इन लोगों ने विस्फोटक सामग्री की खरीद, छिपाने और तकनीकी सहायता जैसे कार्यों को अंजाम दिया। सुरक्षा विश्लेषक अब इस प्रवृत्ति को ‘व्हाइट कॉलर जिहाद’ कह रहे हैं, अर्थात शिक्षा और पेशेवर विश्वास का दुरुपयोग कर देश के भीतर ऐसी हिंसा को अंजाम देना, जिसे नकारा जा सके और जिसका प्रभाव घातक हो।
प्रारंभिक जाँच और फोरेंसिक निष्कर्ष
विस्फोट के कुछ ही दिनों बाद बहु-एजेंसी छापों और जाँचों का दायरा दिल्ली से बाहर तक फैल गया। अधिकारियों ने ऐसे नमूने बरामद किए, जिनमें प्रयुक्त विस्फोटक सामान्य अमोनियम नाइट्रेट से कहीं अधिक शक्तिशाली थे। प्रेस ब्रीफिंग्स और मीडिया रिपोर्टों में विभिन्न राज्यों से बड़ी मात्रा में बम बनाने की सामग्री और रसायनिक घटकों की बरामदगी का विवरण आया।
समेकित रिपोर्टों के अनुसार, दिल्ली-NCR, श्रीनगर, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में हुए इन ऑपरेशनों से सैकड़ों किलो विस्फोटक जब्त किए गए। कुछ रिपोर्ट्स ने इस पूरी मात्रा को टन स्तर तक बताया। गिरफ्तार लोगों में कुछ डॉक्टर और शिक्षण संस्थानों से जुड़े व्यक्ति भी शामिल थे।
रणनीतिक संदर्भ: ऑपरेशन सिंदूर और प्रॉक्सी वॉर की दिशा
सुरक्षा विश्लेषक इस मॉड्यूल को सीधे तौर पर साल 2025 के मध्य में भारत की सीमा-पार की कार्रवाई, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से जोड़कर देखते हैं। इस अभियान के तहत कई आतंकी ढाँचों को तबाह किया गया था। उसके बाद यह साफ दिखा कि प्रतिपक्ष ने अपनी रणनीति बदल ली है।
जब भारत की सीधी सैन्य कार्रवाइयाँ उसके लिए महँगी और कठिन साबित हुईं, तब उसने ‘डिनाएबल’ यानी नकारे जा सकने वाले स्थानीय प्रॉक्सी नेटवर्क सक्रिय कर दिए। दूसरे शब्दों में कहें तो जब बाहरी विकल्प सीमित हो जाते हैं, तो बाहरी सरगनाओं के लिए यह आसान हो जाता है कि वे भीतर के कम-संदिग्ध चेहरों को सक्रिय करें और हिंसा को अंदर से अंजाम दें।
शिक्षित पेशेवरों को क्यों बनाया जाता है हथियार?
लक्षित समूह के रूप में शिक्षित लोगों को चुनने के पीछे कठोर तर्क है। डॉक्टर, इंजीनियर और विश्वविद्यालय-प्रशिक्षित व्यक्ति समाज में भरोसेमंद माने जाते हैं। उनके पास तकनीकी दक्षता, गतिशीलता, सप्लाई-चेन तक पहुँच और सामाजिक विश्वसनीयता होती है। ये सभी गुण उन्हें कम संदिग्ध बनाते हैं जबकि आतंकी नेटवर्क के लिए उन्हें अधिक उपयोगी बना देते हैं।
इनकी पेशेवर पहचान उन्हें औद्योगिक रसायनों की वैध खरीद, परिवहन, भंडारण और विस्फोटक प्रणालियों की संरचना में सहायता देती है। कई मामलों में यह भी पाया गया है कि जो तथाकथित ‘प्रेरक’ या कट्टर मौलवी स्वयं तकनीकी रूप से अनपढ़ हैं, वे शिक्षित युवाओं को प्रभावित करने में सफल हो जाते हैं। परिणामस्वरूप, शिक्षा और कट्टरता का यह संयोजन अत्यंत घातक रूप ले लेता है।
घरेलू चुनौती: वैध अवसरों का दुरुपयोग
भारत सरकार की छात्रवृत्तियाँ, लैपटॉप वितरण, उच्च शिक्षा का विस्तार और कौशल विकास योजनाएँ देश की ताकत हैं। लेकिन इन्हीं अवसरों का दुरुपयोग भी कट्टर तत्व अपने प्रचार और हिंसा के औजारों में बदल रहे हैं।
जाँच में सामने आया है कि कुछ मामलों में सरकारी योजनाओं से मिले संसाधनों जैसे उपकरण, डिजिटल एक्सेस या यात्रा की सुविधा को आतंकी कार्यों के लिए प्रयोग किया गया। नीति निर्धारकों के सामने यह दोहरी चुनौती है। एक ओर अवसरों को जारी रखना और दूसरी ओर संस्थागत सुरक्षा के ऐसे उपाय सुनिश्चित करना जो इन अवसरों के दुरुपयोग को रोक सकें।
देश कितनी बड़ी त्रासदी से बचा?
