‘जजों को कम बोलना चाहिए’: जिस ‘ओरल ऑब्जर्वेशन’ से बचने की पूर्व CJI काटजू दे रहे नसीहत, जानिए उसके नाम पर कैसे हिंदुओं और PM मोदी को बनाया गया ‘निशाना’

   पूर्व CJI मार्केंडेय काटजू, सुप्रीम कोर्ट, मौजूदा सीजेआई बी आर गवई (साभार: AI Grok/Jagran/Times Now Navbharat)

भारत की न्यायपालिका को लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ माना जाता है, लेकिन हाल के सालों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की कोर्ट रूम में की गई मौखिक टिप्पणियाँ (ओरल ऑब्जर्वेशंस) विवादों का केंद्र बन गई हैं। ये टिप्पणियाँ अक्सर फैसले का हिस्सा नहीं होतीं, लेकिन इनके कारण पूरे देश में हंगामा मच जाता है। ताजा उदाहरण है मौजूदा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बी.आर. गवई की एक टिप्पणी, जिसने हिंदू समाज को आहत किया और एक वकील को इतना गुस्सा दिलाया कि उसने कोर्ट में ही जूता फेंक दिया।

पूर्व सीजेआई मार्कंडेय काटजू ने इस पर अपनी राय देते हुए कहा है कि जजों को कोर्ट में कम बोलना चाहिए और सिर्फ कानूनी पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए, न कि अनावश्यक बयानबाजी करनी चाहिए।

पूर्व सीजेआई मार्कंडेय काटजू ने अपने एक लेख में लिखा है कि जजों का काम सुनना है, फैसला देना है, न कि लेक्चर देना। वे कहते हैं, “एक ज्यादा बोलने वाला जज एक बेसुरे बाजे की तरह होता है।” यह बात उन्होंने इंग्लैंड के पूर्व लॉर्ड चांसलर सर फ्रांसिस बेकन के हवाले से कही।

काटजू ने गवई की टिप्पणी को अनुचित बताया और कहा कि अगर कोई जज मस्जिद के मामले में पैगंबर मोहम्मद से जाकर प्रार्थना करने की बात कहे, तो क्या होगा? शायद ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारे लगने लगें। यह बात सोचने वाली है कि क्या जजों की ऐसी टिप्पणियाँ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाती हैं और समाज में अशांति फैलाती हैं?

सुप्रीम कोर्ट में कुछ समय पहले एक याचिका आई थी, जिसमें मध्य प्रदेश के खजुराहो में भगवान विष्णु की क्षतिग्रस्त मूर्ति को बहाल करने की माँग की गई थी। याचिकाकर्ता ने खुद को विष्णु भक्त बताया। सुनवाई के दौरान सीजेआई गवई ने कहा, “तुम कहते हो कि तुम विष्णु के कट्टर भक्त हो। जाओ और खुद देवता से कहो कि कुछ करे। जाओ और प्रार्थना करो।”

यह टिप्पणी केस के कानूनी मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं रखती थी, लेकिन इसने हिंदू समाज में गुस्सा भड़का दिया। कई लोगों ने इसे सनातन धर्म पर हमला माना। नतीजा? एक गुस्साए वकील ने कोर्ट में ही गवई पर जूता फेंक दिया। काटजू ने जूता फेंकने की निंदा की, लेकिन कहा कि जज की अनावश्यक बातों ने यह न्योता खुद दिया।

यह पहली बार नहीं है जब जजों की मौखिक टिप्पणियों ने देश में अव्यवस्था पैदा की हो। पिछले कुछ सालों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जहाँ जजों ने हिंदू धर्म से जुड़े मुद्दों पर ऐसी टिप्पणियाँ कीं, जो फैसले में शामिल नहीं हुईं, लेकिन समाज में तूफान ला दिया। आइए, इनमें से कुछ प्रमुख मामलों पर नजर डालते हैं।

इसी साल 2025 में पूर्व जस्टिस रोहिंटन नरीमन की ‘डिवाइन ऑर बोवाइन इंटरवेंशन‘ वाली टिप्पणी को ही रख लीजिए। नरीमन ने एक कार्यक्रम में पूर्व सीजेआई दीपक मिश्रा या चंद्रचूड़ के राम मंदिर फैसले पर प्रार्थना करने के संदर्भ में कहा कि अगर कोई जज फैसला ‘डिवाइन इंटरवेंशन’ (दैवीय हस्तक्षेप) से देता है, तो वह अपनी शपथ का उल्लंघन करता है। उन्होंने मजाक में कहा, ‘चाहे डिवाइन हो या बोवाइन (गाय जैसा) इंटरवेंशन।’

लोगों ने इसे हिंदू धर्म का मजाक उड़ाना माना, क्योंकि ‘बोवाइन’ गाय से जुड़ा है, जो हिंदुओं के लिए पवित्र है। इस टिप्पणी ने सोशल मीडिया पर बहस छेड़ दी और कई ने इसे एंटी-हिंदू बताया। नरीमन की बात का मकसद शायद न्यायपालिका की निष्पक्षता पर जोर देना था, लेकिन शब्दों का चुनाव गलत साबित हुआ।

