कश्मीर : 4056 कब्रों में से 93% पाकिस्तानी आतंकियों की, SYSF की रिपोर्ट ने खोली ‘आतंकिस्तान’ के खूनी-खेल की पोल: सेना विरोधी प्रोपेगेंडा का सच आया सामने

                                                                                                                           साभार: इंडिया टुडे
पिछले तीन दशकों से कश्मीर की कब्रगाहें सिर्फ शोक और मातम का स्थान नहीं रहीं बल्कि इन्हें एक तरह से सूचना युद्ध का हथियार भी बनाया गया है। पश्चिमी एनजीओ, अलगाववादी लॉबी और पाकिस्तान की प्रोपेगेंडा मशीन लगातार एक ही कहानी दुनिया के सामने पेश करती रही कि कश्मीर की अनचिह्नित कब्रें भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा किए गए सामूहिक अत्याचार का ‘सबूत’ हैं।

टीवी पर होती चौपालों में किसी भी आतंकवाद के गुप्त समर्थक से यह कहते नहीं सुना कि "आतंकवाद का मजहब होता है", हमेशा यही बकते सुना जाता है कि "आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता", जब आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता फिर क्यों नहीं दफनाया जाता है? अगर कोई उन लाशों को लेकर नहीं जाता, क्यों नहीं उन्हें लावारिसों की जला दिया जाता? जिस दिन जलाना शुरू कर दिया मजहब अपने आप सामने आ जाएगा। 

अभी दो/दिन पहले News18 पर एंकर लुबिका लिकायत के शो गूंज में वरिष्ठ पत्रकार हर्षवर्धन त्रिपाठी ने गरीब फाउंडेशन के चेयरमैन अंसार रज़ा से पूछा कि आप लोग आज तक बाबरी पर चीख-पुकार करते हो लेकिन यह बताओं कि बाबरी के नाम पर मिली जमीन का क्या हुआ? राममन्दिर तो बनकर तैयार भी हो गया, क्या मस्जिद की नींव खुदी? बेशर्म रज़ा जलेबी की बात घुमाता रहा लेकिन जवाब नहीं दिया। ये है मुस्लिम मानसिकता।          खैर, एसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स ऑफ डिसअपीयर्ड पर्सन्स (APDP) और इंटरनेशनल पीपल्स ट्रिब्यूनल ऑन ह्यूमन राइट्स एंड जस्टिस इन कश्मीर (IPTK) की 2009 में आई रिपोर्ट Buried Evidence में यहाँ तक दावा किया कि इन कब्रों में ‘जबरन गायब किए गए’ लोगों के शव हैं।

कम्युनिटी ह्यूमन राइट्स एंड एडवोकेसी सेंटर (CHRAC), एमनेस्टी इंटरनेशनल, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाएँ भी बार-बार ‘अंतरराष्ट्रीय जाँच’ की माँग करती रहीं हैं और यह इशारा देती रहीं कि भारतीय सेना और सुरक्षा बल इन गुमशुदगियों के लिए जिम्मेदार हैं।

हालाँकि, अब ‘सेव यूथ, सेव फ्यूचर’ (SYSF) फाउंडेशन की Unraveling the Truth: A Critical Study of Unmarked and Unidentified Graves in Kashmir Valley (2025) नामक रिपोर्ट ने इन तमाम दावों को झूठा साबित कर दिया है। कई सालों तक चले फील्डवर्क के बाद SYSF ने बारामूला, कुपवाड़ा, बांदीपोरा और गंदेरबल जिलों में 373 कब्रिस्तानों का सर्वे किया और अपनी रिपोर्ट में कुल 4,056 कब्रें दर्ज की हैं।

इस रिपोर्ट के नतीजे साफ बताते हैं कि दशकों से फैलाया जा रहा प्रोपेगेंडा पूरी तरह गलत है, इनमें:
– 2,493 कब्रें विदेशी आतंकियों की हैं इनमें ज्यादातर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और LoC के पास से भेजे गए घुसपैठिए हैं।
– 1,208 कब्रें स्थानीय आतंकियों की हैं यानी कश्मीरी युवक जिन्हें आतंकवाद में भर्ती किया गया।
– 70 कब्रें 1947 के कबायली हमलावरों की हैं।

