बिहार चुनाव : मैथिली ठाकुर, पवन सिंह, रितेश पांडेय, खेसारी लाल यादव… सब बनेंगे ‘माननीय’ तो क्या कार्यकर्ता गन्ना चूसेंगे?


पवन सिंह, रितेश पांडे, अक्षरा सिंह, मैथिली ठाकुर, खेसारी लाल यादव, छैला बिहारी, भरत शर्मा व्यास, रचना झा…ऐसा लगता है कि बिहार के इस विधानसभा चुनाव में बिहार से जुड़े सभी कलाकारों में खुद को माननीय बनाने की होड़ लगी हुई है। इसे लेकर जनता के बीच भी भारी विरोध देखा जा रहा है।

खासकर जब से मैथिली ठाकुर ने चुनाव लड़ने की इच्छा जताई है। 25 साल की लोक गायिका मैथिली ठाकुर ने खुद बेनीपट्टी से चुनाव लड़ने की इच्छा जताई है। बिहार बीजेपी के बड़े नेताओं से उनकी मुलाकात, पार्टी में शामिल होने की संभावनाओं ने चुनावी माहौल को गर्म कर दिया है।

विरोध करने वालों का पहला और सबसे बड़ा तर्क यह है कि मैथिली ठाकुर अब बिहार की जमीन से कट चुकी हैं। उनका परिवार लंबे समय से दिल्ली में रहता है, वहीं से उन्होंने अपनी शिक्षा और करियर दोनों बनाए हैं। उनका मधुबनी या दरभंगा से सीधा जुड़ाव अब सिर्फ सरकारी या सांस्कृतिक आयोजनों तक सीमित रह गया है।

कई लोगों का तर्क है कि लोकप्रियता को संस्कृति के लिए योगदान से ऊपर नहीं रखा जा सकता है। उनकी पहचान मैथिली गायिका के रूप में जरूर है, पर उन्होंने स्थानीय स्तर पर कलाकारों के लिए कोई संस्थागत काम नहीं किया है। लोगों का कहना है कि अगर अगर बात मैथिली संस्कृति को सम्मान देने की है, तो ऐसे कलाकारों को मौका देना चाहिए जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी मैथिली के लिए समर्पित की है।

मैथिली क्षेत्र में ऐसे कई कलाकार हैं जिन्होंने अपना जीवन मैथिली संस्कृति को बचाने में लगा दिया। पूनम मिश्रा, माधव राय, विजय विकास, रचना झा जैसे लोग गाँव-गाँव घूमकर कार्यक्रम करते हैं। इन कलाकारों की पहचान भले ही राष्ट्रीय स्तर पर न हो लेकिन वे आज भी अपने लोगों के बीच रहते हैं, उन्हीं के दुख-दर्द में शामिल होते हैं।

मैथिली ठाकुर के नाम के साथ जो विरोध जुड़ा है, उसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि लोग इसे लोकप्रियता की राजनीति मान रहे हैं। कई लोगों को लगता है कि राजनीतिक दल उनके नाम को सिर्फ वोट बटोरने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है।

मैथिली ठाकुर कोई अकेला नाम नहीं है। भोजपुरी स्टार रितेश पांडेय को करगहर से अपना उम्मीदवार बनाया है। इसके अलावा भोजपुरी सिनेमा के चमकते सितारे पवन सिंह, अक्षरा सिंह, रचना झा और खेसारी लाल यादव के भी इस सियासी जंग में उतरने की पूरी संभावनाएँ नजर आ रही हैं।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इन कलाकारों ने अपने क्षेत्र की भाषा और कला को पहचान दिलाई है। भोजपुरी सिनेमा में पवन सिंह, खेसारी लाल यादव जैसे कलाकारों का योगदान भी कम नहीं रहा उनकी लोकप्रियता अपार है, उनका फैनबेस जबरदस्त है। पर चुनाव जीतने के लिए फैनबेस से ज्यादा जमीनी कार्यकर्ताओं की जरूरत होती है।

 पवन सिंह पहले बीजेपी से आसनसोल से उम्मीदवार बने लेकिन वहाँ से उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा। इसके बाद वह बिहार के काराकाट से चुनाव लड़े, पवन सिंह खूब फेमस होने के बाद भी काराकाट से चुनाव नहीं जीत सके बल्कि उन्होंने NDA के उम्मीदवार को हराने का काम ही किया। यानी जिस राजनीतिक विचार से आज वह जुड़ना चाहते हैं उसके प्रति उनकी निष्ठा कितनी रही है या है यह भी एक सवाल है।

याद कीजिए जब मनोज तिवारी ने राजनीति में कदम रखा था, ‘ससुरा बड़ा पइसावाला’ के हिट होने के बाद वह भोजपुरी सिनेमा के बड़े सुपरस्टार बन गए थे। उनकी कैसेट ब्लैक में बिकने लगी थी। इस बीच जब 2009 में मनोज तिवारी सपा के टिकट पर गोरखपुर से चुनाव लड़े तो उनकी हार हुई।