दूसरा मामला 2022 का है, जब सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा पर टिप्पणी की। उस समय बीजेपी की प्रवक्ता रही नूपुर शर्मा ने एक टीवी डिबेट में पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी की थी। इसके बाद देश में हिंसा भड़क गई, जिसमें उदयपुर में एक हिंदू दर्जी कन्हैयालाल की सरेआम हत्या कर दी गई। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में नूपुर की याचिका पर सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्या कांत और जेबी पारदीवाला ने कहा कि नूपुर की ‘लूज टंग’ ने पूरे देश को आग लगा दी। उन्होंने कहा, “वह उदयपुर हत्याकांड के लिए जिम्मेदार हैं” और “उन्हें पूरे देश से माफी माँगनी चाहिए।”

ये टिप्पणियाँ फैसले का हिस्सा नहीं थीं, लेकिन इन्होंने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया। बीजेपी समर्थकों ने जजों की आलोचना की, जबकि विपक्ष ने इसे सही ठहराया। नूपुर को पार्टी से सस्पेंड कर दिया गया, और समाज में धार्मिक तनाव बढ़ गया। कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी टिप्पणियाँ ट्रायल से पहले किसी को दोषी ठहराने जैसी हैं, जो न्याय की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं।

तीसरा मामला साल 2008 का है। इसमें दिल्ली हाई कोर्ट में एम.एफ. हुसैन पर मामला चल रहा था। मशहूर पेंटर एम.एफ. हुसैन पर हिंदू देवी-देवताओं की नग्न पेंटिंग्स बनाने के आरोप थे। कई जगहों पर उनके खिलाफ केस दर्ज हुए। दिल्ली हाई कोर्ट ने इन केसों को खारिज करते हुए कहा कि शिकायतकर्ताओं की सोच “प्यूरिटनिज्म” (कट्टर नैतिकता) वाली है।

जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा, “हमें उन विचारों की आजादी देनी चाहिए जिनसे हम नफरत करते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब तब तक नहीं अगर अपमान करने की आजादी न हो।” इस टिप्पणी को कई हिंदुओं ने अपनी धार्मिक भावनाओं का अपमान माना। हुसैन को देश छोड़ना पड़ा और हिंदू संगठनों ने प्रदर्शन किए। हालाँकि कोर्ट का फैसला कला की आजादी के पक्ष में था, लेकिन मौखिक टिप्पणी ने विवाद बढ़ाया।

ये चार मामले (दो 2025 के, एक 2022 का, एक 2008 का) दिखाते हैं कि जजों की टिप्पणियाँ कैसे हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाती हैं और देश में अशांति फैलाती हैं। लेकिन बात सिर्फ हिंदू-विरोधी टिप्पणियों तक सीमित नहीं। अब देखते हैं गुजरात दंगों से जुड़े चार मामलों को, जहाँ सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर कड़ी टिप्पणियाँ कीं। ये टिप्पणियाँ भी मौखिक थीं और फैसलों में शामिल नहीं हुईं, लेकिन इन्होंने राजनीतिक माहौल गरमा दिया।

पहला साल 2004 का सुप्रीम कोर्ट का ‘मॉडर्न-डे नीरोज‘ वाला बयान। 2002 के गुजरात दंगों में बेस्ट बेकरी केस में सभी आरोपित बरी हो गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने अपील पर सुनवाई करते हुए गुजरात सरकार को ‘मॉडर्न-डे नीरोज’ कहा। नीरो रोमन सम्राट थे, जो शहर जलते देखते रहे। कोर्ट ने कहा, “जब निर्दोष बच्चे और असहाय महिलाएँ जल रही थीं, तो सरकार ने आँखें फेर लीं।” इस टिप्पणी ने मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। कॉन्ग्रेस और विपक्ष ने इसे मोदी के खिलाफ हथियार बनाया। हालाँकि बाद में 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने मोदी को क्लीन चिट दी, लेकिन 2004 की टिप्पणी का असर सालों तक रहा।

दूसरा मामला 2003 का है, जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गुजरात सरकार में कोई विश्वास नहीं है। दंगों की जाँच पर सुनवाई में कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार निष्पक्ष जाँच नहीं कर रही। अभियोजन और राज्य के बीच नेक्सस (साँठगाँठ) की बात कही गई। इसने दंगों की जाँच को सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में डाल दिया। विपक्ष ने इसे मोदी की विफलता बताया और देश में बहस छिड़ गई कि क्या राज्य सरकार दंगों में शामिल थी?

