झारखंड: बिना शौचालय कैसे राज्य हो गया ओडीएफ ?

आर.बी.एल.निगम, वरिष्ठ पत्रकार 
महात्मा गाँधी से लेकर वर्तमान प्रधानमन्त्री खुले में शौच न करने पर कितना समय और धन खर्च कर चुके हैं, परन्तु आज भी झुग्गी-झोंपड़ी वाले खुले में ही शौच करते नज़र आते हैं। दिल्ली से हैदराबाद, जम्मू, नासिक, बैंगलोर, ग़ाज़ियाबाद, अलीगढ, जयपुर, कानपुर, हरिद्वार या भारत के किसी भी राज्य में जाइये, सुबह के समय नर-नारी रेलवे लाइन पर शौच करते नज़र आ जाएंगे। इतना ही नहीं, दिल्ली में ही, अभी कुछ समय पूर्व सुबह किसी काम से विकासपुरी जाना पड़ा था, जहाँ समाज कल्याण और पंचवटी अपार्टमेंट्स के सामने बहते गन्दे नाले के पास भी ये नज़ारा देखने को मिला।   
और अब ज्ञात हुआ कि पूरा झारखंड राज्य खुले में शौच से मुक्त हो गया है। यह दावा स्वयं मुख्यमंत्री रघुवर दास ने किया है।  वैसे इसकी घोषणा 2 अक्टूबर को ही होनी थी, पर अब 15 नवंबर राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर सम्पूर्ण झारखंड को ओडीएफ घोषित कर दिया जाएगा। राज्य सरकार दावे तो कर रही है कि सम्पूर्ण राज्य खुले में शौच से मुक्त हो गया है, पर अभी भी मुख्यमंत्री आवास एवं झारखंड मंत्रालय के कार्यालयों के तीन-चार किलोमीटर के दायरे में ही लोग खुले में शौच करते मिल जाएंगे।
ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति तो अभी भी बदतर ही है। लगभग 50 प्रतिशत ग्रामीण आबादी अभी भी खुले में शौच करती है। वैसे नगर निगम के अधिकारी ने कहा था कि उड़न दस्ता का गठन किया जाएगा। खुले में शौच करते लोग पाए गए तो सिटी बजाकर उन्हें चेतावनी दी जाएगी, अगर इसके बाद भी नहीं माने, तो लोगों पर जुर्माना लगाया जाएगा।
गांवों एवं शहरों में सरकारी अनुदान लेकर लोगों ने शौचालय तो बना लिए, शौचालय के साथ फोटो खिंचवाकर सरकारी राशि तो ले ली, पर इस योजना में खूब घपले-घोटाले हुए और कागजों में शौचालय का निर्माण हो गया। दरअसल 12 हजार रुपए में जिस तरह के शौचालयों का निर्माण हुआ, वे उपयोग के लायक ही नहीं हैं और बनने के कुछ ही माह में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आ गए हैं। युनिसेफ, रांची का भी यह मानना है कि आधे से ज्यादा शौचालय उपयोग में नहीं हैं।
सरकारी संस्थाएं उठा रहीं सवाल
पेयजल एवं स्वच्छता विभाग का ही मानना है कि बेसलाइन सर्वे के अनुसार शौचालय निर्माण की उपलब्धि 99 फीसदी से अधिक रही, लेकिन पूर्व में बने कुछ ऐसे शौचालय जो अब उपयोग में नहीं लाए जा रहे हैं, इस उपलब्धि पर पानी फेर रहे हैं। ऐसे शौचालयों की संख्या एक लाख 86 हजार 561 है। इन शौचालयों को फिर से पुनर्जीवित किया जाना जरूरी है। विभाग के अधिकारियों का मानना है कि पिछले चार सालों यानि 15 सितम्बर, 2018 तक 33 लाख 65 हजार 780 शौचालयों का निर्माण किया गया है। वर्ष 2014 में शौचालय का कवरेज मात्र 16 फीसदी था, जो अब बढ़कर 99.48 प्रतिशत हो गया है। शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल करने का दावा विभाग द्वारा किया जा रहा है।