– 276 कब्रें अनचिह्नित (unmarked) हैं

 इसका मतलब यह हुआ कि कुल कब्रों में से 93.2% की पहचान हो चुकी है और दस्तावेज मौजूद हैं। यह दावा कि यहाँ ‘निर्दोष नागरिकों की सामूहिक कब्रें’ हैं, पूरी तरह झूठा हैं और असलियत यह है कि ये कब्रें ज्यादातर आतंकवादियों की हैं, जिन्हें सुरक्षा बलों ने काउंटर-इंसर्जेंसी ऑपरेशनों में मारा।

आँकड़े जो तोड़ते हैं मिथक

SYSF की रिपोर्ट साफ कहती है, “कब्रों की एक बड़ी संख्या में ऐसे लोग दफन हैं जिनकी पहचान नहीं हो पाई और इनमें से ज्यादातर विदेशी आतंकवादी थे जो LoC पार करके घुसे और सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मारे गए।”

यह एक लाइन ही उस पुराने प्रचार को ध्वस्त कर देती है, जिसमें दशकों से कहा जा रहा था कि यहाँ ‘निर्दोष नागरिकों का जनसंहार’ हुआ है। असलियत यह है कि ये लोग किसी ‘राज्य नीति के शिकार’ नहीं थे बल्कि हथियार उठाने वाले आतंकवादी थे, जो मुठभेड़ों में मारे गए हैं। इनमें से कई लावारिस हैं क्योंकि रावलपिंडी बैठे उनके आकाओं ने मानने से ही इंकार कर दिया कि ये कभी अस्तित्व में थे।

स्टडी में आगे दावा किया गया है, “पहचान ना हो पाने वाले शवों को दफनाना एक व्यावहारिक मजबूरी थी, ना कि किसी तरह की छिपाने की सरकारी साजिश।” मतलब साफ है कि जो आतंकी बिना किसी पहचान पत्र के पकड़े गए या मारे गए, उन्हें गाँव वाले या मस्जिद कमेटियाँ जल्दी से दफना देती थीं।

जब 93.2% कब्रों की पहचान साफ तौर पर आतंकियों और घुसपैठियों के रूप में हो चुकी है, तो यह हंगामा करना कि ‘हजारों कश्मीरी गायब हैं’ का कोई मतलब नहीं बचता है।

कब्रों के पीछे पाकिस्तान का हाथ

SYSF की रिपोर्ट कब्रों को सीधे पाकिस्तान के प्रॉक्सी युद्ध से जोड़ती है। सोवियत सेना के अफगानिस्तान से जाने के बाद 1989 में ISI ने अपनी जिहादी मशीनरी को कश्मीर में भेजना शुरू किया था। पाकिस्तान ने कश्मीरी और पाकिस्तानी आतंकियों को Loc के पार लॉजिस्टिक सपोर्ट, पैसा, हथियार पहुँचाने में हर तरह की मदद दी थी।

हिजबुल मुजाहिद्दीन, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों ने घाटी को जंग का मैदान बना दिया। विदेशी आतंकी बिना किसी दस्तावेज के आते थे और मारे जाने पर ‘अनजान आतंकवादी’ के तौर पर दफना दिए जाते थे।

रिपोर्ट साफ लिखती है कि कश्मीर में स्थानीय राजनीतिक असहमति से लेकर पार सीमा जिहादी आतंकवाद के बदलाव ने ही संघर्ष की पूरी तस्वीर को बदल दिया है। असल में ये कब्रिस्तान पाकिस्तान के उस खूनी खेल की गवाही हैं, जिन पर उसकी छाप दिखती है।

कैसे प्रोपेगेंडा ने पूरी बहस को हाइजैक किया

कथित ‘ह्यूमन राइट्स’ इंडस्ट्री ने इन कब्रों को आधार बनाकर भारत के खिलाफ कहानी गढ़ी। APDP, IPTK और एमनेस्टी ने दावा किया कि इनमें ‘गायब हुए नागरिक’ दफन हैं। लेकिन SYSF ने इनकी कार्यप्रणाली की सच्चाई सामने ले दी है।

