सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम एम सुंदरेश और जस्टिस एन के सिंह की पीठ ने मुंबई ट्रेन धमाकों पर हाई कोर्ट द्वारा सभी 12 अभियुक्तों को बरी करने के निर्णय पर महाराष्ट्र सरकार की अपील पर रोक तो लगा दी लेकिन जेल से रिहा हो चुके अभियुक्तों को दोबारा जेल भेजने से मना कर दिया और उन्हें नोटिस जारी करके जवाब मांगा है। जेल से बाहर कैसी सजा? गजब का कानून है। इसीलिए भ्रष्टाचारी जमानत पर आज़ाद घूम रहे हैं।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वह भी उन्हें दोबारा जेल भेजने के लिए नहीं कह रहे लेकिन हाई कोर्ट की मकोका के विषय में और अन्य बहुत टिप्पणियों की वजह से फैसले पर रोक लगाना जरूरी है। हाई कोर्ट की टिप्पणियों का अन्य मामलों पर असर हो सकता है। इस पर पीठ ने कहा कि हाई कोर्ट का फैसला नज़ीर नहीं माना जाएगा।
![]() |
लेखक चर्चित YouTuber |
सुप्रीम कोर्ट मालिक है, जैसा चाहे निर्णय दे सकता है लेकिन किसी हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने का मतलब भी समझना जरूरी है। यह रोक पूरी तरह नहीं लगी क्योंकि जब रोक लगा दी गई तो इसका मतलब है ट्रायल कोर्ट का फैसला अभी भी लागू है जिसमें 5 अभियुक्तों को फांसी की सजा दी गई थी और 7 को आजीवन कारावास की।
कल्पना कीजिए कि यदि सभी अभियुक्त हाई कोर्ट से बरी होने के बाद रिहा नहीं हुए होते, तब सुप्रीम कोर्ट के स्टे का क्या मतलब होता। तब भी उन्हें सुप्रीम कोर्ट रिहा कर देता जैसे जयपुर धमाकों के केस में किया था।
अब प्रश्न यह उठता है कि आपने उन्हें रिहा तो कर दिया लेकिन उन्होंने अगर किसी अन्य वारदात को अंजाम दे दिया तो उसके लिए जिम्मेदार कौन होगा?
ट्रायल कोर्ट का फैसला पूरी तरह उचित और भेदभाव रहित लगता है क्योंकि उसके सामने 13 अभियुक्त थे जिनमें से ट्रायल कोर्ट ने एक को बरी कर दिया, 5 को फांसी की सजा दी और 7 को उम्रकैद। एक अभियुक्त को बरी करना ही ट्रायल कोर्ट की निष्पक्षता को साबित करता है। 5 को फांसी और 7 को उम्रकैद की सजा देना भी साबित करता है कि ट्रायल कोर्ट के जज ने सही विवेक से निर्णय दिया। उसने सभी को एक लाठी से नहीं हांका। अभियुक्तों को उनके अपराध की गंभीरता को ध्यान में रख कर सजा दी। ट्रायल कोर्ट चाहता तो सभी को उम्रकैद भी दे सकता था या सभी को फांसी की सजा दे सकता था लेकिन ऐसा नहीं किया गया जिसका मतलब है जज ने बुद्धि और समझ से काम लेकर निर्णय लिया (with application of mind)।
दूसरी तरफ हाई कोर्ट का सभी को बरी करना यह साबित करता है जैसे जजों ने किसी पूर्व निर्धारित धारणा से ग्रसित होकर फैसला किया है। यही कुछ अभियुक्तों की भी सजा बरक़रार रखते, तब भी समझा जा सकता था कि उनका निर्णय निष्पक्ष था लेकिन उन्होंने तो एकतरफा निर्णय देकर संदेह पैदा कर दिया।
यह मामला अति गंभीर है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को अपील पर फैसला एक महीने में सुना देना चाहिए।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ऐसा शायद ही करेगा क्योंकि 2008 के जयपुर धमाकों में 71 लोग मारे गए थे और 185 घायल हुए थे। ट्रायल कोर्ट ने 4 को फांसी की सजा दी थी लेकिन हाई कोर्ट ने सभी को बरी कर दिया था और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय ओका और जस्टिस राजेश बिंदल ने 18 मई, 2023 को चारों अभियुक्तों को रिहा करने के आदेश दे दिए थे लेकिन दो साल तक हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील अभी तक लंबित है।
अवलोकन करें:-
अपराधियों/आतंकियों द्वारा मारे गए निर्दोष लोगों की बम धमाकों में हत्या किए जाने को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को गंभीरता से लेना चाहिए। किसी धमाके में किसी जज के परिजन अगर मारे गए तो लोग गोली की रफ़्तार से सुनवाई होती देखेंगे।
No comments:
Post a Comment