स्वच्छ भारत मिशन को मुकाम के करीब तक पहुंचाने में एक लाख स्वयं सहायता समूहों, 55 हजार रानी मिस्त्री एवं 29 हजार जल सहियाओं की भूमिका अहम रही है। राज्य सरकार ने कहा कि शौचालयों का निर्माण और वेरिफिकेशन करा लिया गया है और राज्य स्थापना दिवस पर पूरे राज्य को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया जाएगा।
ओडीएफ घोषित किए जाने के दावे पर सरकार खरा नहीं उतर सकी है।  सरकार कागजों में 35 लाख शौचालय बनाने का दावा तो कर रही है, पर सरकार के ही एक अन्य संस्थान की बातों पर गौर करें, तो यह साफ हो जाता है कि विभागों में आपसी समन्वय नहीं है और एक-दूसरे के दावों का ही खंडन हो रहा है। स्वच्छ भारत मिशन के निदेशक राजेश शर्मा ने जैसा बताया, उससे यह पता चलता है कि अभी भी लाखों शौचालयों का निर्माण होना है।
उन्होंने बताया कि स्वच्छता सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी होने के बाद डाटा में काफी उलट-फेर हो सकता है, क्योंकि पुराने सर्वेक्षण में कई ऐसे गांव शामिल किए गए थे, जो अब नहीं हैं। इसलिए नई रिपोर्ट में उसे हटाया जाएगा। एक अनुमान के अनुसार, केवल तीन से साढ़े तीन लाख ही शौचालयों का निर्माण शेष रह गया है, जो अक्टूबर माह के अंत तक पूरा हो जाएगा।
ओडीएफ के लक्ष्य को तयशुदा समय में पूरा करने में 4 लाख 44 हजार शौचालयों का निर्माण किया जाना शेष है। पेयजल एवं स्वच्छता विभाग की 18 सितम्बर, 2018 की रिपोर्ट कुछ ऐसा ही बताती है। इस तिथि को आधार बनाएं, तो प्रतिदिन 31 हजार से अधिक शौचालयों का निर्माण करना होगा।
राज्य सरकार का जो दावा है उसके अनुसार, 24 जिलों में 12 पूरी तरह ओडीएफ हो चुके हैं और शेष 12 जिले लक्ष्य के करीब हैं। राज्य सरकार ने केंद्र सरकार को जो रिपोर्ट सौंपी है, उसमें यह कहा गया है कि झारखंड खुले में शौच से पूरी तरह मुक्त हो चुका है। झारखंड ने केंद्र सरकार की ओर से दिए गए निर्धारित लक्ष्य को एक साल पहले पूरा कर लिया है। केंद्र सरकार ने शौचालय निर्माण पूरा करने का लक्ष्य अक्टूबर 2019 तक दिया था, पर रघुवर सरकार ने अपनी पीठ थपथपाने के लिए अक्टूबर 2018 को ही 40 लाख शत-प्रतिशत लक्ष्य पूरा कर लिया।
उल्लेखनीय है कि 2014 में बेसलाइन सर्वे के तहत झारखंड को लक्ष्य दिया गया था। इस सर्वे में वैसे घरों की पहचान की गई थी, जहां शौचालय नहीं थे, ऐसे घरों की संख्या 40 लाख थी। केंद्र सरकार ने 2019 तक लक्ष्य हासिल करने का निर्देश दिया था, पर झारखंड सरकार हर कार्यों एवं योजनाओं में एक कदम आगे चलती है, जमीन पर कार्य हो या न हो, कागजों में सारे आंकड़ों पर ही यहां के मुख्यमंत्री को पीठ थपथपाने की आदत सी बन गई है।
उप राष्ट्रपति दे चुके हैं नसीहत
एक शौचालय बनाने के लिए बारह हजार रुपए दिए गए, जाहिर है कि इतने पैसों में एक शौचालय का निर्माण ही नहीं हो सकता. एक शौचालय में लगभग एक हजार ईंट का प्रयोग होता है और एक हजार ईंट की कीमत शहरी क्षेत्रों में जहां दस से ग्यारह हजार रुपए है, वहीं चार बोरा सीमेंट, बालू एवं छत के ऊपर लोहे की चादर और दरवाजा, इन सभी समानों की कीमत न्यूनतम पांच से छह हजार रुपए है, इसके अतिरिक्त मिस्त्री एवं मजदूर को भी भुगतान देना होता है, जो लगभग एक से डेढ़ हजार रुपए तक है।