भोजपुरी सिनेमा के ही एक और बड़े सुपर स्टार हैं रवि किशन, उनकी गिनती उन अभिनेताओं में होती है जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा को फिर से खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई है। अपनी लोकप्रियता के वाबजूद जव वह चुनावी मैदान में उतरे तो हालता खस्ता हो गई। 2014 में उन्होंने जौनपुर से कॉन्ग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें केवल 4.25% वोट ही मिल सके। रवि किशन फिलहाल गोरखपुर से बीजेपी के सांसद है।

ऐसे स्टार्स से लिस्ट लंबी है जो राजनीति में आए लेकिन फ्लॉप हो गए। कुछ ऐसे भी हैं जो आए चुनाव जीते और फिर क्षेत्र से गायब हो गए। हर दल में ऐसे स्टार्स आपको दिख जाएँगे। अमिताभ बच्चन से लेकर जया प्रदा और धर्मेंद्र तक राजनीति में कदम रखने वाले स्टार्स की लंबी फेहरिस्त है।

राजनीति हमेशा से जनसेवा का मंच कही जाती रही है और मंच के सितारों का राजनीति में आना कोई नई घटना भी नहीं है। इसके साथ-साथ एक सवाल जो उठता है वो ये कि क्या ऐसे समय में जो कार्यकर्ता वर्षों से दशकों से पार्टी का झंडा ढो रहा है, दरी-चादर बिछा रहा है, जो हर चुनाव में पोस्टर चिपकाता, भीड़ जुटाता और गलियों में नारे लगाता है, क्या उसका कोई हक नहीं बचा है?

राजनीति में विचार और वैचारिक प्रतिबद्धता हमेशा से एक ताकत रही है। जब कलाकारों और सेलेब्रिटीज को सिर्फ उनकी लोकप्रियता के दम पर टिकट दिए जाते हैं, तो वो विचारधारा के प्रति समर्पित नहीं होते हैं। कई बार वे खुद नहीं जानते कि जिस दल से लड़ रहे हैं, उसकी विचारधारा क्या है, उसकी नीतियाँ क्या हैं या उस क्षेत्र की वास्तविक समस्याएँ क्या हैं।

अब जब ये स्टार्स चुनाव में उतरते हैं तो इन चेहरों के आने का सीधा असर पड़ता है जमीनी कार्यकर्ता पर, खासतौर पर यूपी या बिहार जैसे राज्यों में। जिन्हें राजनीतिक तौर पर ज्यादा एक्टिव माना जाता है। ऐसी जगहों पर जब कार्यकर्ता अपने खून-पसीने से पार्टी की पहचान बनाते हैं, वहाँ जब कोई स्टार अचानक टिकट लेकर आ जाता है, तो कार्यकर्ता का मन टूट जाता है।

उसे लगता है कि उसका संघर्ष, उसकी मेहनत सब बेकार गई। वह जो बरसों तक अपने इलाके में पार्टी का चेहरा रहा, जनता के सुख-दुख में साथ रहा, अब उसे कोई पूछने वाला नहीं। राजनीति की ताकत हमेशा कार्यकर्ता से आती है, सितारों से नहीं। पार्टी का ढांचा उसी नींव पर टिका होता है जो गाँव-गाँव जाकर जनसंपर्क करते हैं, पोस्टर लगाते हैं, बूथ संभालते हैं। अगर उस नींव को ही कमजोर कर दिया गया, तो उसके ऊपर बना महल भर-भराकर गिर ही जाएगा।

राजनेताओं और राजनीतिक दलों को यह सच्चाई भी समझनी चाहिए, भले ही ऐसे उम्मीदवारों की संख्या 1-2 हो लेकिन यही लोकप्रियता इनके लिए इस मामले में मुसीबत बन जाती है। यह चर्चा लोगों तक पहुँचने लगती है कि पार्टी में हवा-हवाई उम्मीदवारों को टिकट दिया जा रहा है। ऐसे में राजनीतिक दलों को कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं को समझ, जमीनी लोगों को आगे बढ़ाने की जरूरत हैं।

राजनीति का उद्देश्य हमेशा सेवा और जनहित रहा है, न कि लोकप्रियता और चमक। लेकिन जब कलाकारों और गायकों को सिर्फ इसलिए उतारा जाता है क्योंकि उनके लाखों फॉलोअर्स हैं या वे वोटों को influence कर सकते हैं, तो राजनीति विचार और मूल्यों से खाली हो जाती है।

धीरे-धीरे जनता को यह महसूस होने लगा है कि राजनीति अब जनता की आवाज नहीं बल्कि चुनावी ब्रांडिंग की मशीन बन चुकी है। जो लोग राजनीति के लिए पूरी तरह समर्पित होकर इस क्षेत्र में काम करना भी चाहते होंगे उन्हें भी लगने लगेगा कि स्टार बन जाया तो राजनेता बनने का रास्ता साफ हो जाएगा।

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इन्हीं, कारणों के चलते राजनीति से वही सुचिता कम हो रही है और लोगों के प्रति जवाबदेही में भी कमी आ रही है। राजनीति की सुचिता को बचाने के लिए जरूरी है कि पूर्ण कालिक लोग राजनीति में आएँ जो इसे साइड बिजनेस ना मानकर पूर्ण कालिक काम मानें।

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