रिपोर्ट साफ कहती है, “फॉरेंसिक जाँच जैसे DNA टेस्टिंग ना होने के चलते इन रिपोर्टों ने मृतकों की अलग-अलग श्रेणियों को एक ही माना और स्थानीय नागरिक, स्थानीय आतंकी और विदेशी आतंकी के बीच कोई साफ-साफ अंतर नहीं किया।”

यही असली धोखा था। आतंकियों और आम नागरिकों को मिलाकर पहले की रिपोर्टों ने आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए और भारत को ‘जनसंहार करने वाले देश’ के तौर पर पेश किया। SYSF ने इसकी आलोचना करते हुए कहा, “इन शुरुआती जांचों में कई सीमाएँ थीं… और इन्हें बनाने वालों की वैचारिक सोच ने ही इन्हें प्रभावित किया।”

यहाँ तक कि जम्मू-कश्मीर राज्य मानवाधिकार आयोग (SHRC) ने भी 2011 की अपनी जाँच में कहा था कि इन कब्रों में से कई विदेशी आतंकियों की थीं, जो मुठभेड़ों में मारे गए। फिर भी प्रोपेगेंडा मशीन ने इस सच्चाई को नजरअंदाज कर दिया क्योंकि मकसद सच नहीं बल्कि भारत को बदनाम करना था।

भुला दिए गए असली पीड़ित

जिन वैश्विक रिपोर्टों में ‘अनचिह्नित कब्रों’ को लेकर इतना शोर मचाया, उन्होंने 1989-90 में हुए कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर लगभग चुप्पी साध ली थी। उन्होंने उन मुसलमानों के नरसंहारों को भी कम करके आँका जिन्होंने आतंकियों का विरोध किया था, जैसे वंधामा (1998), चित्तीसिंहपोरा (2000) और नादीमार्ग (2003)।

SYSF रिपोर्ट मानती है कि आतंकियों ने कश्मीर में बर्बर हिंसा फैलाई थी। रिपोर्ट कहती है, “आतंकी संगठनों ने लोगों को जबरन गायब किया, राजनीतिक कार्यकर्ताओं की टार्गेटेड हत्याएँ कीं, अल्पसंख्यक समुदायों (खासकर कश्मीरी पंडित और उदारवादी मुसलमानों) को डराया-धमकाया और विरोध की हर आवाज को व्यवस्थित रूप से कुचल दिया।”

यहाँ उनकी कब्र भी हैं लेकिन एमनेस्टी की चमकदार रिपोर्टों में उनका जिक्र नहीं है। इस दोहरे रवैये की भी अपनी एक कहानी है।

जवाबदेही: भारत बनाम पाकिस्तान

आलोचक अक्सर 3 घटनाओं का जिक्र करते हैं, पठरीबल (2000), माछिल (2010) और अम्शीपोरा (2020) जहाँ निर्दोष नागरिक कथित फर्जी मुठभेड़ों में मारे गए। SYSF की रिपोर्ट में इनका सच भी नहीं छिपाया गया है। रिपोर्ट बताती है कि CBI ने पठरीबल को ‘नृशंस हत्या’ कहा, माछिल में पाँच जवानों को सजा मिली और अम्शीपोरा मामले में अफसर का कोर्ट-मार्शल हुआ।

यानी भारत ने गलती होने पर अपने ही लोगों को सजा दी। यही जवाबदेही है।

अब पाकिस्तान से तुलना कीजिए। SYSF बताती है कि बलूचिस्तान में ‘सामूहिक कब्रें’ मिली हैं, जहाँ लोगों को जबरन गायब किए जाने की घटनाओं की भरमार है। लेकिन हर बार जाँच रोक दी जाती है।

फर्क साफ है कि भारत अपनी गलतियों की जांच करता है, पाकिस्तान उन्हें संस्थागत प्रणाली का हिस्सा बना देता है।

प्रोपेगेंडा का क्या होता है फायदा

तो फिर यह नैरेटिव क्यों चलता रहा कि अनचिह्नित कब्रें ही भारत के अत्याचार की गवाही हैं? क्योंकि यह प्रोपेगेंडा का सबसे बड़ा हथियार था।

SYSF ने दावा किया है, “आतंकी और अलगाववादी नेटवर्क ने इन कब्रों की तस्वीरों का इस्तेमाल प्रचार के लिए किया। बिना पुख्ता सबूतों के बड़े-बड़े आरोप लगाए गए।”