सरकार द्वारा आवंटित राशि से शौचालय का निर्माण होना मुश्किल है, ऐसे में लोगों ने किसी तरह दो से ढाई फीट का ढांचा खड़ा कर इसके सामने फोटो खिंचवाकर सरकार से राशि ले ली, इसके कुछ ही दिनों बाद उक्त ढांचा भी गिर गया। अगर सरकार किसी स्वतंत्र एजेंसी या थर्ड पार्टी से जांच कराए, तो 10 प्रतिशत शौचालय भी ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोग लायक नहीं मिलेंगे।
उप राष्ट्रपति वैंकैया नायडू ने अपने झारखंड दौरे के क्रम में राज्य सरकार को नसीहत दी थी कि ओडीएफ का सर्वेक्षण बार-बार कराया जाए, ताकि यह संशय दूर हो सके कि शौचालय सिर्फ कागजों पर बनाए जा रहे हैं। वैंकेया नायडू केंद्र में शहरी विकास मंत्री भी रह चुके हैं। इसलिए उन्हें यह जरूर अहसास हुआ कि राज्य सरकार ने इतने कम दिनों में कैसे 40 लाख शौचालय बना लिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में शत-प्रतिशत शौचालय का निर्माण दिखा दिया गया है, पर सच्चाई यही है कि अभी भी 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी खुले में शौच करती है। राज्य के अन्य जिलों में भी कमोबेश यही हालात है।
शहरी आबादी छोड़कर अगर शहर से ही तीन किलोमीटर की दूरी पर सच्चाई जानने जाएं, तो ओडीएफ की पोल खुलती दिख जाएगी। राज्य के दूसरे जिलों की बात छोड़कर अगर राजधानी रांची को ही देखें, तो 2 अक्टूबर तक पूरे रांंची को ओडीएफ करना था, पर जिला प्रशासन पूरी तरह से फेल है. प्रखंडों में कछुए की चाल से शौचालय निर्माण हो रहा है। रांची के उपायुक्त राय महिमापत रे ने सभी अधिकारियों को जमकर फटकार लगाई और हर हाल में 15 नवंबर तक ओडीएफ करने का लक्ष्य दिया गया।
राजधानी रांची के चार किलोमीटर के भीतर ही लोग खुले में शौच करते दिख जाएंगे। रेल पटरियां तो पूरे तौर पर अस्थायी शौचालय बन गईं हैं। इस बात का अहसास मुख्यमंत्री रघुवर दास को भी है, तभी उन्होंने यह कहा कि गांव एवं पंचायतों में बने शौचालयों का अधिक से अधिक इस्तेमाल हो, इसके लिए जल सहिया एवं स्वच्छता दूत अहम भूमिका निभाएंगे।
स्वच्छता जागरुकता अभियान के तहत जल सहिया खुले में शौच करने वालों के खिलाफ अभियान चलाएगी और सीटी बजाकर लोगों को खुले में शौच करने से रोकेगी। उन्होंने कहा कि जनशक्ति का ही परिणाम है कि राज्य को शत-प्रतिशत खुले में शौच से मुक्ति मिल गई है। उन्होंने कहा कि लोगों को भी जागरुक होना चाहिए और आगे आकर इस कुप्रथा को रोकना चाहिए। राज्य के सभी लोगों की भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिए एक अभियान चलाया जा रहा है।
कबाड़ हो गए करोड़ों के मॉड्‌यूलर टॉयलेट
राज्य में सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है और पंचायतों में बने अधिकांश सार्वजनिक शौचालय उपयोग के लायक नहीं हैं। किसी में पानी नहीं है तो किसी का दरवाजा ही टूटा हुआ है। इस कारण लोग बगल के खुले स्थानों को शौचालय के रूप में उपयोग करते हैं। शहरों में सुलभ इंटरनेशनल द्वारा बनाए गए सार्वजनिक शौचालयों का गरीब लोग इसलिए उपयोग नहीं कर पाते हैं, क्योंकि ये कुछ महंगे हैं। मुख्यमंत्री दाल भात योजना में जहां लाभुक पांच रुपए में खाना खा लेते हैं, वहीं सुलभ इंटरनेशनल का शौचालय उपयोग करना इससे महंगा पड़ता है।