तीसरा मामला सितंबर 2003 का है, जहाँ एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार पर टिप्पणी की थी कि उसमें कोई भरोसा नहीं। यह दंगों के कई केसों की जाँच से जुड़ा था। कोर्ट ने एसआईटी गठित की, क्योंकि राज्य की जाँच पर शक था। इस टिप्पणी ने राजनीतिक पार्टियों को हमले का मौका दिया और मोदी की छवि पर विपरीत असर पड़ा।

चौथा मामला फरवरी 2012 का है, जब गुजरात हाई कोर्ट ने कहा कि सरकार की अपर्याप्त प्रतिक्रिया और निष्क्रियता के कारण दंगे दिनों तक चले। यह ‘अराजक स्थिति’ वाली टिप्पणी थी। हाई कोर्ट ने सरकार की आलोचना की कि उसने दंगों को रोकने में ढिलाई बरती। यह टिप्पणी भी फैसले का हिस्सा नहीं थी, लेकिन मीडिया में सुर्खियाँ बनी और विपक्ष ने मोदी को घेरा।

ऐसा ही एक मामला किसान आंदोलन के समय का है, जब सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में कहा कि सरकार ने कानून बनाते समय सही तरीके से राय तक नहीं ली। जबकि सरकार इस मामले में अपना पक्ष विस्तार से रख चुकी थी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का देश में गलत मतलब से इस्तेमाल किया गया।

ये मामले दिखाते हैं कि मौखिक टिप्पणियाँ कैसे समाज को बाँटती हैं। कानूनी रूप से इनका कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में कहा है कि हाई कोर्ट मौखिक निर्देश नहीं दे सकते, सिर्फ लिखित आदेश बाध्यकारी होते हैं। एक केस में कोर्ट ने कहा, “जजों को अपने फैसलों से बोलना चाहिए, मौखिक बातें रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं।” लेकिन व्यावहारिक रूप से ये टिप्पणियाँ मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए फैलती हैं और जनता की राय बनाती हैं।

जैसे गुजरात मामलों में मोदी को सालों तक ‘दंगाई’ कहा गया, जबकि बाद में क्लीन चिट मिली। इसी तरह नूपुर शर्मा को ट्रायल से पहले दोषी ठहराया गया।

अब बात करते हैं सोशल मीडिया की भूमिका की। आज के दौर में सोशल मीडिया ने सबकी जवाबदेही तय कर दी है। चाहे सीजेआई हो या कोई नेता, अगर कोई गलत बोलता है, तो जनता तुरंत प्रतिक्रिया देती है। गवई की टिप्पणी का मामला देखिए। जैसे ही यह बात बाहर आई, एक्स (पूर्व ट्विटर) पर #ImpeachTheCJI और #GavaiMustResign जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे।

हजारों यूजर्स ने गुस्सा जाहिर किया। एक यूजर ने लिखा, “यह हिंदू आस्था का अपमान है, क्या मुस्लिम पिटीशनर से ऐसा कहते?” दूसरा बोला, “मोदी सरकार क्यों चुप है? सॉलिसिटर जनरल ने तो बचाव किया!” कई ने इसे ‘टू-टियर ज्यूडिशियरी’ कहा, मतलब हिंदुओं के लिए अलग न्याय।

सोशल मीडिया ने गुस्से को पनपाया। लोग वीडियो शेयर करने लगे मीम्स बने, और बहस छिड़ गई। पूर्व आईपीएस अधिकारी भास्कर राव ने जूता फेंकने वाले वकील की हिम्मत की तारीफ की, हालाँकि गलत बताया। काटजू का ट्वीट वायरल हुआ, जिसमें उन्होंने जजों को कम बोलने की सलाह दी।

सोशल मीडिया की वजह से सीजेआई जैसे पद पर बैठे व्यक्ति को भी सोच-समझकर बोलना पड़ता है। पहले ऐसी टिप्पणियां कोर्ट रूम तक सीमित रहती थीं, लेकिन अब लाइव स्ट्रीमिंग और सोशल मीडिया से तुरंत फैल जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने खुद सोशल मीडिया को ‘बेलगाम’ कहा है।

जस्टिस पारदीवाला ने एक कार्यक्रम में कहा कि सोशल मीडिया पर जजों पर व्यक्तिगत हमले खतरनाक हैं, इससे जज कानून की बजाय मीडिया की सोचते हैं। लेकिन सवाल यह है कि अगर जज अनावश्यक टिप्पणियाँ करेंगे, तो जनता चुप क्यों रहे? गवई मामले में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि सोशल मीडिया अतिरंजित प्रतिक्रिया दे रहा है, लेकिन क्या यह सही है?

हिंदू समाज ने महसूस किया कि उनकी आस्था का मजाक उड़ाया गया। सोशल मीडिया ने इसे आवाज दी और अब सरकार से इम्पीचमेंट की माँग हो रही है।

कुल मिलाकर जजों की मौखिक टिप्पणियाँ न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुँचाती हैं। ये समाज में अव्यवस्था पैदा करती हैं, क्योंकि ये राजनीतिक और धार्मिक भावनाओं को भड़काती हैं। कानून कहता है कि सिर्फ लिखित फैसले मायने रखते हैं, लेकिन सोशल मीडिया के दौर में मौखिक बातें भी महत्वपूर्ण हो गई हैं। जरूरत है कि जज संयम बरतें, जैसा काटजू साहब कहते हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो ऐसी घटनाएँ बढ़ेंगी और न्यायपालिका पर जनता का भरोसा कम होगा। क्या समय आ गया है कि कोर्ट रूम में बोलने के लिए गाइडलाइंस बनें? यह विचार करने का समय है।(साभार) 

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