पश्चिमी एनजीओ सुर्खियाँ बटोरने के लिए इन्हें दोहराते रहे। पाकिस्तानी डिप्लोमैट इस रिपोर्ट्स को UN में दिखाते रहे और अलगाववादी इनसे गुस्साए कश्मीरी युवाओं को और भड़काते रहे। इन कब्रों को मानसिक हथियार बना दिया गया।

अब सच सामने है कि ये कब्रें ज्यादातर पाकिस्तान से भेजे गए आतंकियों की हैं।

वैश्विक संदर्भ: बोस्निया या रवांडा नहीं है कश्मीर

सबसे खतरनाक चाल यह रही कि कश्मीर की कब्रों की तुलना बोस्निया के ‘जनसंहार’ वाली कब्रों से की गई। SYSF रिपोर्ट साफ बताती है, “जैसा ईरान, बोस्निया या रवांडा में हुआ, जहाँ राज्य दमन कारण था, वैसा कश्मीर में नहीं है।”

रिपोर्ट दावा करती है कि यहाँ कब्रें सीमा-पार आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन की वजह से बनीं, ना कि किसी एथनिक क्लीनजिंग की वजह से। इन दोनों को बराबरी पर रखना ही बेईमानी है।

क्यों अहम है यह रिपोर्ट

SYSF रिपोर्ट कोई भी सच्चाई नहीं छिपाती है। यह रिपोर्ट बताती है कि कहीं-कहीं गलतियाँ हुईं, अपने गायब लोगों की तलाश कर रहे परिवारों की बात करती है और जरूरत पड़े तो डीएनए टेस्टिंग की माँग भी करती है। असल मायने यह हैं कि रिपोर्ट ने कब्रों का सही संदर्भ सामने लाती है जिसमें आतंकवाद, पाकिस्तान का प्रॉक्सी वॉर और सुरक्षा बलों के ऑपरेशनल हालात शामिल हैं।

यह एक महत्वपूर्ण स्थानीय प्रयास है, जिससे दशकों से झूठ फैलाने वाली रिपोर्टों का सच सामने लाया जा सके। 93.2% कब्रों को दस्तावेजों के साथ दर्ज करके SYSF ने इस प्रोपेगेंडा की जड़ ही काट दी।

कब्रें बताती हैं असली कहानी

इस रिपोर्ट में सामने आए तथ्यों ने प्रोपेगेंडा को पूरा तरह ध्वस्त कर दिया है, अब-
– 93.2% कब्रों की पहचान हो चुकी है।
– इनमें से ज्यादातर कब्रें विदेशी और स्थानीय आतंकियों की हैं, जो मुठभेड़ों में मारे गए।
– अब केवल 276 कब्रें अनचिह्नित हैं, जो कुल कब्रों का सिर्फ 6.8% है।

SYSF का निष्कर्ष है कि ये कब्रें किसी सुनियोजित भारतीय अत्याचार का सबूत नहीं हैं, बल्कि ‘एक मौजूदा और जारी संघर्ष की जटिल हकीकत हैं, जिसमें ऑपरेशनल जरूरतें और मानवीय त्रासदी दोनों शामिल हैं’।

एमनेस्टी, ह्यूमन राइट्स वॉच और अलगाववादी समूहों के गढ़े हुए झूठ की अब इन आँकड़ों के सामने पोल खुल गई है। ये कब्रें भारत की क्रूरता का नहीं बल्कि पाकिस्तान की ‘जिहादी आतंकवाद की राजनीति’ का सबूत हैं।

कश्मीरियों को सच जानने का हक है कि इन कब्रिस्तानों में दफन लोग भारत के शिकार नहीं थे बल्कि रावलपिंडी की चाल के मोहरे थे। भारतीय सेना ने इस खूनी खेल नहीं खेला बल्कि उसने इसे संभालने की कोशिश की। पाकिस्तान से निर्यात किया गया आतंकवाद ही उनके परिजनों की मौत और घाटी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। भारतीय सुरक्षा बलों ने इसे नियंत्रित करने की कोशिश की और इसी के चलते आज कश्मीरी खुली हवा में साँस ले रहे हैं।

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