राज्य सरकार ने शहरों में मॉड्‌यूलर टॉयलेट तो बनवाए, अरबों रुपए खर्च हुए, पर ये शौचालय कबाड़ ही बनते जा रहे हैं। स्कूलों में बने शौचालय की भी स्थिति अत्यंत दयनीय है। स्कूलों में शौचालय तो बना दिए गए पर इनके देखभाल एवं सफाई के लिए स्कूलों को फंड आवंटित नहीं किए गए, इसका परिणाम यह हुआ कि देखरेख के अभाव में स्कूलों में बने शौचालय उपयोग के लायक नहीं रहे, इसमें पढ़ने वाले बच्चों को खुले मैदान का ही सहारा लेना पड़ता है।
यूनिसेफ में सेनिटेशन कार्य से जुड़े अधिकारियों का भी मानना है कि कागजों में 40 लाख शौचालय बनाए जाने का दावा तो किया गया है, पर वास्तविक स्थिति कुछ और ही है। शहरी क्षेत्रों में बने शौचालय तो कुछ उपयोगी भी साबित हो रहे हैं, पर ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति भयावह है। गांवों में बनाए गए अधिकांश शौचालयों का कोई अस्तित्व ही नहीं बचा है, इस कारण अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों के लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं। खुले में शौच के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है और लोग डायरिया, डेंगू जैसे गंभीर बीमारियों की जद में आ रहे हैं और इसके कारण लोगों की मृत्यु का आंकड़ा भी बढ़ा है।
उत्तराखंड सरकार के दावों की खुली पोल, कई गांवों में ग्राम प्रधानों के घरों में नहीं है शौचालय
राज्य सरकार ने कुछ समय पहले उत्तरकाशी जिले को पहला ओडीएफ जिला घोषित कर खुद की पीठ थपथपाई थी। लेकिन, जमीनी हकीकत यह है कि उत्तरकाशी के कई गांवों के ग्राम प्रधानों के घरों तक में शौचालय नहीं हैं।
आलम यह है कि गांवों के सभी ग्रामीणों को खुले में शौचालय जाना पड़ रहा है। इतना ही नहीं इन इलाकों में स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। स्थिति यह है कि मरीजों को इलाज कराने के लिए 50 किमी दूर पुरोला तक का सफर करना पड़ रहा है। वहीं छात्र-छात्राओं को दूसरे कस्बों में जाकर किराए के कमरोें में रहकर पढ़ाई करनी पड़ रही है।
‘पलायन एक चिंतन’ के संयोजन में आयोजित कमल जोशी स्मृति छह दिवसीय हिमालय दिग्दर्शन यात्रा के समापन के बाद 15 सदस्यीय ट्रेकर्स दल दून पहुंचा। संस्था के संयोजक रतन सिंह असवाल ने पत्रकार वार्ता कर यात्रा से जुड़ी जो जानकारियां साझा की हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाली हैं, बल्कि सरकार की ओर से विकास को लेकर किए जा रहे दावों की कलई भी खोलती हैं।
संस्था संयोजक असवाल के मुताबिक, सरकार की ओर से पूरे उत्तरकाशी को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया गया है। जबकि हकीकत यह है कि जिले के देवजानी ग्रामसभा के देवजानी और जीवाणु जैसे गांवों में एक भी शौचालय नहीं है। यहां तक कि ग्राम प्रधान विमला देवी के घर पर भी शौचालय नहीं है।
यहां तीन सौ से अधिक की आबादी निवास करती है। इसी प्रकार सर बड़ियार घाटी की ग्राम पंचायत सर के तीन गांवों सर, घिंगाड़ी और गंगटाड़ी में केवल दो शौचालय ही बने हैं। यहां भी ग्राम प्रधान यलमी देवी के घर शौचालय नहीं है। सर गांव में एक परिवार द्वारा इसी महीने शौचालय का निर्माण कराया गया है, लेकिन बजट नहीं होने की वजह से दरवाजे नहीं लग पाए हैं।
