे को जल्द खत्म न किया गया, तो यह विद्रोह पूरे भारत को आजादी की राह पर ले जाएगा।

मंगल पांडे की विरासत

मंगल पांडे के बलिदान ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को नई ताकत दी। भले ही अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबा दिया, लेकिन इसने उनकी कमजोरी उजागर कर दी। 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन खत्म हुआ और ब्रिटिश क्राउन ने भारत पर सीधा शासन शुरू किया। मंगल पांडे की शहादत ने भारतीयों में आजादी की चाह जगाई, जो 1947 में पूरी हुई। उनकी याद में 1984 में भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया। 2005 में उनके जीवन पर ‘मंगल पांडे: द राइजिंग’ नाम की फिल्म भी बनी थी, जिसमें आमिर खान ने उनकी भूमिका निभाई।

मंगल पांडे सिर्फ एक सिपाही नहीं, बल्कि भारत की आजादी की पहली चिंगारी थे। उनकी जयंती पर हम सब उन्हें सलाम करते हैं। जय हिंद!

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