भारत के मुस्लिमों को साथ नहीं ले जाना चाहता था जिन्ना, अनशन और RSS को रोक कर गाँधी-नेहरू ने सफल किया उसका प्लान: पाकिस्तानी विश्लेषक ने बताया मजहब के नाम पर बना मुल्क कैसे बचा

                                                                                                                                 साभार - एआइ
जिस सच्चाई को छुपाकर कांग्रेस देश में हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच नफरत के बीज बो कर सत्ता पर काबिज रही, अब सामने आनी शुरू हो गयी है। पाकिस्तान बनने की सच्चाई बताने वालों को भारत के छद्दम धर्म निरपेक्ष साम्प्रदायिक, फिरकापरस्त और हिन्दू-मुस्लिम एकता का दुश्मन बताकर देश को गुमराह करते रहे। हकीकत में सबसे बड़े 
साम्प्रदायिक, फिरकापरस्त और हिन्दू-मुस्लिम एकता का दुश्मन ये ही लोग हैं। पाकिस्तान के लिए छाती पीटने वाले मुसलमानों को अब अपना सिर धुनना चाहिए और कांग्रेस और वामपंथियों को कटघरे में खड़ा करना चाहिए।       

भारत के 79वें स्वतंत्रता दिवस पर एक पुराना वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रहा है, जिसमें पाकिस्तानी-स्वीडिश लेखक और राजनीतिक विश्लेषक इश्तियाक अहमद यह दावा कर रहे हैं कि 1947 में भारत के बंटवारे के समय महात्मा गाँधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने न केवल पाकिस्तान को बचाया, बल्कि गाँधी  ने इसके लिए अपनी जान तक गंवा दी।

वीडियो में अहमद कहते हैं कि अगर गाँधी और नेहरू ने हस्तक्षेप न किया होता तो भारत से करीब 3.5 करोड़ मुस्लिम पाकिस्तान चले जाते, जिससे नव-निर्मित पाकिस्तान पूरी तरह ढह सकता था क्योंकि उस समय पाकिस्तान की कुल आबादी ही सिर्फ 3.39 करोड़ थी और हालात इतने खराब थे कि लिखने के लिए कागज तक नहीं था, संसाधनों की तो बात ही छोड़ दीजिए।

उनका कहना है कि गाँधी ने दिल्ली में दंगे रोकने के लिए आमरण अनशन किया और मुस्लिमों की सुरक्षा सुनिश्चित की, जबकि नेहरू ने आरएसएस और हिंदू महासभा जैसी ताकतों को मुस्लिमों को जबरन निकालने से रोका। इस वजह से करोड़ों मुस्लिम भारत में ही रुक गए।

अहमद ने यह भी कहा कि जिन्ना खुद नहीं चाहते थे कि भारत के मुस्लिम पाकिस्तान आएँ, बल्कि वे चाहते थे कि पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू और सिख भारत चले जाएँ, लेकिन पाकिस्तान ने उन्हें वहाँ टिकने नहीं दिया और जबरन निकाला, जिससे भयंकर हिंसा हुई, खासकर पंजाब, सिंध और बंगाल जैसे इलाकों में।

अहमद ने आगे बताया कि बिहार से लगभग 50 लाख मुस्लिम पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश चले गए, लेकिन इसके बावजूद करीब 3 करोड़ मुस्लिम भारत में ही रह गए, जो गाँधी और नेहरू की नीतियों के बिना संभव नहीं था।

उन्होंने कहा कि अगर ये 3 करोड़ लोग भी पाकिस्तान चले जाते तो देश एक गंभीर जनसंख्या संकट में घिर जाता और संभवतः बिखर जाता। अहमद ने डॉ भीमराव अंबेडकर का भी ज़िक्र किया, जिन्होंने उस समय जनसंख्या की पूरी अदला-बदली की वकालत की थी और चेतावनी दी थी कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो पाकिस्तान को भविष्य में समस्याएँ झेलनी पड़ेंगी।

अहमद का साफ कहना है कि गाँधी और नेहरू ने जो किया, उससे न सिर्फ भारत में मुस्लिमों को सुरक्षा मिली, बल्कि पाकिस्तान को भी उस वक्त की सबसे बड़ी मानवीय और प्रशासनिक तबाही से बचा लिया गया।

गाँधी और नेहरू ने पाकिस्तान को बचाए रखा, लेकिन भारत को सांप्रदायिक जख्मों के साथ छोड़ गए

इश्तियाक अहमद की यह टिप्पणी एक ऐसी विडंबना को सामने लाती है जिसे इतिहास में अक्सर नजरअंदाज किया गया है। आमतौर पर पाकिस्तान की स्थापना की कहानी गाँधी , नेहरू और कॉन्ग्रेस के विरोध के रूप में पेश की जाती है, लेकिन इस वीडियो में खुद एक पाकिस्तानी विद्वान यह बात कबूल करते हैं कि अगर महात्मा गाँधी और पंडित नेहरू ने 1947 के समय कुछ अहम फैसले न लिए होते, तो पाकिस्तान अपनी शुरुआत में ही बिखर सकता था।

गाँधी और नेहरू ने उस समय भारत में रहने वाले करोड़ों मुस्लिमों को पाकिस्तान जाने से रोकने की कोशिश की थी। अगर ये सभी मुस्लिम पाकिस्तान चले जाते, तो पाकिस्तान पर जनसंख्या का इतना भारी बोझ पड़ता कि वह उसे संभाल नहीं पाता। उस वक्त पाकिस्तान के पास न तो ज़रूरी संसाधन थे, न प्रशासनिक ढाँचा, और न ही हालात इतने मजबूत थे कि वो इतनी बड़ी संख्या को संभाल सके।

भारत के नेताओं ने यह फैसला लेकर कि भारत के मुस्लिम यहीं रहें, एक तरह से पाकिस्तान की मदद ही की और उसका जनसंख्या संतुलन बिगड़ने से बचा लिया। वहीं दूसरी ओर, पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों को जबरदस्ती निकाला गया, उन पर हिंसा हुई और उन्हें वहां टिकने नहीं दिया गया।

आज पाकिस्तान के आधिकारिक इतिहास में यह बात शायद ही कभी मानी जाती है कि उसका शुरुआती अस्तित्व भारत के संयम और गाँधी -नेहरू की नीतियों से भी जुड़ा था। वहां बंटवारे को पूरी तरह जिन्ना की दूरदर्शिता और जीत के रूप में दिखाया जाता है।

दूसरी तरफ, भारत में भी इस सच्चाई पर ज्यादा चर्चा नहीं होती। आजादी के बाद की कई सरकारों ने गाँधी और नेहरू को स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में सामने रखा, लेकिन इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया कि जैसा डॉ भीमराव अंबेडकर ने कहा था, ‘सांप्रदायिक समस्या’ को अगर उस समय पूरी तरह हल किया गया होता, तो शायद आज 80 साल बाद भी ये मुद्दा देश को परेशान न कर रहा होता।

इस तरह यह पूरी कहानी हमें दिखाती है कि इतिहास सिर्फ दो तरफा नहीं होता, बल्कि उसके कई पहलू होते हैं, जिन्हें समझना और स्वीकार करना जरूरी है।

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