अधिकारियों की ब्रीफिंग और मीडिया रिपोर्टे्स इस बात पर जोर देती हैं कि इस मामले में रोकथाम और तबाही के बीच की दूरी बेहद कम थी। जम्मू-कश्मीर, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पकड़े गए विस्फोटक पदार्थों का नेटवर्क यदि सफलतापूर्वक सक्रिय होता तो यह देश के धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्रों पर व्यापक हमलों की क्षमता रखता था।
जाँच में संकेत मिले हैं कि नियोजित लक्ष्य उच्च जनसंख्या घनत्व वाले और प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण स्थल थे। यदि खुफिया एजेंसियों ने समय रहते कार्रवाई न की होती तो परिणाम भयानक हो सकते थे। यह सफलता संयोग नहीं थी। यह लंबे समय तक की गई मानवीय खुफिया निगरानी, कई एजेंसियों के समन्वय और फोरेंसिक विश्लेषण का परिणाम थी।
मौन प्रहरी: इंटेलिजेंस ब्यूरो की निर्णायक भूमिका
इन घटनाओं के पीछे जो सबसे निर्णायक और अदृश्य शक्ति रही, वह भारत की इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) है। जो देश की सबसे पुरानी और गुप्त सुरक्षा एजेंसी है। इस पूरे अभियान में IB की मानव स्रोतों से मिली जानकारी, राज्यों के बीच समन्वय और विश्लेषणात्मक कड़ियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही।
IB के अधिकारी बिना किसी प्रशंसा या पुरस्कार की अपेक्षा के दिन-रात काम करते हैं। वे महीनों तक सूचनाओं को जोड़ते हैं, संपर्कों को विकसित करते हैं और गुप्त निगरानी से जमीनी हकीकत तक पहुँचते हैं। इन्हीं मौन रक्षकों के कारण कई बड़े हमले समय रहते विफल कर दिए जाते हैं। उनकी पेशेवर निष्ठा और मौन सेवा ही देश की वास्तविक ढाल है। यह ‘शांत सुरक्षा’ भारत की रक्षा का सबसे सशक्त स्तंभ है।
सामुदायिक जिम्मेदारी और शिक्षित वर्ग की भूमिका
यह प्रवृत्ति केवल सुरक्षा नहीं बल्कि नैतिक और सामाजिक चुनौती भी है। भारत के मुस्लिम इस राष्ट्र की आत्मा, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। उनमें से विशाल बहुमत हिंसा को अस्वीकार करता है और देश की प्रगति में भागीदार बनना चाहता है। लेकिन जब कट्टर तत्व शिक्षित युवाओं को लक्ष्य बनाते हैं तो समाज और परिवारों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।
विश्वविद्यालयों, मेडिकल कॉलेजों, प्रोफेशनल संस्थाओं और धार्मिक संगठनों को सतर्क निगरानी तंत्र और परामर्श प्रणाली विकसित करनी चाहिए। स्कॉलरशिप या डिजिटल कार्यक्रमों में नागरिक नैतिकता और डिजिटल सुरक्षा के तत्वों को शामिल करना आवश्यक है ताकि युवाओं को ब्रेनवॉश होने से बचाया जा सके। शिक्षित वर्ग को न केवल स्वयं सचेत रहना चाहिए बल्कि अपने ज्ञान और विवेक से दूसरों को भी जागरूक करना चाहिए।
नीति-स्तर पर दोहरी रणनीति
इस चुनौती से निपटने के लिए जवाब भी दो स्तरों पर होना चाहिए:
- खुफिया नेटवर्क को और गहराई देना ताकि लॉजिस्टिक चैन जल्दी पकड़ी जा सके।
- शैक्षणिक और कल्याणकारी योजनाओं में डिजिटल सुरक्षा और पारदर्शिता के नए मानक बनाना।
- सामुदायिक स्तर पर ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देना जो असहिष्णुता के बजाए संवाद और सहयोग को प्रोत्साहित करें।
- और राष्ट्रीय विमर्श को इस दिशा में ले जाना कि अहिंसा, नागरिक उत्तरदायित्व और साझा समृद्धि ही असली राष्ट्र-धर्म हैं।
लालकिला क्षेत्र में हुआ विस्फोट और उससे जुड़े मॉड्यूल ने यह दिखा दिया है कि आधुनिक आतंकवाद अब शिक्षा, तकनीकी दक्षता और सामाजिक विश्वास का भी हथियार बना रहा है। इसका उत्तर भय या बहिष्कार नहीं है बल्कि दोहरी क्षमता में है। एक ओर मौन, पेशेवर खुफिया काम जो खतरे को जड़ से रोक सके और दूसरी ओर समाज की वह सजीव चेतना जो कट्टरता को अस्वीकार करे।
यदि हमारे डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षित नागरिक राष्ट्रनिर्माण की दिशा में अपनी भूमिका निभाएँ और इंटेलिजेंस ब्यूरो जैसी संस्थाएँ उसी निष्ठा से अपने कार्य करती रहें, तो ‘व्हाइट कॉलर जिहाद’ जैसी विकृत प्रवृत्तियों को समाप्त किया जा सकता है। शांत खुफिया कौशल और जागरूक नागरिकता- यही भारत की सबसे मजबूत सुरक्षा की ढाल है।
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