इसके अलावा इन इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाआें का घोर अभाव है। ऐसे में छात्र-छात्राओं को पढ़ाई के लिए भी राजगढ़ी, पुरोला और बड़कोट में जाकर पढ़ाई करनी पड़ रही है। स्वास्थ्य सुविधाओं का भी घोर अभाव है। बीमार होने की स्थिति मरीजों को 50 किमी दूर पुरोला में ही स्वास्थ्य सुविधा मिल पाती है। इतना ही नहीं इन इलाकाें में पेयजल की भारी किल्लत है। ग्रामीण पूरी तरह प्राकृतिक जलस्रोतों पर निर्भर हैं। 
क्षेत्र में परिवहन व्यवस्था भी भगवान भरोसे है। देवजानी तक तो इन दिनों सड़क निर्माण का कार्य चल रहा है। लेकिन सर बड़ियार के ग्रामीणों को आज भी राजगढ़ी, गंगताड़ी तक 10 किमी पैदल चलकर घने जंगलों और नदियों के बीच होकर सड़क तक पहुंचना पड़ता है। बरसात में यहां के आठ गांव पूरी तरह से दुनिया से कट जाते हैं। संचार क्रांति के इस दौर में क्षेत्र के लोगों के लिए माकूल संचार व्यवस्था नहीं है।
संस्था संयोजक रतन असवाल ने बताया कि यह क्षेत्र पर्यटन, औद्यानिकी, जैविक खेती, उन व रेशा उद्योग की संभावनाओं से भरा पड़ा है। क्षेत्र में गड्डूगाड़ और बड़ियार गाड़ जैसी नदियों के किनारे कैंपिंग के साथ ही उच्च हिमालयी बुग्यालों में कैंपिंग ट्रेकिंग की अपार संभावनाएं हैं। आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित होने की वजह से यहां सेब उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं। पर्याप्त भेड़ पालन के बावजूद यहां उन का समुचित उपयोग नहीं हो पाता है। यहां हैंडलूम ट्रेनिंग व विपणन केंद्र विकसित किए जा सकते हैं।
असवाल ने बताया कि नए पर्यटक स्थलों को चिह्नित करने व उन्हें विकसित कर रोजगार की संभावनाएं विकसित करना संस्था का लक्ष्य है। इस वर्ष भी संस्था देवजानी से केदारकांठा तक एक नया ट्रैक सामने लाने में कामयाब रही है। ट्रेकिंग दल में रतन सिंह असवाल विजयपाल रावत, प्रवीन कुमार भट्ट, नेत्रपाल यादव, तनुजा जोशी, अजय कुकरेती, विनोद मुसान, इंद्र सिंह नेगी, सिद्धार्थ रावत, दलबीर रावत, जितेश, प्रणेश असवाल, सौरभ असवाल, सुनील कंडवाल समेत स्थानीय नागरिक भी शामिल थे।
मूत्रालय के बाहर बैठा
वसूली करने वाला 
अभी कुछ समय पूर्व मंसूरी जाने का अवसर मिला। जहाँ चर्चित झील, जिसे देखने प्रतिदिन हज़ारों लोग जाते हैं, पर टिकट जो पहले 10 रूपए का होता था, अब GST लगने के कारण 11.50 रूपए हो गया है, लेकिन पर्यटकों से लिए जाते हैं 12 रूपए यानि 50 प्रति पर्यटक अधिक। अब अधिक वसूली किस खाते में जाती है, पता नहीं। परन्तु मूत्रालय के प्रयोग के लिए 5 रूपए देने पड़ते  हैं। मूत्रालय के बाहर बैठे, वसूली करने वाले से बातचीत में ज्ञात हुआ, कि "ठेकेदार को रोज के 500 रूपए चाहिए और ऊपर के जितने भी रूपए होते हैं, सब हमारे। यह पूछने पर आखिर तुम्हारे पास कितने रूपए रोज आ जाते हैं, जवाब मिला,700 से 800/900 रूपए।"      

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